GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 4 दशकं धर्मलक्षणम्

Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 4 दशकं धर्मलक्षणम् Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.

Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 4 दशकं धर्मलक्षणम्

GSEB Solutions Class 11 Sanskrit दशकं धर्मलक्षणम् Textbook Questions and Answers

दशकं धर्मलक्षणम् Exercise

1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्यः समुचितम् उत्तरं चिनुत।

પ્રશ્ન 1.
यः आत्मनः गतिम् इच्छेत् स ………………………………………. भजेत्।
(क) क्षमाम्
(ख) धियम्
(ग) धृतिम्
(घ) विद्याम्
उत्तर :
(ग) धृतिम्

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પ્રશ્ન 2.
कः द्विजः उच्यते?
(क) दान्तः
(ख) अधीतविद्यः
(ग) जितेन्द्रियः
(घ) बुधः
उत्तर :
(क) दान्तः

પ્રશ્ન 3.
किं कार्यम् अकार्यं वा वेत्ति ?
(क) क्षमा
(ख) धृतिः
(ग) सत्यम्
(घ) बुद्धिः
उत्तर :
(घ) बुद्धिः

પ્રશ્ન 4.
परोक्षार्थस्य दर्शकं किमस्ति ?
(क) धृतिः
(ख) बुद्धिः
(ग) विद्या
(घ) सत्यम्
उत्तर :
(ग) विद्या

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પ્રશ્ન 5.
किम् आभ्यन्तरं शौचम्?
(क) अस्तेयम्
(ख) भावसंशुद्धिः
(ग) बुद्धिः
(घ) इन्द्रियनिग्रहः
उत्तर :
(ख) भावसंशुद्धिः

2. संस्कृतभाषायाम् उत्तरं लिखत।

પ્રશ્ન 1.
धर्मस्य कति लक्षणानि ?
उत्तर :
धर्मस्य दश लक्षणानि सन्ति।

પ્રશ્ન 2.
अन्यदीये तृणे, काञ्चने च मनसा विनिवृत्तिः किम् ?
उत्तर :
अन्यदीये तृणे, काञ्चने च मनसा विनिवृत्तिः अस्तेयम् अस्ति।

પ્રશ્ન 3.
सत्यस्य किं लक्षणम् ?
उत्तर :
यथार्थकथनं च सर्वलोकसुखप्रदं सत्यस्य लक्षणम् अस्ति।

પ્રશ્ન 4.
शास्त्रम् कस्य लोचनम् ?
उत्तर :
शास्त्रम् सर्वस्य लोचनम्।

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પ્રશ્ન 5.
क: व्यसने न शोचति ?
उत्तर :
दान्तः द्विजः व्यसने न शोचति।

3. क-वर्गख-वर्गेण यथास्वं योजयत।

क – वर्ग: – ख – वर्ग:
(1) शौचम् – (i) प्रवृत्तिं निवृत्तिं च वेत्ति।
(2) धृतिः – (ii) द्विविधम्।
(3) धीः – (iii) मनसा विनिवृत्तिः।
(4) सत्यम् – (iv) नाप्नोति विक्रियाम्।
(5) अस्तेयम् – (v) यथार्थकथनम्
उत्तर:
क – वर्ग – ख – वर्ग
(1) शौचम् – (i) द्विविधम
(2) धृतिः – (ii) नाप्नोति विक्रियाम्
(3) धीः – (iii) प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च वेत्ति।
(4) सत्यम् – (iv) यथार्थकथनम्
(5) अस्तेयम् – (v) मनसा विनिवृत्तिः

4. Answer in your mother-tongue:

Question 1.
Why is the forgivers always safe?
उत्तर :
क्षमाशील व्यक्ति विश्व में कोई भी अहित नहीं कर सकता है। दुर्जन व्यक्ति चाहते हुए भी क्षमाशील व्यक्ति को दुःखी नहीं कर सकते हैं, जिस प्रकार तिनके या सूखे पत्तों से या घास-फूस से रहित भूमि पर पड़ी हुई अग्नि स्वयं ही शान्त हो जाती है।

दुर्जन व्यक्ति के कष्ट पहुँचाने के सैंकड़ों प्रयत्न भी पुनः पुनः क्षमा करने पर क्षमाशील व्यक्ति के सामने निष्फल हो जाते हैं।

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Question 2.
Why is ‘Shastra’ called an eye’ ?
उत्तर :
शास्त्र को संस्कृत साहित्य में लोचन कहा गया है क्योंकि शास्त्र की दृष्टि से देखने पर व्यक्ति में विवेक उत्पन्न होता है। जिस भाँति हम चर्मचक्षुओं से दृश्यमान विश्व के बाह्य पदार्थों का दर्शन करते हैं उसी प्रकार शास्त्र रूपी नेत्रों से उचित-अनुचित कर्म या व्यवहार का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

शास्त्र अनेक प्रकार के संशयों का उच्छेदन करके परोक्ष अर्थ का भी दर्शन कराते हैं। जड़-चेतन सर्वत्र उस पर तत्त्व का दर्शन करते हुए शास्त्ररूपी नयनों से व्यक्ति में विवेक उत्पन्न होता है। इस प्रकार शास्त्र दृष्टिहीन व्यक्ति भी अन्धा ही कहा गया है।

Question 3.
Why should one give up anger?
उत्तर :
क्रोध का परित्याग किया जाना चाहिए क्यों कि मानव विभिन्न क्षेत्रों में जो परिश्रम करता किंवा तप-साधना करता है तथा जो कुछ प्रयत्न करता है एवं दान-पुण्य आदि अनेक कर्म करता है उन सभी कर्मों का फल एक मात्र क्रोध की अग्नि में भस्म हो जाता है।

आशय यह है मानव के द्वारा अत्यन्त परिश्रमपूर्वक किए दान-पुण्यादि समस्त कर्मों का फल क्रोध से नष्ट हो जाता है अतः व्यक्ति को क्रोध नहीं करना चाहिए।

Question 4.
What kind of intellect is that which understands bondage as well as salvation ?
उत्तर :
बन्धन एवं मोक्ष को जाननेवाली बुद्धि को सात्त्विकी बुद्धि कहा जाता है। श्रीमद् भगवद्गीता के 13वे से 18वे अध्याय तक भगवान कृष्ण ने तीन गुणों का विस्तृत विवेचन किया है। इसके अन्तर्गत 18वे अध्याय में भगवान ने तीन प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया है – सात्त्विकी, राजसी एवं तामसी।

इस प्रकार सात्त्विकी बुद्धि को धारण कर मानव को अपना लक्ष्य अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेना चाहिए।

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5. Write an analystical note on:

1. इन्द्रिय निग्रह :
मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य पुरुषार्थ चतुष्टय को सिद्ध करना है। मानव-देह को प्राप्त कर जीवन की यात्रा में समस्त ऐहिक सुखों का उपभोग करते हुए मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग की बाधाओं का निवारण करने हेतु महर्षि पतंजलि के द्वारा एवं अन्य सभी शास्त्रों में दर्शाए गए उपायों में इन्द्रिय-निग्रह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पंच ज्ञानेन्द्रियों एवं पंच कर्मेन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति को ही हम परम सुख मान लेते हैं।

ये इन्द्रिय – सुख मानव को अपने लक्ष्य से भटकाता है। अत: इन्द्रियों को पंच विषयों का द्वार कहा जाता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध ये पाँच विषय श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा एवं घ्राण इन इन्द्रियरूपी द्वार से प्रविष्ट होते हैं। पंचविषयों की पूर्ति में विवेक से विस्मृत कर मानव दुःखों के जाल में फँस जाता है।

इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों के विषयों को संयमित कर मानवीय-जीवन को दिव्य बनाते हुए अध्यात्म-पथ पर निर्विघ्नतया मानव आगे बढ़ सकता है। जो व्यक्ति किसी वस्तु को स्पर्श करके, देखकर, खा कर, सूंघकर या सुनकर भी उन विषयों के प्रति आसक्त नहीं होता है, उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है।

2. शौचम् :
शौच का अर्थ है पवित्रता या स्वच्छता। पवित्रता या स्वच्छता दो प्रकार की होती है – बाह्य एवं आन्तरिक। आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने के लिए दोनों प्रकार की स्वच्छता परम आवश्यक है। स्नान के द्वारा जल से मिट्टी के द्वारा देह की बाह्य शुद्धि होती है।

कुछ विशिष्ट-अनुष्ठानों में देह की बाह्य शुद्धि हेतु दश-विध स्नान का विधान भी है। इस प्रकार देह की बाह्य शुद्धि के साथ-साथ आन्तरिक शुद्धि भी परम आवश्यक है। आन्तरिक शुद्धि से तात्पर्य है विचारों की, भावों की शुद्धि। किसी भी अन्य व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार की कोई दुर्भावना न होना ही आन्तरिक शुद्धि है। यदि व्यक्ति की आंतरिक शुचिता न हो तो भक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

व्यक्ति को प्रयत्न करना चाहिए कि उसके मन में काम-क्रोध, लोभ, मोह, रागद्वेष आदि दोष नहीं होने चाहिए तथा इन दोषों से मुक्त होने के लिए सद्ग्रन्थ का या सद्गुरु का आश्रय लेना चाहिए। इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर शुचिता से ही जीव परम तत्त्व को प्राप्त कर जीवन को सफल बना सकता है।

3. धुति: –
धृति शब्द का आशय है धैर्य। सोद्देश्यपूर्ण मानव-जीवन की संपूर्णतया सार्थकता के लिए धृति होना नितान्त अनिवार्य है। धर्म के कठिन मार्ग पर चलते हुए विविध विजों से बचने के लिए धैर्य होना चाहिए।

कदम-कदम पर होनेवाली परीक्षा में यदि मानव धैर्य खो देगा तो उसके द्वारा इस मार्ग पर चलना असंभव हो जाएगा।

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6. Write a critical note on ‘Ten Characteristics of religion’.
उत्तर :
भारतीय संस्कृति के अनुसार मानवीय-जीवन निरुद्देश्य नहीं है। मानव को जीवन में चार पुरुषार्थ रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ मानव का लक्ष्य हैं। साथ ही मानव को तीन ऋणों से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए तथा ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों का निर्वहन करते हुए निर्वाण केन्द्रित जीवन को सफल बनाना चाहिए।

इस प्रकार मानव जीवन का महत्त्व मानव मात्र के कल्याणार्थ न होकर संपूर्ण संसार में विद्यमान समस्त जीवों के कल्याण के लिए है। मानव का कर्तव्य है कि वह भूमि, जल, वायु आदि समस्त तत्त्वों की शुद्धि के लिए तथा जल-थलादि समस्त जीवों के कल्याण के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

इस प्रकार अपवर्ग-प्राप्ति के लिए प्रयत्न रत मानव को धर्म के दस लक्षणों का अपने जीवन में पालन करना चाहिए। धर्म के दस लक्षण किसी धर्म-विशेष को माननेवाले व्यक्ति के लिए कदापि नहीं है प्रत्युत विश्व-मानव के कल्याणार्थ अत्यन्त उपयोगी है। धर्म के ये दस लक्षण हैं – धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं अक्रोध। धृति शब्द का आशय है धैर्य।

धर्म-पथ के प्रवासी के लिए धृति अति आवश्यक है क्योंकि धर्म या कर्तव्य-पथ पर पग-पग पर कठिन परीक्षा होती है। यदि इस परिस्थिति में व्यक्ति धैर्य खो देता है तो उसके लिए इस मार्ग पर चलना असंभव होता है। व्यक्ति को सुख-दुःख में किसी प्रकार की मनोविकृति से दूर अर्थात् उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए। धर्म का द्वितीय लक्षण है क्षमा। क्षमा रुपी गुण से दुर्जन व्यक्ति का भी हृदय परिवर्तन हो जात है।

क्षमाशीलता के गुण से दुर्जन-व्यक्ति का कठोर हृदय भी द्रवित हो जाता है। इसी शृङ्खला में धर्म का तृतीय लक्षण है – दम। जो संकट में शोकमग्न न हो तथा सुख में अति हर्षित न हो, सबकुछ सहन करने की शक्ति को ही दम कहा गया है। मन-वचन-कर्म से किसी को भी दुःख न देना ही सर्वश्रेष्ठ संयम अर्थात् दम है। धर्म का चतुर्थ लक्षण अस्तेय है जिसका आशय है मन से भी किसी अन्य की वस्तु के प्रति आकर्षित न होना।

स्तेय का अर्थ है चोरी करना, लेकिन मन से भी किसी अन्य की वस्तु के चुराने का भाव न होना ही अस्तेय है। धर्म का पंचम लक्षण है शौच अर्थात् शुद्धि या स्वच्छता। यहाँ अध्यात्म मार्ग के पथिक को बाह्य एवं आभ्यंतर स्वच्छता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। देह की बाह्य शुद्धि मिट्टी एवं जल के द्वारा होती है, किन्तु आन्तरिक शुचिता भावों एवं सद्विचार की शुद्धि से ही होती है। अर्थात् मन मलीन नहीं होना चाहिए।

राग-द्वेष, मोह-लोभ क्रोधादि मल से रहित हमारा यह मन निर्मल हो एवं सर्व के हित की कामना से परिपूर्ण हो यही आन्तरिक सोच है। धर्म का छठा लक्षण है इन्द्रियनिग्रह। इन्द्रिय-निग्रह से तात्पर्य है ज्ञानेन्द्रियों के विषय – शब्द-स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध में संयम रखते हुए विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए। इन पंच विषयों में अत्यासक्त रहनेवाला अविवेकी मानव स्वयं के लिए स्वयं ही विनाश को निमन्त्रण देता है।

GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 4 दशकं धर्मलक्षणम्

धर्म का सप्तम लक्षण धी अथवा बुद्धि है। श्रीमद् भगवद् गीता के 13 से 18 वे अध्याय तक भगवान श्रीकृष्ण तीन गुणों का विवेचन करते हैं। अठारहवें अध्याय में भगवान ने तीन प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया है – सात्त्विकी, राजसी एवं तामसी। प्रवृत्ति-निवृत्ति, कार्याकार्य, भयाभय एवं बंधन-मुक्ति को यथेष्ट रूप से जाननेवाली बुद्धि सात्त्विकी है। इसी प्रकार से विद्या, सत्य एवं क्रोध-राहित्य धर्म के अन्तिम तीन लक्षण है।

जिसमें ज्ञान को तृतीय नेत्र के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। गुण, अवस्था एवं देश-काल की सीमा से मुक्त या अतीत परम ब्रह्म परमेश्वर का आश्रय अर्थात् जीवन में सत्य पालन ही धर्म के नवम लक्षण के रूप में दर्शाया गया है। तथा धर्म का अन्तिम लक्षण अक्रोध अर्थात् क्रोध से रहित होना।

क्रोध व्यक्ति का सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोधान्ध व्यक्ति स्वयं का भी हिताहित देखने में असमर्थ होता है, अत: आत्मि अध्यात्म-मार्ग के पथिक को क्रोध का परित्याग करना चाहिए। इस प्रकार शास्त्रों में वर्णित धर्म के ये दस लक्षण मानव मात्र के लिए उपयोगी है।

एक अर्थ में कहा जाय तो धर्म शब्द का आशय यहाँ व्यापक रूप में संपूर्ण संसार के मानव-मात्र के लिए प्रयुक्त होता है।

7. Explain with reference to context :

1. स दान्तो द्विज उच्यते।

यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक में ‘दशकं धर्म-लक्षणम्’ नामक पद्य-पाठ से ली गई है। इस पाठ में मानव-जाति के विकास के मूलाधार के रूप में दस लक्षणों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद : वह दमनशील (संयमी) द्विज कहलाता है।

व्याख्या : यहाँ धर्म के दस लक्षणों में से दम (संयम) का महत्त्व समझाया गया है। वह संयमी जिसने ज्ञानार्जन किया है उसे द्विज कहा जाता है। द्विज शब्द का तात्पर्य है वह जिसका जन्म दो बार होता है। अत: द्विज का अर्थ पक्षी, दाँत एवं ब्राह्मण होता है।

उपनयन संस्कार के द्वारा गुरु बालक को आश्रम में ज्ञान प्रदान करते हैं। इस प्रकार बालक का जन्म एक बार माँ के गर्भ से तथा दूसरी बार गुरु के द्वारा ज्ञानरूपी जन्म से होता है। अतः ब्राह्मण या ज्ञानी को द्विज कहा जाता है।

(2) न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रिय।

सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के ‘दशकं धर्मलक्षणम्’ नामक पद्य पाठ से ली गई है। इस पाठ के माध्यम से विश्वभर के मानव को जीवन जीने की सम्यक् कला का बोध कराते हुए मुख्य दस विषयों का वर्णन किया है। ये दस विषय मानव-धर्म के दस लक्षण है, जो मानव को मानव बनाते हैं।

अनुवाद : जो न हर्षित होता है या न ग्लानि का अनुभव करता है उसे जितेन्द्रिय जानना (समझना) चाहिए।

व्याख्या : इस पंक्ति के माध्यम से मानव को इन्द्रिय-निग्रह का महत्त्व समझाया है तथा साथ ही यह भी समझाया है कि जितेन्द्रिय किसे कहा जाता है। यहाँ प्रदत्त पंक्ति श्लोक का उत्तरार्ध है।

श्लोक के पूर्वार्ध में कहा गया है कि जो व्यक्ति सुनकर, स्पर्श करके, देखकर, खाकर और सूंघकर जो न हर्षित होता है और जो न ही ग्लानि का अनुभव करता है उसे जितेन्द्रिय समझा जाना चाहिए। ज्ञानेन्द्रिय वह है जो पंच ज्ञानेन्द्रियों के पंच विषयों में – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधादि में अत्यासक्त न हो।

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3. तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्।

सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के ‘दशकं धर्म लक्षणम्’ नामक पद्यपाठ से ली गई है। इस पाठ में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन किया गया है। यहाँ धर्म का संकीर्ण अर्थ न होकर मानव मात्र का कर्तव्य अभीष्ट है। सम्पूर्ण विश्व की सामाजिक व्यवस्था के उत्कर्ष के लिए इसका ज्ञान मानव-मात्र को होना चाहिए।

अनुवाद : अतः क्रोध का परित्याग किया जाना चाहिए।

व्याख्या : यहाँ प्रदत्त पंक्ति श्लोक का अन्तिम चरण है। जिसके माध्यम से यह ज्ञात होता है कि इस कारण से क्रोध का परित्याग किया जाना चाहिए। श्लोक से पूर्व तीन चरणों में क्रोध न करने का कारण दर्शाया गया है। यहाँ कहा गया है कि व्यक्ति जो कुछ तप करता है या साधना करता है अथवा प्रयत्न करता है अथवा दान-पुण्यादि सत्कर्म करता है, क्रोध उसे हर लेता है।

व्यक्ति की क्रोधाग्नि में उसकी तपश्चर्या, परिश्रम, साधना, दान-पुण्यादि समस्त सत्कर्म और अनेक उत्तम प्रयत्न सब कुछ समाप्त हो जाते हैं। कठोर परिश्रम करनेवाले प्रयत्नशील तथा दानादि कर्मों के पुण्य-फल को व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए।

व्यक्ति को विवेक एवं संयम पूर्वक अपने क्रोध पर नियन्त्रण करना चाहिए। क्रोध में व्यक्ति अन्य का अहित बाद में करता है, सर्व-प्रथम तो हानि क्रोध-कर्ता की ही होती है। क्रोध में व्यक्ति अपना हिताहित विस्मृत कर बैठता है तथा स्वयं का ही विनाश करता है।

अतः कहा गया है क्रोधान्धो नैव पश्यति। अर्थात् क्रोध में अंधा व्यक्ति कुछ नहीं देखता है।

Sanskrit Digest Std 11 GSEB दशकं धर्मलक्षणम् Additional Questions and Answers

दशकं धर्मलक्षणम् स्वाध्याय

1. अधोलिखितेभ्य: विकल्पेभ्य: समुचितम् उत्तरम् चिनुत।

પ્રશ્ન 1.
शौचं कतिविधम् प्रोक्तम् ?
(क) एकविधम्
(ख) द्विविधम्
(ग) त्रिविधम्
(घ) चतुर्विधम्
उत्तर :
(ख) द्विविधम्

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પ્રશ્ન 2.
यस्य करे क्षमाखड्गः तस्य …………………………….. किं करिष्यति ?
(क) दुर्जनः
(ख) सज्जनः
(ग) पशुः
(घ) पक्षी
उत्तर :
(क) दुर्जनः

પ્રશ્ન 3.
कुत्र पतित: वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ?
(क) तृणे
(ख) अतृणे
(ग) वस्त्रे
(घ) कार्पासे
उत्तर :
(ख) अतृणे

પ્રશ્ન 4.
धर्मस्य लक्षणानि कति ?
(क) पञ्च
(ख) अष्ट
(ग) दश
(घ) चत्वारि
उत्तर :
(ग) दश

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પ્રશ્ન 5.
मृज्जलाभ्याम् शौचम् कीदृशम् स्मृतम् ?
(क) बाह्यम्
(ख) आभ्यन्तरम्
(ग) उभयम्
(घ) एतेषु एकम् अपि न
उत्तर :
(क) बाह्यम्

2. संस्कृतभाषायाम् उत्तरं लिखत।

પ્રશ્ન 1.
शौचं कतिविधं भवति ?
उत्तर :
शौचं द्विविध भवति।

પ્રશ્ન 2.
भावशुद्धिः कीदृशं शौचम् अस्ति ?
उत्तर :
भावशुद्धिः आन्तरिकं शौचम् अस्ति।

પ્રશ્ન 3.
दुर्जनः कस्य अहितं न करिष्यति ?
उत्तर :
यस्य हस्ते क्षमाखड्गः अस्ति तस्य दुर्जनः अहितं न करिष्यति।

પ્રશ્ન 4.
जितेन्द्रिय: क: विज्ञेयः।
उत्तर :
य: नरः श्रुत्वा, स्पृष्ट्वा, दृष्ट्वा, भुक्त्वा घ्रात्वापि न हृष्यति च न ग्लायति स: जितेन्द्रियः विज्ञेयः।

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3. मातृभाषा में उत्तर लिखिए।

પ્રશ્ન 1.
अस्तेय किसे कहा जाता है ?
उत्तर :
अस्तेय अर्थात् चोरी न करना। महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन में पाँच यमों के अन्तर्गत अस्तेय का समावेश किया गया है। चोरी शब्द का प्रचलित आशय यह है कि किसी अन्य की वस्तु उसकी जानकारी के बिना ले लेना। परंतु यहाँ किसी अन्य की वस्तु के प्रति मानसिक रूप से भी आसक्ति हो या उसे ले लेने की इच्छा भी हो तो उसे स्तेय अर्थात् चोरी ही कहा जाता है। इस प्रकार मन से भी स्तेय की भावना न हो वह ही अस्तेय कहा जाता है।

दशकं धर्मलक्षणम् Summary in Hindi

दशकं धर्मलक्षणम् (धर्म के दस लक्षण)

सन्दर्भ : संस्कृत भाषा में विद्यमान धार्मिक साहित्य श्रुति एवं स्मृति के रूप में विभक्त है। श्रुति शब्द का एक आशय होता है अपरिवर्तनीय धर्म साहित्य। इस प्रकार के साहित्य में उपदिष्ट विषयों पर किसी देश-काल का कोई प्रभाव नहीं होता है।

इस प्रकार श्रुति शास्त्र के विधान सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक होते हैं। स्मृति-शास्त्र में उपदिष्ट विषयों पर यदा-कदा देश-काल का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। अतः स्मृतिशास्त्र के विधान कभी-कभी परस्पर भिन्न भी हो सकते हैं।

यद्यपि स्मृति-शास्त्र के विधानों में परस्पर यदा-कदा विरोधाभास होता है तथापि अधिकांशवचन सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक होते हैं। स्मृति-शास्त्र के अधिकांश वचनों की उपयोगिता सर्वत्र देशकाल में समान रूप से अनिवार्य होती है।

प्रस्तुत पाठ में प्रदत्त प्रथम श्लोक का अन्तिम चरण, शीर्षक के रूप में चयनित किया गया है। मानव-मात्र के कल्याणार्थ सार्वकालिक एवं सर्वत्र उपयोगी मानवधर्म के दस लक्षणों का वर्णन पाठ के प्रथम श्लोक के प्रथम तीन चरणों में किया है।

धर्म के इन दस लक्षणों पर देश या कालविशेष का कोई प्रभाव नहीं हो सकता है। धर्म के दस लक्षणों से आशय है मानव-धर्म के दस लक्षण।

धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रहादि धर्म के जिन दस लक्षणों का यहाँ वर्णन किया गया है वे सभी मानव का मानव होने के लिए वर्तमान में भी तथा भविष्य में भी अत्यन्त अनिवार्य है।

वर्तमान में जहाँ समाज में दम्भ, पाखण्ड, अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि दोषों का साम्राज्य दिखाई देता है वहीं ये श्लोक व्यक्ति को मानवीय गुणों से परिपूर्ण कर, उसकी पाश्विक प्रवृत्तियों का उन्मूलन करते हुए उसे मानव बनाने के लिए परम् आवश्यक है।

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पाठ में प्रदत्त श्लोक संस्कृत साहित्य के भिन्न-भिन्न ग्रन्थों से उद्धृत किए गए हैं। संस्कृत-साहित्य के भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में इस विषय का वर्णन प्राप्त होता है। यहाँ पाठ में प्रदत्त सभी श्लोक अनुष्टुप छन्द में है।

अन्वय, शब्दार्थ एवं अनुवाद

  1. अन्वय : धृतिः, क्षमा, दमः, अस्तेयम्, शौचम्, इन्द्रियनिग्रहः, धीः, विद्या, सत्यम्, अक्रोधः (इत्यादय) दशकं धर्मलक्षणम् (अस्ति)।

शब्दार्थ : धृतिः – धैर्य/अस्तेयम् = चोरी न करना। धी: = बुद्धि। दशकम् = दस श्लोकों का समूह, दस लक्षणों का एक समूह धर्म के उस लक्षणों को एक सूत्र में दर्शाना → दशकम् – धर्म लक्षणम्। संस्कृत भाषा में देवी-देवताओं की स्तुति हेतु ‘अष्टकम्’ की रचना की जाती है जिसमें आठ श्लोक होते हैं। इस प्रकार पञ्चकम् शतकम् आदि शब्दों का प्रयोग भी प्राय: सुलभ होता है।

अनुवादः – धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण है।

2. (1) धृति :
अन्वय : धृति: नाम यया सुख, दुःखे विक्रियाम् न आप्नोति। य: प्राज्ञ: आत्मन: गतिम् इच्छेत् स: (प्राज्ञ:) सदा तां भजेत।

शब्दार्थ : धृति: नाम: = धृति अर्थात्, धृति शब्द का आशय है। (इस अर्थ में यह प्रयुक्त है।) सुख्ने, दुःख्ने = सुख-दुःख में। विक्रियाम् = विकार को। प्राज्ञः = विद्वान, प्रज्ञावान, ज्ञानवान। आत्मनः = स्वयं की। गतिम् = यहाँ कल्याण अर्थ ग्राह्य है।

अनुवाद : धृति अर्थात् वह (तत्त्व) जिसके द्वारा सुख और दुःख में (प्रज्ञावान व्यक्ति) विकार को प्राप्त नहीं होते हैं। (सुखदुःख से प्रभावित नहीं होते हैं।) वे विद्वान (जन) जो स्व-कल्याण की कामना करते हैं उन्हें हमेशा धैर्य धारण करना चाहिए।

2. क्षमा :
अन्वयः – यस्य करे क्षमाखड्ग: (अस्ति) दुर्जनः (तस्य) किं करिष्यति ? (यथा) अतृणे पतित: वह्निः स्वयम् एव उपशाम्यति।

शब्दार्थ : क्षमाखड्ग: = क्षमारूपी तलवार। क्षमा एव खड्गः इति क्षमाखड्गः कर्मधारय समास। अतृणे = न तृणम् इति अतृणम्, तस्मिन् – नञ् तत्पुरुष समास। तिनका या घास रहित स्थल पर। वह्निः = अग्निः, अनलः, पावकः। उपशाम्यति = बुझ जाती है, शान्त हो जाती है।

अनुवाद : जिसके हाथ में क्षमा रूपी खड्ग हो दुर्जन उसका क्या (अहित) करेगा ? जैसे तिनके या घास-फूस रहित भूमि पर गिरी हुई अग्नि स्वयं ही शान्त हो जाती है उसी भाँति दुर्जन भी स्वयं ही परास्त हो जाएगा।

(3) दम:
अन्वयः – य: महत्यर्थे न हृष्यति व्यसने च न शोचति स:। वै परिमितप्रज्ञ: दान्त: द्विज: उच्यते।

शब्दार्थ : महत्यर्थे = बड़े कार्य के लिए। हृष्यति = हर्षित होता है, प्रसन्न होता है। व्यसने = संकट में, आपत्ति में। शोचति = चिंता करता है – शोक करता है – शुच् धातु वर्तमानकाल, अन्य पुरुष एकवचन। वै = निश्चित रूप से – यह एक अव्यय है। परिमितिप्राज्ञः = प्रज्ञावान्, बुद्धिमान् – परिमिता प्रज्ञा यस्य सः बहुव्रीहि समास। दान्तः = दमन किया हुआ, दमनशील द्विज – ब्राह्मण। जिसका उपनयन संस्कार होता है वह द्विज कहलाता है। द्विज शब्द का अर्थ होता है दो बार जन्म लेनेवाला। माता-पिता के द्वारा बालक का प्रथम जन्म होता है, तदुपरान्त ज्ञानार्जन हेतु गुरु या आचार्य के पास ले जाया जाता है। अतः ज्ञान के द्वारा मानव का दूसरा जन्म होता है। इस अर्थ की दृष्टि से वर्तमान में सर्वशिक्षित जन द्विज ही हैं।

अनुवाद : जो बड़े कार्य में हर्षित नहीं होता एवं संकट में शोक नहीं करता है, वह निश्चय ही प्रज्ञावान है, वह दमनशील संयमी द्विज कहा जाता है।

GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 4 दशकं धर्मलक्षणम्

4. अस्तेयम् :

अन्वय: – मनसा अन्यदीये तृणे, रत्ने, काञ्चने, वा मौक्तिके अपि या विनिवृत्ति: तद् बुधाः अस्तेयम् विदुः।।

शब्दार्थ : मनसा = मन से। अन्यदीये = किसी अन्य व्यक्ति के। रत्न = रत्न में। काञ्चने = सोने में। वा = अथवा। मौक्तिके = मोती में। विनिवृत्तिः = अनासक्ति, वैराग्य का भाव। बुधाः = विद्वान जन, प्रज्ञावान् जन। अस्तेयम् = चोरी न करना। विदुः = जानते हैं।

अनुवादः – मन से भी किसी अन्य की वस्तु के प्रति तिनके में, रत्न में, सोने में अथवा मोती में (अन्य की अथाह सम्पत्ति) आसक्ति न हो (मोह या आकर्षण न हो) उसे विद्वज्जन अस्तेय कहते हैं। (अर्थात मन से भी किसी अन्य की वस्तु लेने की इच्छा न होना ही अस्तेय है।)

5. शौचम्:

अन्वय: – बाह्यम् तथा च आभ्यन्तरम् द्विविधं शौचं प्रोक्तम्। मृत् जलाभ्यां बाह्यम् (शौचं) स्मृतम् तथा भाव-शुद्धिः अन्तरम् (शौचम्, स्मृतम्)।

शब्दार्थ : बाह्यम् = बाहरी, बाहर का। आभ्यन्तरम् = आन्तरिक। मृत् जलाभ्याम् = मिट्टी एवं जल से, भावशुद्धिः = विचारों की शुद्धि, मन की पवित्रता।

अनुवादः – पवित्रता दो प्रकार की गई है – बाह्य एवं आन्तरिक। बाह्य शौच मिट्टी एवं जल के द्वारा होता है तथा आन्तरिक शौच मनोभाव की शुद्धि से होता है।

6. इन्द्रियनिग्रहः 

अन्वयः – य: नरः श्रुत्वा, स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा, घ्रात्वा च न हृष्यति वा न ग्लायति स: जितेन्द्रियः विज्ञेयः।

शब्दार्थ : श्रुत्वा = सुनकर। स्पृष्ट्वा = स्पर्श करके। दृष्ट्वा = देखकर। भुक्त्वा = खा कर। घ्रात्वा = सूंघकर। हृष्यति = प्रसन्न होता है। ग्लायति = ग्लानि होती है, ग्लानि का अनुभव करता है। विज्ञेयः = जान लिया जाना चाहिए।

अनुवादः – जो व्यक्ति सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर एवं सूंघकर न तो प्रसन्न होता है और न ही दुःखी होता है। उसे ही जितेन्द्रिय जानना चाहिए।

(7) धी:

अन्वय: – पार्थ या बुद्धिः प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च, कार्याकार्ये, भयाभयेः बन्धं मोक्षं च वेत्ति सा बुद्धिः सात्त्विकी (भवति)।

शब्दार्थ : पार्थ = (पृथा) कुंती का पुत्र – अर्जुन। प्रवृत्तिम् = प्रवृत्ति को, कार्य में रही व्यस्तता को। निवृत्तिम् = प्रवृत्ति से मुक्त होना, प्रवृत्ति त्याग देना। कार्याकार्ये = करने एवं न करने योग्य कार्य – कार्यं च अकार्यं च – इतरेतर द्वन्द्व समास। भयाभये = भय एवं अभय में। भयं च अभयं च – इतरेतर द्वन्द्व समास। वेत्ति = जानता है – विद् धातु – जानना – वर्तमान काल, अन्य पुरुष, बहुवचन।

अनुवादः – हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्ति एवं निवृत्ति को और भय एवं अभय को, बन्धन और मोक्ष को (यथार्थ रूप से) जानती
है उसे सात्त्विक (सत्त्व गुण – सम्पन्न) बुद्धि कहा जाता है।

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(8) विद्या:

अन्वयः – अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य च दर्शकम, शास्त्रं सर्वस्य लोचनं, शास्त्रं यस्य नास्ति स: अन्धः एव।

शब्दार्थ : अनेकसंशयोच्छेदि = अनेक संशयों का उच्छेदन करने (समाप्त करने) वाला – अनेके संशया: – इति- कर्मधारय समास, अनेकसंशयान् उच्छेत्तुं शीलमस्य इति – कृ.प्र. – यह पद ‘शास्त्र’ का विशेषण है। परोक्षार्थस्य = अप्रत्यक्ष या अप्रस्तुत अर्थ का। दर्शकम् = दर्शन करानेवाला, दिखानेवाला।

अनुवाद : अनेक संशयों का उच्छेदन एवं निहित परोक्ष अर्थ का दर्शन कराने वाले शास्त्र सभी के नेत्र हैं। जिसके पास यह शास्त्र (शास्त्ररुपी नेत्र) नहीं हैं वह नेत्रवान होते हुए भी अन्धा ही है।

9. सत्यम् :
अन्वय : यत् यथार्थकथनम्, सर्वलोकसुखप्रदम् च तत् सत्यम् इति विज्ञेयम्। असत्यं तत् विपर्ययः वर्तते।

शब्दार्थ : यथार्थकदनम् = जैसा है वैसा ही वास्तविक कथन – यथार्थस्य कथनम्, षष्ठी तत्पुरुष समास। सर्वलोकसुखप्रदम् = सभी को सुख प्रदान करनेवाले – सुखं प्रददाति इति सुखप्रदम् – उपपद तत्पुरुष समास। सर्व लोकेभ्यः सुखप्रदम् – चतुर्थी तत्पुरुष समास। तद्विपर्यय: = उसके विपरीत – तस्य विपर्ययः षष्ठी तत्पुरुष समास।

अनुवाद : जो वास्तविक कथन है तथा जो सर्वजनों को सुख प्रदान करता है उसे सत्य मान लेना चाहिए। तथा उसके विपरीत
(आचरण) असत्य होता है।

(10) अक्रोधः
अन्वयः – यत् तपते, यतते च दानं च प्रयच्छति (तत्) सर्वं हि क्रोध: हरति एव, तस्मात् क्रोधं-विवर्जयेत्।

शब्दार्थ : तपते = तपता है, तप करता है, परिश्रम करता है, तप धातु : वर्तमान काल, एकवचन। यतते = प्रयत्न करता है – यत् धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। प्रयच्छति = देता है – प्र + दा धातु वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। हरति = हर लेता है – हृ धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। विवर्जयेत् = त्याग करना चाहिए, छोड़ देना चाहिए।

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अनुवाद : (मानव) जो तप करता है, जो प्रयत्न करता है और जो दान करता है वह सब कुछ (तप, यत्न एवं दान-पुण्य का फल) क्रोध हर ही लेता है अत: क्रोध का परित्याग करना चाहिए।

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