Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 8 मोहमुद्गरः Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.
Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 8 मोहमुद्गरः
GSEB Solutions Class 11 Sanskrit मोहमुद्गरः Textbook Questions and Answers
मोहमुद्गरः Exercise
1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्यः समुचितम् उत्तरं चिनुत।
પ્રશ્ન 1.
दिनयामिन्यौ पुनः …………………………………….।
(क) आयाति
(ख) आयातः
(ग) आयान्ति
(घ) आयाताः
उत्तर :
(ख) आयातः
પ્રશ્ન 2.
मूढः किं निमित्तं बहुकृतवेशः भवति ?
(क) उदरनिमित्तम्
(ख) धननिमित्तम्
(ग) मोक्षनिमित्तम्
(घ) सुखनिमित्तम्
उत्तर :
(क) उदरनिमित्तम्
પ્રશ્ન 3.
मूढः किं न त्यजति ?
(क) पापाचरणम्
(ख) कालम्
(ग) आत्मानम्
(घ) मरणम्
उत्तर :
(क) पापाचरणम्
પ્રશ્ન 4.
चित्तं कुत्र नेयम्?
(क) धान्याभौगै
(ख) जर्जरदेह
(ग) सज्जनसङ्गे
(घ) त्याग
उत्तर :
(ग) सज्जन सङ्गे
પ્રશ્ન 5.
क: देवः श्रीपतिः अस्ति ?
(क) ब्रह्मा
(ख) इन्द्रः
(ग) शङ्करः
(घ) विष्णुः
उत्तर :
(घ) विष्णुः
2. संस्कृतभाषया उत्तरत।
પ્રશ્ન 1.
मनसि कीदृशीं बुद्धिं कुर्यात्?
उत्तर :
मनसि वितृष्णां सद्बुद्धिं कुर्यात्।
પ્રશ્ન 2.
मनुष्ये जर्जरदेहे जीवति का स्थिति: भवति?
उत्तर :
मनुष्ये जर्जरदेहे जीवति गेहे कोऽपि वार्ता न पृच्छति।
પ્રશ્ન 3.
क: क्रीडति किं च गच्छति?
उत्तर :
कालः क्रीडति च आयुः गच्छति।
પ્રશ્ન 4.
दीनजनाय किं देयम्?
उत्तर :
दीनजनाय वित्त देयम्।
પ્રશ્ન 5.
धान्याभोगं कृत्वा पश्चात् किं भवति?
उत्तर :
धान्याभोगं कृत्वा पश्चात् शरीरे रोगः भवति।
3. Write answer in your mother – tongue.
Question 1.
How should a man keep himself happy?
उत्तर :
मनुष्य को तृष्णा का परित्याग करके, सद्बुद्धिपूर्वक स्व पुरुषार्थ से उपार्जित वित्त से स्व-मन को प्रसन्न रखना चाहिए।
Question 2.
What does the poet say to point out that the never stops, it keeps on going?
उत्तर :
समय की निरन्तरता दर्शाने हेतु कवि श्री शंकराचार्य कहते है कि दिन-रात, सायं-प्रातः, शिशिर-वसन्त पुनः पुनः आते रहते हैं।
काल-चक्र का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो काल (समय इस प्रकार) खेल रहा है तथा आयु नष्ट होती जाती है।
Question 3.
About whom does Yam not talk say discuss?
उत्तर :
जिसने थोड़ी-सी ही भगवद् गीता पढ़ी हो, गंगाजल के बिन्दु की एक कणिका – मात्र का ही पान किया हो तथा जिसने एकबार ही भगवान विष्णु का अर्चन किया हो यमराज उसकी चर्चा नहीं करते हैं।
Question 4.
Shedding of which vices a person should think of soul-oneself?
उत्तर :
मानव को काम, क्रोध, लोभ एवं मोह का परित्याग कर आत्म-चिंतन करना चाहिए।
Question 5.
What happens to a person who does not have self-realisation?
उत्तर :
आत्मज्ञान-रहित मानव नरकगामी होकर कष्ट प्राप्त करता है।
Question 6.
What does a person do to satisfy his hunger?
उत्तर :
उदर पूर्त्यर्थ मानव जटाएँ धारण करता है, सिर का मुंडन करवाता है, केशलोचन करवाता है तथा भगवे वस्त्रों से विविध वेश धारण करता है।
4. Memorise the following Shlokas :
1. दिनमपि रजनी …………………………………………. मुञ्चत्याशावायुः ॥३॥
2. भगवद्गीता …………………………………………. कुरुते चर्चाम् ॥५॥
3. गेयं गीतानामसहस्रं …………………………………………. वित्तम् ॥७॥
उत्तर :
1. दिनमपि रजनी सायं प्रातः
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः
तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।
2. भगवद्गीता किञ्चिदधीता
गङ्गाजललवकणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा
तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम्।।
3. गेयं गीतानामसहस्रम्
ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम्
देयं दीनजनाय च वित्तम्।।
5. Explain the following lines in your mother-toungue :
1. कालः क्रीडति गच्छति आयुः।
सन्दर्भ : यह पंक्ति पाठ्यपुस्तक के मोहमुद्गर नामक पाठ से ली गई है। शंकराचार्य द्वारा रचित मोह-मुद्गर नामक स्तोत्र से आठ पद्यों का चयन कर यहाँ उद्धृत किया गया है। शीर्षक से ही इसका निहित उद्देश्य भी स्पष्ट है कि ये श्लोक मोह को चूर्णमय करने हेतु यहाँ मुद्गर के रूप में एक सबल साधन है। इस पंक्ति में जीवन की क्षणभंगुरता का वर्णन किया है।
अनुवाद : समय खेलता है, आयु नष्ट होती है।
व्याख्या : मोह-मुद्गर में वर्णित इस पंक्ति के माध्यम से शंकराचार्य कहते हैं दिवस-रात्रि, सायंकाल – प्रातःकाल एवं शिशिर ऋतु – वसन्त ऋतु के रूप में काल क्रीडा करता है तथा काल के रस खेल में व्यक्ति की आयु नष्ट होती जाती है। सायं-प्रातः प्रतिदिन होते हैं। रात-दिन पुनः-पुनः होते हैं।
षड्ऋतुओं का आगमन पुनः पुनः नियमित होता है। इस प्रकार रात-दिन, सायं-प्रातः एवं शिशिर-वसन्त के रूप में काल-चक्र की क्रीडा अनवरत निर्बाध रूप से चलती है किन्तु इस काल-क्रीडा के परिणाम स्वरूप व्यक्ति की आयु क्षीण होती रहती है।
तथापि व्यक्ति आशाओं रूपी वायु का अर्थात् तृष्णाओं का परित्याग नहीं कर पाता है। तृष्णाओं के पीछे अन्ध बनकर धावनशील मानव जीवन की क्षण-भंगुरता को देखे बिना अवश्यम्भावी मृत्यु को मंगलमय बनाने का कोई उपाय नहीं कर पाता है।
इस पंक्ति के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि क्षण-क्षण आयु व्यतीत हो रही है तथा मृत्यु की ओर अग्रसर हो रही है।
अतः व्यक्ति को जाग्रत रहते हुए मोक्ष-प्राप्ति का उपाय कर लेना चाहिए।
2. वार्ता कोऽपि न पृच्छति।
सन्दर्भ : पूर्ववत् – इस पंक्ति के माध्यम से शंकराचार्य ने मानव को जीवन की वास्तविकता एवं संसार के व्यवहार का दर्पण दिखाते हुए परं सत्य का चिन्तन करने हेतु दिशा-निर्देश किया है।
अनुवाद : घर पर कोई कुशल-वार्ता नहीं पूछता है। प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से शंकराचार्य समझाते हैं कि व्यक्ति को अपने जीवन-काल में हरि-स्मरण करते हुए स्वजीवन का कल्याण करना चाहिए।
समाज में, विश्व में, परिवार में सर्वत्र हम जिस प्रेम-पाश या मोह-बन्धन में आसक्त होते है वह मिथ्या है। संसार के सभी सम्बन्ध स्वार्थ से सम्बद्ध होते हैं। जब तक स्वार्थ पूर्ति होती है तब तक व्यक्ति अत्यन्त प्रिय प्रतीत होते हैं।
जब तक व्यक्ति वित्तोपार्जन करने में आसक्त है तथा समर्थ है तब समस्त परिवार भी अनुरक्त होता है। परिवार में सर्वजन प्रेम करते है। किन्तु जब व्यक्ति की धनार्जन-क्षमता क्षीण हो जाती है तथा वह जरा रोग से ग्रस्त हो जाता है तब उस जर्जरावस्था में घर पर भी कोई हालचाल या कुशल क्षेम नहीं पूछता है। समस्त प्रियजन घर में होते हुए कोई भी स्वास्थ्य के समाचार भी नहीं पूछता है।
यहाँ शंकराचार्य जी मूढ जीव को सावधान करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को देह में शक्ति एवं सामर्थ्य रहते हुए अपना परं लक्ष्य कैवल्य प्राप्ति हेतु सम्पूर्ण प्रयत्न कर लेना चाहिए।
3. तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्।
सन्दर्भ : प्रश्न 1 के अनुसार इस पंक्ति के माध्यम से मोहान्ध व्यक्ति का वास्तविक निरूपण किया गया है।
अनुवाद : फिर भी (व्यक्ति) पाप-पूर्ण आचरण नहीं त्यागता है।
व्याख्या : इस पंक्ति के माध्यम से मोहान्ध व्यक्ति की अल्पज्ञता एवं मूढता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। कहा गया है “मोहान्धो नैव पश्यति।” अर्थात् – मोह में अन्ध व्यक्ति विवेक-हीन हो जाता है। वह स्व हिताहित का निर्णय नहीं करता है।
सुखपूर्वक विविध व्यञ्जनों का रसास्वादन करते हुए तथा धान्योपभोग करते हुए रोग-ग्रस्त हो जाता है। यद्यपि यह सर्वजन-विदित है कि इस मृत्युलोक में मृत्यु अवश्यम्भावी है, मृत्यु की शरण जीवन का परं सत्य है यह जानते हुए भी व्यक्ति पापाचरण में लीन रहता है। यह आश्चर्य है।
क्षणिक ऐहिक या इन्द्रिय सुखों की पूर्ति को परं लक्ष्य माननेवाला मानव तथा काल-नर्तन एवं प्रति पल मरणोन्मुख जीवन की वास्तविकता को भी जो संसारी जन नहीं देख पाते हैं। शंकराचार्य उन सभी के लिए मूढ शब्द का प्रयोग करते है।
इस पंक्ति से यह बोध प्राप्त होता है कि व्यक्ति का स्वजीवन पल-पल मृत्यु की ओर उन्मुख जानकर असत्याचरण, पापाचरण एवं भ्रष्टाचरण आदि कुत्सित कर्मों का परित्याग कर श्रीहरि का स्मरण करते हुए जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
6. Write analytical note on:
(1) मोहमुद्गरः
मोह को भंग करने हेतु मुद्गर रूपी साधन के रूप में शङ्कराचार्य द्वारा विरचित स्तोत्र है मोह-मुद्गर। मुद्गर एक प्रकार का शंकु आकार का व्यायाम करने का साधन है। पहलवानों के द्वारा कंधे एवं हाथ का व्यायाम करने हेतु मुद्गर नामक काष्ठ-निर्मित साधन का प्रयोग किया जाता है।
मुदगर अत्यंत भारी होता है। मुदगर के प्रहार से कठोर से कठोर वस्तुएँ भी चूर्ण-चूर्ण हो जाती है। मोह को चूर्ण करने हेतु नष्ट करने हेतु मुद्गर रूपी साधन के रूप में समर्थ होने के कारण इस स्तोत्र को मोहमुद्गर नामक शीर्षक प्रदान किया गया है।
किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति अत्यधिक ममत्व या आसक्ति को ही मोह कहा जाता है। यह मोह ही मानव के विषाद एवं समस्याओं का कारण बनता है। अतः इस मोह को भंग करने हेतु उपदेश दिया जाता है। यदि किसी मानव के मन में यह प्रश्न हो कि मोह का भंग किस प्रकार किया जा सकता है?
किस-प्रकार मानव मोह को समाप्त कर इससे मुक्त हो सकता है तब इस प्रश्न के समाधान के रूप में मानव को वैराग्य एवं सत्य का साक्षात्कार करना आवश्यक है। जब व्यक्ति के हृदय में वैराग्य, विश्व की नश्वरता एवं सत्य का चिन्तन दृढ़ होगा तब विश्व के समस्त पदार्थों एवं व्यक्तियों के प्रति मोह से समाप्त हो जाएगा।
इस प्रकार शंकराचार्य द्वारा रचित इस स्तोत्र में जीवन की क्षणभंगुरता, विश्व की वास्तविकता, सत्य का दर्शन तथा वैराग्य-विषय का वर्णन किया गया है, जो मोह को नष्ट करने में समर्थ है।
(2) भगवद्गीता
कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों एवं पांडवों की सेना युद्धार्थ सज्ज हो चुकी है। युद्ध आरम्भ होने की ही स्थिति में है। युद्धार्थ आतुर अर्जुन, श्रीकृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य स्थापित करने हेतु कहते हैं। अपने प्रतिपक्ष में कौरवों के साथ सगे-सम्बन्धियों व गुरुजनों को देखकर अर्जुन मोहान्ध होकर युद्ध न करने हेतु कहते हैं। वह धनुष-बाण को त्याग कर युद्ध से विमुख हो जाता है।
उस विकट परिस्थिति में अर्जुन के मोह-निवारणार्थ श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के मध्य प्रश्नोत्तर के रूप में जो संवाद हुआ वह ही श्रीमद् भगवद्गीता के रूप में आज हमारे पास सुरक्षित है।। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का अंश है। महाभारत के भीष्म-पर्व में यह संवाद वर्णित है।
श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन के मन में चल रहे संकल्प-विकल्प, शंका व जिज्ञासा के समाधान करने हेतु भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश संग्रहित है। श्रीमद्भगवद्गीता में 18 अध्याय एवं 700 श्लोक का संग्रह है।
7. Write critical note on:
પ્રશ્ન 1.
Social condition of Man
उत्तर :
मानव की सांसारिक स्थिति :
मानव की सांसारिक स्थिति को देखते हुए शंकराचार्य उसे मूढ़ कहते हैं। मानव इस विषय को भली भाँति जानता है कि वह इस मृत्यु-लोक में अजर-अमर नहीं है। मृत्यु अवश्यम्भावी है। विविध व्याधियों से ग्रस्त वृद्धावस्था अत्यन्त दुःखद होती है यह सत्य जानते हुए भी मानव काम-क्रोध-लोभ-मोह में इतना आसक्त हो जाता है मानो अन्धा हो चुका हो।
वह स्व-हिताहित, उचितानुचित आदि नहीं देख पाता है। जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित होते हुए भी भ्रष्टाचरण, दुराचरण, अत्याचार, पापाचार – कर्मों में लिप्त रहता है। अत: शंकराचार्य उस जीव को जाग्रत करते हुए कहते हैं –
‘पश्चात् जीवति जर्जर देहे
वार्ता कोऽपि न पृच्छति गेहे।’
जब तक धनार्जन क्षमता है तब तक ही मानव का परिवार उसमें अनुरक्त रहता है। उस व्यक्ति से प्रेम करता है। किन्तु जरा व्याधिग्रस्त देह हो जाने पर घर पर ही कोई स्वास्थ्य-समाचार या कुशल-क्षेम नहीं पूछता है। निरन्तर काल-चक्र की क्रीडाओं को देखते हुए भी आशाओं रूपी प्राण-वायु का परित्याग नहीं करता है।
वैचित्र्य यह है कि जैसे जैसे देह वृद्ध होता है तृष्णा युवान हो जाती है। कहा गया है – ‘तृष्णैका तरुणायते।’ अर्थात् एकमात्र तृष्णा ही युवती हो जाती है। यह आशाओं रूपी रज्जु से बँधा मानव चतुर्दिक धावन-शील रहता है।
उदर-पूर्ति हेतु कभी जटाधारी, तो कभी सिर मुंडवा कर, तो कभी केश-लोचन करवा कर, तो कभी भगवे वस्त्र से विविध-वेश धारण करते हुए विश्व में विचरण करता रहता है। आत्म-ज्ञान से हीन होते हुए यह मानव नरकगामी होकर अनेक कष्ट भोगता है।
आद्य शंकराचार्य काम-क्रोधादि के जाल में फँसे हुए मानव मात्र के कल्याणार्थ मोह-मुद्गर स्तोत्र के द्वारा उसे सत्य का दर्शन कराते है। इस सत्य को जानकर वह मोक्ष-गामी होकर आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
પ્રશ્ન 2.
Deeds of Man
उत्तर :
मानव के कर्तव्य :
विश्व की मिथ्या आसक्ति में मोह-ग्रस्त मानव का परं कर्तव्य है कि दुर्लभ मानव-देह प्राप्त कर उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर आत्मकल्याण करने का प्रयत्न करना चाहिए। धनागम की तृष्णा का परित्याग कर सद्बुद्धि से मन को तृष्णाओं से मुक्त : करना चाहिए।
स्व-कर्म के परिणाम-स्वरूप जो धन प्राप्त हो उससे स्व-मन को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी अन्य व्यक्ति के कर्म के फलानुसार प्राप्त द्रव्य से दैहिक – सुख-प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता का एवं विष्णुसहस्र नाम का गान करना चाहिए, अध्ययन करना चाहिए।
गंगाजल का पान, भगवान विष्णु का अर्चन, उनके रूप का ध्यान व्यक्ति को निरन्तर करते रहना चाहिए।
मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोहादि का परित्याग कर स्वयं को (मैं कौन हूँ यह) जानने का प्रयत्न करना चाहिए, चित्त को नित्य सत्संग में ले जाना चाहिए तथा दीनजनों की सेवार्थ धन-प्रदान करना चाहिए।
मानव का यह कर्तव्य है कि पापाचरण, भ्रष्टाचरण को त्याग कर आत्मचिन्तन करते हुए स्व-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।
પ્રશ્ન 3.
Helplessness of Man
उत्तर :
मानव की लाचारी :
भूलोक पर सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी मानव है। भारतीय संस्कृति के अनुसार मानव को जन्म में जीवन के उद्देश्य के रूप में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार-पुरुषार्थों का वर्णन है। व्यक्ति को अपने जीवन-काल में पुन:-पुनः जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।
लेकिन संसार में जन्म लेकर मानव काम-क्रोध, लोभ, मोह आदि में इस प्रकार फँस जाता है कि आत्मकल्याण के प्रयत्न करना सम्पूर्णतया विस्मृत कर देता है।
मानव की लाचारी यही है मृत्यु को समीपस्थ जानकर भी पापाचरण में व्यस्त रहता है। अज्ञानवश उन वस्तुओं की प्राप्ति हेतु दौड़ता है जो उसके लिए अपेक्षित ही नहीं है। वस्तु की योग्यता-अयोग्यता का निर्णय किए बिना उसके प्रति आसक्ति वश दौड़ता रहता है।
कई बार वह मात्र अन्य लोगों को किसी वस्तु के पीछे दौड़ता हुआ देखकर स्वयं भी पागल की भाँति दौड़ना आरंभ कर उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करता है।
इस प्रकार ऊर्ध्वगति की अपेक्षा वह अधोगति प्राप्त करता है।।
अपनी अनन्त-अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु मानव निरन्तर दौड़ता है, देखते ही देखते ऋतुओं के आगमन के रूप में सायं – प्रातः के रूप में काल के शाश्वत – नृत्य के साथ-साथ वह काल के गाल तक पहुँच जाता है। तथापि श्रीमद् भगवद् गीता का आश्रय नहीं ले पाता है।
आत्मज्ञान – प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करने के कारण मोहान्ध, कामान्ध, क्रोधान्ध मानव जीवन को व्यर्थ व्यतीत कर देता है। इस प्रकार 84 लाख योनियों के चक्र में पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र से मानव सामर्थ्यवान होते हुए भी स्वयं मुक्त नहीं कर पाता है।
Sanskrit Digest Std 11 GSEB मोहमुद्गरः Additional Questions and Answers
मोहमुद्गरः स्वाध्याय
1. अधोलिखितेभ्य: विकल्पेभ्यः समुचितम् उत्तरं चिनुत।
પ્રશ્ન 1.
मूढ जहीहि ………………………………………….
(क) धनागम – तृष्णाम्
(ख) सद्बुद्धिम्
(ग) वित्तम्
(घ) विष्णुम्
उत्तर :
(क) धनागम – तृष्णाम्
પ્રશ્ન 2.
कः क्रीडति?
(क) काल:
(ख) यमः
(ग) मूढः
(घ) पालक:
उत्तर :
(क) काल:
પ્રશ્ન 3.
नरकनिगूढाः के पच्यन्ते?
(क) सज्जना:
(ख) दीनजनाः
(ग) लुञ्चितकेशाः
(घ) आत्मज्ञानविहीनाः
उत्तर :
(घ) आत्मज्ञानविहीनाः
પ્રશ્ન 4.
लोके किं शरणम्?
(क) मरणम्
(ख) तरणम्
(ग) शयनम्
(घ) हरणम्
उत्तर :
(क) मरणम्
પ્રશ્ન 5.
पापाचरणं क: न मुञ्चति?
(क) विद्वान्
(ख) मूढः
(ग) श्रीपतिः
(घ) धार्मिकः
उत्तर :
(ख) मूढः
2. संस्कृतभाषया उत्तरत।
પ્રશ્ન 1.
लोके कस्य शरणम् अस्ति?
उत्तर :
लोके मरणं शरणम् अस्ति।
પ્રશ્ન 2.
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि मूढः किं न मुञ्चति?
उत्तर :
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि मूढः पापाचरणं न मुञ्चति।
પ્રશ્ન 8.
किं गेयम्?
उत्तर :
श्रीमद्भगवद्गीताम् च विष्णुसहस्र नाम च गेयम्।
પ્રશ્ન 9.
काम, क्रोध, लोभ, मोह च त्यक्त्वा का भावना करणीया?
उत्तर :
काम, क्रोध, लोभ, मोहं च त्यक्त्वा आत्मानं कः इति भावना करणीया।
પ્રશ્ન 10.
उदरनिमित्तं बहुकृतवेश: कः?
उत्तर :
मूढः उदरनिमित्तं बहुकृत वेशः।
3. मातृभाषा में उत्तर दीजिए।
પ્રશ્ન 1.
किसके रूप का ध्यान निरन्तर किया जाना चाहिए?
उत्तर :
भगवान विष्णु के रूप का ध्यान किया जाना चाहिए।
मोहमुद्गरः Summary in Hindi
मोहमुद्गरः (मोह का मुद्गर)
सन्दर्भ : स्तुति अर्थात् गुणों का वर्णन। गुणों को वर्णन करने का मुख्य साधन स्तोत्र है। ‘स्तूयते अनेन तत् स्तोत्रम्’ – यह है स्तोत्र शब्द की व्याख्या। किसी के गुणों का वर्णन करने हेतु जिन पद्यों का या पद्य-समूह का साधन के रूप में उपयोग किया जाता है संस्कृत साहित्य में उसे स्तोत्रकाव्य के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार संस्कृत-साहित्य में स्तोत्र-काष्यों का एक विशिष्ट-स्थान है।
स्तोत्र-काव्य की प्रसिद्धि का मूल कारण यह है कि स्तोत्र की रचना के द्वारा रचयिता काव्यानन्द के साथ साथ ब्रह्मानन्द की अनुभूति भी कर सकता है। तदुपरान्त श्रद्धावान पाठक वर्ग भी उसी भाँति काव्यानन्द एवं ब्रह्मानन्द दोनों की अनुभूति एक साथ करता है।
संस्कृत साहित्य में विपुल मात्रा में अनेक भक्तिपूर्ण स्तोत्रों की रचना की गई है। शिवमहिम्न – स्तोत्रम्, सूर्यशतकम्, कनकधारा स्तोत्रम् जैसे कई स्तोत्र श्रद्धापूर्ण मनोरंजक एवं प्रेरक कथाओं के साथ सम्बद्ध है। भक्त हृदय देवी-देवताओं की अलौकिक शक्ति से प्रभावित होकर उनके समक्ष नतमस्तक हो जाता है तथा उस शक्ति का वर्णन करनेवाली काव्यरचना करके देवी-देवताओं की महिमा गाता है।
सुख प्राप्त्यर्थं सतत पुरुषार्थ रत रहनेवाला मानव जब विपत्तियों से घिर जाता है, तब वह स्वरक्षार्थ उस सर्वशक्तिमान परमात्मा की प्रार्थना करता है। इस प्रकार ईश्वर के साथ भावनात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है। उसके आत्मबल में अभिवृद्धि होती है और वह संकटों से बच जाता है।
इन स्तोत्रों में शंकराचार्य द्वारा रचित स्तोत्र काव्य अत्यन्त प्रसिद्ध है। यद्यपि शंकराचार्य के नाम से उपलब्ध सभी स्तोत्र स्वयं शंकराचार्यजी के द्वारा रचित हों, यह मानने हेतु कोई ठोस कारण हमार पास नहीं है तथापि परंपरागत रूप से उन्हें शंकराचार्यरचित ही माना गया है।
‘शंकराचार्य द्वारा रचित स्तोत्रों में से एक ‘मोह-मुद्गर’ नामक स्तोत्र में कुल बारह पद्य है। यहाँ इस पाठ में उन बारह पद्यों से कुल आठ पद्यों का चयन कर यहाँ प्रस्तुत किया गया है। एक रूप से शंकराचार्यरचित चर्पट-पंजरिका स्तोत्र के अठारह पद्यों एवं द्वादश पंजरिका स्तोत्र के तेरह पद्यों की युति अर्थात् कुल इकत्तीस पद्यों को मोह-मुद्गर के रूप में पहचाना जाता है।
इस पाठ में आठ पद्यों में मानव की मानव को प्रिय सुखादि साधनों की सीमा का दिग्दर्शन किया गया है। यहाँ इस विषय पर विशेष रूप से ध्यानाकृष्ट किया गया है कि मानव-जीवन – क्षणभंगुर है, विश्व निरंतर परिवर्तनशील है, इस विश्व की वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए मानव को पुण्य-कर्म करके अपवर्ग प्राप्त करने हेतु प्रयत्न करना चाहिए।
अन्वय, शब्दार्थ एवं अनुवाद
1. अन्वय : मूढ ! धनागम तृष्णां जहीही, सद्बुद्धि कुरु, मनसि वितृष्णां (कुरु)। निजकर्मोपात्तं यत् वित्तं लभसे तेन चित्तं विनोदय।
शब्दार्थ : मोहमुद्गरः = मोहस्य मुद्गरः – षष्ठी तत्पुरुष समास – मोह को नष्ट करनेवाला मुद्गर, मुद्गर शंकु आकार का एक साधन है जो पहलवानों द्वारा व्यायाम करने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। मूढः = हे मूर्ख। धनागम तृष्णाम् = धन-प्राप्ति की तृष्णा को, धनस्य आगमः – षष्ठी तत्पुरुष, धनागमस्य तृष्णा, ताम् – षष्ठी तत्पुरुष। जहीही = त्याग दो, हा धातु – मध्यम पुरुष, एकवचन। मनसि = मन में। वितृष्णाम् = तृष्णा के अभाव को। निजकर्मोपात्तम् = स्वयं के कर्म से प्राप्त – निजं कर्म – कर्मधारय समास, तेन उपात्तम् – तृतीया तत्पुरुष समास। वित्तम् = धन को। विनोदय = प्रसन्न करो, वि उपसर्ग + नुद्द धातु – प्रेरणार्थक, आज्ञार्थ, अन्य पुरुष – एकवचन। लभसे = प्राप्त करते है।
अनुवाद : हे मूर्ख ! धनागम की तृष्णा को त्याग दे, सद्बुद्धि कर, मन में तृष्णा के अभाव को उत्पन्न करे, स्व कर्म से प्राप्त धन से चित्त का विनोद कर।
2. अन्वय : (नर:) यावत् वित्तोपार्जन-सक्तः तावत् निज परिवारो रक्त:। पश्चात् जर्जर देहे जीवति गेहे कोऽपि वार्ता न पृच्छति।
शब्दार्थ : वित्त – उपार्जन – सक्तः = वित्त के उपार्जन में आसक्त – वित्तस्य उपार्जनम्, वित्तोपार्जनम् – षष्ठी तत्पुरुष समास – वित्तोपार्जने सक्तः। रक्तः = अनुरक्त – रङ्ग धातु, क्त प्रत्यय, कर्मणि भूत-कृदन्त। जर्जर देहे = जीर्ण-शीर्ण, क्षीण देहवाला होने पर, जर्जरः चासौ देहः तस्मिन् – कर्मधारय समास।।
अनुवाद : जब तक व्यक्ति वित्तोपार्जन करने में आसक्त (समर्थ) रहता है, तब तक अपने परिवार में अनुरक्त रहता है – तत्पश्चात् देह जर्जर होने पर भी घर पर कोई (कुछ भी बात) कुशलक्षेम नहीं पूछता है।
3. अन्वय : दिनम्, रजनी, सायं प्रात:, शिशिर-वसन्तौ अपि पुन: आयात:। काल: क्रीडति, आयुः गच्छति तदपि (नर: मूढः वा) आशावायुः न मुञ्चति।
शब्दार्थ : आयातः = दोनों आते है। आशावायुः = आशारूपी वायु – आशा एव वायुः – कर्मधारय समास। मुञ्चति = त्यागता है। मुञ्च धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन।
अनुवाद : दिन-रात, सायं-प्रातः, शिशिर एवं वसन्त दोनों पुनः पुनः आते है। तथा काल (इस प्रकार) खेलता है, आयु व्यतीत होती है तब भी (मूढ मानव) आशावायु का त्याग नहीं करता है।
4. अन्वय : जटिल:, मुण्डी, लुञ्चितकेश: काषायाम्बर बहुकृत वेश: च मूढः च पश्यन् अपि न पश्यति उदरनिमित्तं हि बहुकृतवेश:।
शब्दार्थ : जटिल: = जटावाला। मुण्डी = सर मुंडाया हुआ व्यक्ति। लुञ्चितकेशः – जिसके केश का लोचन किया गया है अर्थात् जिसके केश को खींचकर निकाला गया हो वह – लुञ्चिता: केशा: यस्य सः – बहुव्रीहि समास। बहुकृतवेश: = अनेक प्रकार के वेश धारण करनेवाला – बहवः कृताः वेशा: येन – बहुव्रीहि समास। उदर-निमित्तम् = पेट के लिए। बहुकृतकेश: = बहवः कृताः केशा: येन सः – बहुव्रीहि समास – अनेक वेश धारण करनेवाला।
अनुवाद : जटाधारी, मुंडन किए हुए सर वाला, केश लोचन किए हुए सर वाला, भगवे (गेरुए) वस्त्रों से नाना-विध-वेष धारण करनेवाला मूढ व्यक्ति देखते हुए भी नहीं देखता है कि पेट के लिए ही (मानव) नाना-विध वेश धारण करता है।
5. अन्वय : किञ्चित् भगवद् गीता अधीता, गङ्गाजल-लव-कणिका-पीता। यस्य सकृद् अपि मुरारि समर्चा तस्य यम: किं चर्चा कुरुते।
शब्दार्थ : अधीता = पढ़ी है। गङ्गाजललवकणिका पीता = गंगा के जल की बूंद की कणिका को पी लिया हो।
अनुवाद : जिसने थोड़ी सी भगवद् गीता पढ़ी हो, गंगा के जल की बूंद की एक कणिका का ही पान किया हो, एकबार ही मुरारी की पूजा की हो, यमराज उसकी क्या चर्चा करेंगे?
6. अन्वय : काम, क्रोध, लोभ, मोहं त्यक्त्वा अहं कः (इति) भावय। ते आत्मज्ञानविहीना: मूढाः नरकनिगूढाः पच्यन्ते।
शब्दार्थ : भावयः = भावना कर – भू धातु + प्रेरणार्थक आज्ञार्थ, मध्यम-पुरुष – एकवचन। नरकनिगूढाः = नर्क में डूबे हुए, नर्क में निमग्न। नरकेनिगूढा: – इति – सप्तमी तत्पुरुष समास।।
अनुवाद : काम, क्रोध, लोभ एवं मोह को त्याग कर स्वयं को मैं कौन हूँ यह भावना करे (पहचाने) वे आत्मज्ञान से विहीन मूढजन नर्क में पड़े हुए कष्ट भोगते हैं।
7. अन्वय : गीतानाम सहस्रम् गेयम्, श्रीपतिरूपमजस्रम् ध्येयम्, चित्तम् सज्जनसङ्गमे नेयं च दीनजनाय वित्तं देयम्।
शब्दार्थ : गेयम् = गाया जाना चाहिए। श्रीपतिरूपमजस्रम् = श्री अर्थात् लक्ष्मी, श्रीपति अर्थात् भगवान विष्णु, भगवान विष्णु के रूप को, अजस्रम् अर्थात् – बारंबार, पुनः पुनः, असकृत् इस प्रकार इसका आशय है। भगवान विष्णु के रूप को पुनः पुनः। ध्येयम = ध्यान किया जाना चाहिए। देयम् = दिया जाना चाहिए।
अनुवाद : श्रीमद् भगवद् गीता एवं श्री विष्णु सहस्रनाम का गान किया जाना चाहिए, भगवान विष्णु के रूप का पुनः पुनः ध्यान किया जाना चाहिए, चित्त को सज्जनों के संग में ले जाया जाय एवं दीन-जनों को धन प्रदान किया जाना चाहिए।
8. अन्वय : धान्याभोग: सुखतः क्रियते, हन्त पश्चात् शरीरे रोग:। यद्यपि लोके मरणं शरमणम् तदपि पापाचरणम् न मुञ्चति।
शब्दार्थ : धान्याभोगः = धान्य का उपभोग, हन्त = यह पश्चात्ताप का उद्गार – शब्द है।, अरे रे, हे ईश्वर आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।
अनुवाद : (जीव) सुखपूर्वक धान्य का उपभोग करता है। किन्तु हे हन्त तत्पश्चात् देह में रोगों से ग्रस्त हो जाता है। यद्यपि विश्व में मृत्यु की शरण (अनिवार्य) है तथापि (यह मूढ) पाप-पूर्ण आचरणों का परित्याग नहीं करता है।