Gujarat Board GSEB Hindi Textbook Std 9 Solutions Kshitij Chapter 10 वाख Textbook Exercise Important Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 9 Hindi Textbook Solutions Kshitij Chapter 10 वाख
Std 9 GSEB Hindi Solutions वाख Textbook Questions and Answers
प्रश्न-अभ्यास
प्रश्न 1.
‘रस्सी’ यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है ?
उत्तर :
‘रस्सी’ शब्द का प्रयोग मनुष्य की ‘साँस’ के लिए हुआ है । उसी रस्सी के सहारे वह शरीर-रूपी नाव को खींचकर भवसागर पार जाना चाहती है परन्तु वह रस्सी एकदम कमजोर है ।
प्रश्न 2.
कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जानेवाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं ?
उत्तर :
कवयित्री के प्रयास कच्चे सकोरे में पानी भरने जैसा है । जिस तरह कच्चे सकोरे से पानी टपकता रहता है और सफोरा भर नहीं पाता, उसी तरह वह मायामोह में पड़कर अत्यंत कमजोर है इसलिए मुक्ति के लिए किए जानेवाले सारे प्रयास व्यर्थ जा रहे हैं ।
प्रश्न 3.
कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
चाय में प्रभु से मिलने की इच्छा को घर जाने की चाह बताया गया है ।
प्रश्न 4.
भाव स्पष्ट कीजिए :
क. जेब टटोली कौड़ी न पाई ।
‘उत्तर :
क. भाव : कवयित्री ने जीवन का अधिकांश समय मायामोह, त्याग में ही गँवा दिया । अब परमात्मा के पास जाने का समय आया तो भवसागर पार उतरने के बाद प्रभु रूपी माँझी को उतराई देने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है अर्थात् सत्कर्मों की पूँजी से उसकी जेब खाली है ।
ख. खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी ।
उत्तर :
ख. भाव : कवयित्री कहती है कि भोगमय जीवन जीने से कुछ भी मिलनेवाला नहीं है । इसके विपरीत त्याग करने से भी कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि अहंकारी बनोगे । अतः भोग और त्याग के बीच का मध्यम मार्ग अपनाना ही बेहतर होगा ।
प्रश्न 5.
बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है ?
उत्तर :
बंद द्वार की साँकल खोलने का उपाय बताते हुए ललयद कहती हैं कि सांसारिक मायामोह और त्याग के बीच का मध्यम मार्ग अपना कर संयमपूर्ण जीवन जीना चाहिए । सबके प्रति समभाव रखना चाहिए । प्रभु की सच्ची भक्ति करनी चाहिए । इसके बाद बंद द्वारा आसानी से खुल जाएँगे और प्रभु दर्शन होगा ।
प्रश्न 6.
ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती । यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है ?
उत्तर :
उपर्युक्त भाव से संबंधित पंक्तियाँ –
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह ।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह !
जेब टटोली, कौड़ी न पाई ।
माझी को दूँ, क्या उतराई ।।
प्रश्न 7.
ज्ञानी से कवयित्री का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
ज्ञानी अर्थात् हिन्दू-मुसलमान के बीच अंतर न समझे । हर आत्मा में परमात्मा का वास है, ऐसा माने ।
रचना और अभिव्यक्ति
प्रश्न 8.
हमारे संतों, भक्तों और महापुरुषों ने बार-बार चेताया है कि मनुष्यों में परस्पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होता, लेकिन आज भी हमारे समाज में भेदभाव दिखाई देता है –
(क) आपकी दृष्टि में इस कारण देश और समाज को क्या हानि हो रही है ?
(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए अपने सुझाव दीजिए ।
उत्तर :
(क) समाज में भेदभाव के कारण देश और समाज को होनेवाली प्रमुख हानियाँ इस प्रकार हैं –
- आपसी भेदभाव के कारण सामाजिक सौहार्द कम हुआ है।
- भारतीय समाज वर्गों (जातियों) में बँट गया है । इन वर्गों के बीच संदेह और अविश्वास हमेशा बना रहता है ।
- भेदभाव के कारण उच्चवर्ग निम्नवर्ग को हेय दृष्टि से देखता है ।
- उत्सव और त्यौहार के अवसरों पर यह अविश्वास झगड़ों का रूप ले लेता है ।
- एक वर्ग से दूसरे वर्ग के बीच मतभेद पैदा होने से सहिष्णुता कम होती जा रही है, आक्रोश बढ़ता जा रहा है ।
GSEB Solutions Class 9 Hindi वाख Important Questions and Answers
अतिरिक्त प्रश्न
प्रश्न 1.
कच्चे धागे की रस्सी से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर :
कच्चे धागे की रस्सी का प्रयोग मनुष्य की साँसों के लिए किया गया है । कवयित्री कहती हैं कि यह साँसों की रस्सी बड़ी कमजोर है । मैं ईश्वर को पुकार रही हूँ, उनके बिना सहारे भवसागर पार नहीं कर पाऊँगी । यह रस्सी कब टूट जाएगी, कहा नहीं जा सकता है।
प्रश्न 2.
‘सम खा’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
‘सग खा’ अर्थात् मोहमाया और त्याग के बीच की स्थति । दोनों के बीच का मध्यम मार्ग ।
प्रश्न 3.
‘थल-थल में बसता है शिव ही’ – यहाँ शिव का अर्थ क्या है ?
उत्तर :
‘थल-थल में बसता है शिव ही’ यहाँ शिव का अर्थ ईश्वर है ।
प्रश्न 4.
भक्त कब अहंकारी बन जाता है ?
उत्तर :
जब भक्त अधिक योग-साधना, त्याग-तपस्या करने लगता है तब अहंकारी बन जाता है।
प्रश्न 5.
‘घर जाने की चाह है घेरे’ पंक्ति में कवयित्री कहाँ जाने की बात कर रही है और क्यों ?
उत्तर :
कवयित्री यह नश्वर संसार छोड़कर प्रभु के पास जाना चाहती है, क्योंकि प्रभु के पास पहुँचकर यह सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा लेगी ।
भावार्थ और अर्थबोधन संबंधी प्रश्न
1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव ।
जाने कब सुन मेरी पुकारे, करें देव भवसागर पार ।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे ।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे ।।
भावार्थ : कवयित्री कहती हैं कि मैं शरीररूपी नाव को साँसों की कच्चे धागे से बनी रस्सी के सहारे खींच रही हूँ । न मालूम कब ईश्वर मेरी पुकार सुनेंगे और मुझे संसाररूपी सागर के पार उतारेंगे । यह शरीर कच्ची मिट्टी से बने पान जैसा है, जिसमें से पानी टपक-टपककर कम होता जा रहा है अर्थात् समय व्यतीत हो रहा है, प्रभु को पाने के मेरे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं । मेरी आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए व्याकुल हो रही है । बार-बार की असफलता के कारण मेरा मन तड़प रहा है ।
प्रश्न 1.
कवयित्री ने कच्चे धागे की रस्सी और नाव का प्रयोग किसके लिए किया है ?
उत्तर :
कवयित्री ने कच्चे धागे की रस्सी का प्रयोग साँसों के लिए और नाव शब्द का प्रयोग शरीर के लिए किया है ।
प्रश्न 2.
कवयित्री को अपने प्रयास क्यों व्यर्थ प्रतीत हो रहे हैं ?
उत्तर :
कवयित्री को अपने प्रयास व्यर्थ प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि जिस तरह कच्ची मिट्टी से बने पात्र में से एक-एक बूंद पानी खत्म होता रहता है उसी तरह छोटे-से जीवन में से एक-एक दिन बीतता जा रहा है और यह प्रभु से नहीं मिल पा रही है ।।
प्रश्न 3.
कवयित्री भवसागर पार करने के लिए क्या आवश्यक मानती है ? और क्यों ?
उत्तर :
कवयित्री भवसागर पार करने के लिए सच्ची भक्ति को आवश्यक मानती है, क्योंकि सच्ची भक्ति से प्रभु हमारी पुकार सुनेंगे और भवसागर पार कराएँगे ।
प्रश्न 4.
कवयित्री ने कच्चा सकोरा किसे कहा है ?
उत्तर :
कवयित्री ने कच्या सकोरा नश्वर शरीर को कहा है ।
प्रश्न 5.
‘करें देव भवसागर पार’ में कौन-सा अलंकार है ?
उत्तर :
‘करें देव भवसागर पार’ में रूपक अलंकार है ।
प्रश्न 6.
कवयित्री के मन में एक क्यों उठती है ?
उत्तर :
कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है, परन्तु असफलता के कारण उसके मन में हक उठती है ।
2. खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी ।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बंद द्वार की ।
भावार्थ : कवयित्री कहती है कि हे मनुष्य ! तू बाह्याडंबरों से बाहर निकल । सांसारिक भोग-विलासिता में लिप्त रहने से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा । और न ही त्याग तपस्या का जीवन अपने से ही प्रभु की प्राप्ति होगी, क्योंकि इससे तो तू अहंकारी बन जाएगा । यदि परमात्मा को पाना है तो भोग-त्याग, सुख-दुःख में मध्य का मार्ग अपना कर समभावी बनना होगा तब प्रभु प्राप्ति का द्वार खुलेगा । प्रभु से मिलन होगा ।
प्रश्न 1.
कवयित्री ने क्या खाने की ओर संकेत किया है ?
उत्तर :
कवयित्री ने ‘खाने’ शब्द के माध्यम से सांसारिक उपभोग की वस्तुओं की ओर संकेत किया है।
प्रश्न 2.
‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ से तात्पर्य है कि त्याग, तपस्या का जीवन अपनाओगे तो मन में अहंकार पैदा होगा ।
प्रश्न 3.
बंद द्वार की साँकल कब खुलेगी ?
उत्तर :
मनुष्य जब भोग-त्याग, सुख-दुःख के बीच मध्यम मार्ग अपनाएगा तब प्रभु-प्राप्ति के द्वार लगी अज्ञानता की साँकल खुलेगी और
प्रभु से मिलन होगा ।
प्रश्न 4.
प्रस्तुत वान के माध्यम से क्या संदेश दिया गया है ?
उत्तर :
प्रस्तुत वाख के माध्यम से कवयित्री ने हृदय को उदार, अहंकारमुक्त और समानता के भाव से परिपूर्ण बनाने का संदेश दिया है । सांसारिक वस्तुओं के भोग-विलास से व्यक्ति विलासी और त्याग से अहंकारी बनता है । इसलिए हमें भोग करना चाहिए किन्तु न के बराबर और त्याग भी अवश्य करना चाहिए किन्तु सीमा से परे नहीं । अर्थात् भोग और त्याग के बीच समानता रखनी चाहिए । समानता से समभाव उत्पन्न होगा और हृदय में उदारता का जन्म होगा, जिससे हृदय की संकीर्णता नष्ट हो जाएगी । हृदय का द्वार खुलेगा और प्रभु से मिलन होगा ।
3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह ।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह !
जेब टटोली, कौड़ी न पाई ।
माझी को ढूं, क्या उतराई ?
भावार्थ : कवयित्री कहती हैं कि ईश्वर को पाने के लिए संसार में वह सीधे रास्ते से आई थी, लेकिन संसार में आकर मोहमाया आदि के चक्कर में पड़कर रास्ता भूल गई । वह जीवनभर योग-साधना, सुषुम्ना नाड़ी के सहारे कुंडलिनी जागरण में ही लगी रही । इसी तरह देखते-देखते समय बीत गया । अब मृत्यु की घड़ी निकट आ चुकी है । जब उन्होंने अपने जीवन का लेखाजोखा किया तो पाया कि उनके पास तो कुछ भी नहीं है । भवसागर पार उतारनेवाले प्रभु सपी माँझी उतराई के रूप में पुण्यकर्भ माँगेंगे तो वह क्या देगी ? अपनी स्थिति पर उन्हें बहुत पश्चाताप हो रहा है ।
प्रश्न 1.
‘गई न सीधी राह’ का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
‘गई न सीधी राह’ का तात्पर्य है कि उसने अच्छे कर्म करके प्रभु-प्राप्ति का प्रयास नहीं किया बल्कि वह मोहमाया, हठमार्ग आदि के चक्कर में पड़कर उलझा गई ।
प्रश्न 2.
‘जेब टटोली कौड़ी न पाई’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर :
‘जेब टटोली कौड़ी न पाई’ अर्थात् जीवन के अन्तिम समय में जब उसने पुण्यकर्मों का हिसाब लगाया तो उसके पास कुछ भी नहीं था । उसकी झोली पुण्यकर्मों से खाली थी ।
प्रश्न 3.
कवयित्री क्यों पश्चाताप कर रही है ?
उत्तर :
कवयित्री कहती हैं कि मैं संसार में प्रभु-प्राप्ति के लिए आई थी, परन्तु पूरे जीवनभर मोहमाया और कुंडलिनी जागरण में पड़ी रही । देखते-देखते जीवन बीत गया, उसकी झोली सत्कर्मों से खाली है, इसीलिए यह पश्चाताप कर रही है।
प्रश्न 4.
‘माझी’ किसे कहा गया है ?
उत्तर :
‘माझी’ ईश्वर को कहा गया है ।
प्रश्न 5.
माझी रूपी ईश्वर को उतराई के रूप में क्या देना होगा ?
उत्तर :
माझी रूपी ईश्वर को उतराई के रूप में सत्कर्म की पूँजी देनी होगी ।
प्रश्न 6.
‘सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह !’ रेखांकित शब्द में कौन-सा अलंकार है ?
उत्तर :
‘सुषुम-सेतु’ में रूपक और अनुप्रास अलंकार है ।
4. थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां ।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान ।
भावार्थ : कवयित्री ने ईश्वर को सर्वव्यापी बताते हुए समस्त जड़-चेतन में उसका वास बताया है । वे कहती हैं कि हे मनुष्य ! तू जाति-धर्म के आधार अपने आपको हिन्दू-मुसलमान में मत बाँट, एक-दूसरे को अपना ले । ईश्वर को जानने से पहले तू स्वयं को पहचान । आत्मज्ञान के बाद परमात्मा का ज्ञान स्वतः हो जाता है । आत्मा में ही परमात्मा का निवास है इसलिए आत्मज्ञान ही ईश्वर जानना है ।
प्रश्न 1.
प्रस्तुत वाख्न में प्रभु को किस नाम से पुकारा गया है ?
उत्तर :
प्रस्तुत वाख्न में प्रभु को शिव नाम से पुकारा गया है ।
प्रश्न 2.
ईश्वर कहाँ रहता है ?
उत्तर :
ईश्वर सर्वव्यापी है । उसका निवास हर जड़-चेतन में है ।
प्रश्न 3.
ईश्वर की पहचान कैसे हो सकती है ?
उत्तर :
ईश्वर की पहचान आत्मज्ञान से होती है, क्योंकि ईश्वर हमारी आत्मा में है ।
प्रश्न 4.
ईश्वर को मनुष्य क्यों नहीं खोज पाता ?
उत्तर :
ईश्वर सर्वव्यापी है परन्तु हिन्दू-मुसलमान अपने-अपने धर्मस्थलों पर ईश्वर को खोजते रहते हैं और अज्ञानतावश उसे नहीं खोज पाते हैं ।
प्रश्न 5.
साहिब किसे कहा गया है ?
उत्तर :
साहिब प्रभु को कहा गया है ।
प्रश्न 6.
ज्ञानी से कवयित्री का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर :
ज्ञानी से कवयित्री का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद न समझे वह आत्मा को ही परमात्मा माने, अपने आपको पहचाने ।
वाख Summary in Hindi
कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय कवयित्री ललयद का जन्म कश्मीर स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था । उनके जीवन के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है । उन्हें लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिका आदि नामों से भी जाना जाता है ।
ललयद की रचनाओं को याख्ख कहा जाता है । जिसका अर्थ वाणी, शब्द या कथन है । वाख्न चार पंक्तियों में बद्ध कश्मीरी शैली की गेय रचना है । कबीर के दोहे, मीरा के पद, तुलसी की चौपाई और रसखान के सवैये की तरह ही ललगद के वाख प्रसिद्ध हैं । उन्होंने अपनी रचनाओं में धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर भक्ति के रास्ते पर चलने पर जोर दिया है । उन्होंने धार्मिक आहबरा का विरोध किया और प्रेम को सबसे बड़ा मूल्य बताया । ललद्यद की रचनाएँ लोकजीवन के तत्त्वों से प्रेरित हैं । उनकी रचनाएँ संस्कृत और फारसी के स्थान पर जनता की सरल भाषा में हैं ।
कविता परिचय :
प्रस्तुत पाठ में कश्मीरी कवयित्री ललपद के चार वाखों का हिन्दी अनुवाद है । पहले चाख में ईश्वर प्राप्ति के लिए किए गए प्रयत्नों की व्यर्थता की बात की गई है । दूसरे वाख्न में बाहाडंबरों का विरोध करते हुए समानता की भावना पर बल दिया गया है ! तीसरे वाख्न में भवसागर पार करने के लिए सत्कर्म को महत्त्वपूर्ण बताया गया है । चौथे थान में भेदभाव का विरोध किया गया है, साथ ही साथ ईश्वर के सर्वव्यापी होने का एहसास कराया गया है । उन्होंने आत्मज्ञान को ही सच्चा ज्ञान माना है ।
शब्दार्थ-टिप्पण :
- बाख – वाणी, शब्द या कथन, यह चार पंक्तियों में बद्ध कश्मीरी शैली की गेय रचना है ।
- नाव – शरीररूपी मवे
- भवसागर – संसार रूपी सागर
- कच्चे सकोरे – कच्ची मिट्टी से बना पात्र, स्वाभाविक रूप से कमजोर
- रस्सी कच्चे धागे की – कमजोर और ‘नाशवान सहारा
- हूक – तड़प, पीड़ा
- चाह – इच्छा
- सम – इंद्रियों का समन
- समभावी – समानता की भावना
- खुलेगी सौंकल बंद द्वार की – चेतना व्यापक होगी, मन मुक्त होगा
- सुषुम सेतु – सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल, हठ योग में शरीर की तीन प्रधान नाड़ियां में से एक नाड़ी, जो नासिका के मध्य भाग में स्थित है
- टटोली – खोजी
- कौड़ी न पाई – कुछ प्राप्त न हुआ
- माझी – नाविक, ईश्वर
- उतराई – पार उतारने का किराया
- थल-थल – सर्वत्र, हर जगह
- शिव – ईश्वर
- साहिब – ईश्वर, स्वामी