Gujarat Board GSEB Solutions Class 9 Hindi Rachana निबंध-लेखन (1st Language) Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 9 Hindi Rachana निबंध-लेखन (1st Language)
निबंध गद्य रचना का उत्कृष्ट रूप है। विषय का भलीभ्रांति प्रदान, लेखकीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति और भाषा का चुस्त, प्रांजल रूप – ये तीनों ही अच्छे निबंध की विशेषताएँ हैं।
हमारे अनुभव या ज्ञान का कोई भी क्षेत्र अथवा हमारी कल्पना निबंध का विषय हो सकती है : जैसे – विज्ञान, दीपावली, चाँदनी रात, प्रातःकाल, सत्संगति, मित्रता, भिखारी, हिमालय इत्यादि। रचना के रूप में निबंध की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :
- निबंध के वाक्य परस्पर संबद्ध होते हैं। विचारों में कार्य-कारण संबंध बना रहता है।
- भाषा विषय के अनुरूप होती है। गंभीर, चिंतनप्रधान, साहित्यिक विषयों के निबंधों में प्रायः तत्सम शब्दावली रहती है जब कि सहज-सामान्य विषयों के निबंधों में सरल, बोलचाल की भाषा होती है।
- निबंध को प्रभावशाली और रोचक बनाने के लिए यथास्थान उपयुक्त उद्धरणों, लोकोक्तियों, मुहावरों तथा सूक्तियों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से निबंध के निम्नलिखित प्रकार हैं –
- वर्णनात्मक (किसी त्योहार का वर्णन, मेले का वर्णन, क्रिकेट मैच का वर्णन आदि)
- विवरणात्मक (ताजमहल, मेरी पाठशाला आदि)
- भाव प्रधान (मेरी माँ, मेरा प्रिय मित्र आदि।)
- विचार प्रधान (स्वदेश प्रेम, अध्ययन, अनुशासन, समय-आयोजन)
- कल्पना प्रधान (यदि में पक्षी होता, यदि मैं प्रधानमंत्री होता…)
निबंध-लेखन की पूर्व तैयारी :
निबंध लिखने से पहले विषय के विभिन्न मुद्दों पर विचार करना अपेक्षित है। शिक्षक या सहपाठियों के साथ चर्चा करने से पहले निबंध की रूपरेखा बना लेनी चाहिए, ताकि कोई मुद्दा या बिन्दु छूट न जाए।
रूपरेखा तैयार कर लेने के बाद तत्संबंधी सामग्री का विभिन्न स्त्रोतों से संचय करना उपयोगी होता है। (विषयानुकूल उदाहरणों, उद्धरणों, सूक्तियों, तों, प्रमाणों का)
रूपरेखा के आधार पर निबंध लिखते समय छात्रों द्वारा प्रसंगानुसार निजी अनुभवों का उल्लेख किया जाना चाहिए।
भिबंध के क्लेवर को तीन अंगों में बाँटा जा सकता है – प्रस्तावना या भूमिका, मुख्य अंश और उपसंहार।
प्रस्तावना :
यह निबंध की आधारशिला है, इसलिए इसका संक्षिप्त तथा प्रभावी होना आवश्यक है। प्रस्तावना ऐसी होनी चाहिए कि उसे पढ़ने पर पाठक के मन आगे पढ़ने का कुतूहल उत्पन्न हो। निबंध का पहला अनुच्छेद ही उसकी प्रस्तावना होती है। इसमें निबंध के विषय के प्रमुख बिंदुओं को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
मुख्य अंश :
प्रस्तावना के बाद और उपसंहार के पहले तक का निबंध का कलेवर मुख्य अंश माना जाता है। विषयवस्तु को अलग-अलग अनुच्छेदों में बाँटकर अपनी बात कहनी चाहिए। ये अनुच्छेद परस्पर सम्बन्ध होने चाहिए। मुख्य अंश में चार-पाँच छोटे अनुच्छेद में मात्र एक ही भाव या विचार रहना चाहिए। यह विभाजन तर्कसंगत होना चाहिए।
उपसंहार :
यह निबंध का अंतिम भाग है। यह भी प्राय: एक अनुच्छेद का होता है। इसमें विषयवस्तु के विवेचन के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है। निष्कर्ष में लेखकीय विचार या प्रतिक्रिया हो सकती है। उपसंहार स्पष्ट, सुगठित और तर्कसंगत होना चाहिए जिससे पाठक पर स्थायी प्रभाव पड़ सके।
उदाहरण : अपनी पाठ्यपुस्तक का ‘तर्क और विश्वास’ शीर्षक पाठ देखिए।
नमूने के कुछ निबंध यहाँ दिये जा रहे हैं।
1. गुजरात का नवरात्रि महोत्सव – गरबा
भारत एक बिन सांप्रदायिक राष्ट्र है। यहाँ हर धर्म, संप्रदाय और जाति के लोग अपने-अपने तीज-त्यौहारों को बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। इसीलिए भारत को त्यौहारों का देश कहा जाता है। यहाँ हर वार एक त्यौहार है। हमारे देश में कई प्रकार के त्यौहार मनाए जाते हैं जैसे धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय आदि। गुजरात का गरबा महोत्सव एक धार्मिक त्यौहार है।
यह त्यौहार शरद ऋतु के मोहक वातावरण में आश्विन शुक्ल मास में धूमधाम एवं हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
नवरात्रि नौ रातों में मनाया जानेवाला त्यौहार है इसीलिए इसे नवरात्रि कहते हैं। नौ दिनों तक लोग रात को गरबा गाते हैं और इसके दसवें दिन विजया दशमी मनाते हैं। इस त्यौहार को इसलिए मनाते हैं, कि माता रानी अम्बा ने इस दिन अत्याचारी महिसासुर का वध किया था। नौ दिनों तक इनके बीच युद्ध चला और दसवें दिन अत्याचारी महिसासुर का संहार करके अत्याचार का अंत किया। इसीलिए हर वर्ष यह नवरात्रि महोत्सव मनाया जाता है।।
भारत के कई राज्य अपने-अपने लोकनृत्यों के लिए प्रसिद्ध हैं ‘जैसे पंजाब का भांगड़ा नृत्य, असम का ‘बिहु नृत्य, राजस्थान का घूमर, घेर इसी प्रकार गुजरात का लोकनृत्य गरबा न केवल गुजरात और भारत बल्कि समग्र विश्वभर में विख्यात है।
लोग अपने-अपने गली-मुहल्ले में एकत्रित होकर गोलाकार रूप में गरबा नृत्य करते हैं और अपनी-अपनी मस्ती में तनमय होकर झूमने लगते हैं। भक्ति और संगीत का एक अद्भुत समाँ बन जाता है। एक और गायक अपनी मस्ती में माताजी के भजन गाता है तो दूसरी ओर भक्तजन उसी ताल और लय में झूमने लगते हैं। बीच में माताजी की गरबी रखी जाती है और उसी के आस-पास गोलाकार रूप में भक्तिरस में डूबकर गाते और झूमते हैं। गरबा लोक नृत्य आरंभ होने से पहले और पूर्ण होने के बाद आरती की जाती है। यह क्रम नौ दिन तक चलता है। दसवें दिन दशहरा मनाया जाता है। गुजरात में इस दिन फाफड़ा और जलेबी खाते हैं। दशहरा और नवरात्रि दोनों असत्य पर सत्य की, अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक हैं।
आधुनिक समय में गरबा के मूल स्वरूप में परिवर्तन हुआ है। गरबा के गीत (गरबी) माताजी से जुड़े हुए नहीं रहे, बल्कि उनमें समसामयिक विषयों का भी समावेश हुआ है। समसामयिक घटनाएँ भी इन गीतों में बुन ली जाती हैं। नृत्य पर भी आधुनिकता का प्रभाव दिखलाई देता है। अब गरबा मुहल्ले और सोसायटियों से निकलकर बड़े-बड़े क्लबों तक पहुँच गया है। इनमें भक्ति का स्थान मनोरंजन, प्रदर्शन लेता जा रहा है, जो एक दुःखद स्थिति है।
गरबा महोत्सव की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस लोक उत्सव में सब लोग अमीर-गरीब, ऊँच-नीच तथा जाति-पाति का भेद-भाव भूलकर एकमात्र भक्ति और प्रेम रस में डूब जाते हैं। अर्थात् यह महोत्सव परस्पर प्रेम एकता और भाईचारे की भावना बढ़ानेवाला त्यौहार हैं। यह त्यौहार विजय का त्यौहार है। हम जीवन में हर क्षेत्र में विजयी बनें और धर्म, न्याय तथा मानवता की रक्षा करें ऐसा संदेश देता है। निःसंदेह गुजरात का गरबा महोत्सव सबसे अनूठा और अद्वितीय त्यौहार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं।
2. यदि मैं गुजरात का मुख्यमंत्री होता…
व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर नाना प्रकार के सपने देखता रहता है, जो उसकी मनोवृत्ति को भी व्यक्त करते हैं। व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा ही उन सपनों का मूल स्रोत है। मैं अपने जीवन में नेता बनने तथा मुख्यमंत्री पद पर पहुँचने का स्वप्न सँजोता रहता हूँ। मेरी एकमात्र महत्त्वाकांक्षा गुजरात राज्य का मुख्यमंत्री बनने की है। मुख्यमंत्री पद पर पहुँचकर मैं जनकल्याण के कार्य कर सकूँ तथा गुजरात को उन्नति के शिखर पर पहुँचाऊँ ऐसी इच्छा है।।
मुख्यमंत्री पद ग्रहण करने पर मेरी सबसे पहली प्राथमिकता राज्य में कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करना होगा, ताकि राज्य का प्रत्येक नागरिक निर्भय होकर अपना कार्य कर सके। स्त्रियों को किसी प्रकार का भय न अनुभव हो, वह स्वतंत्र रूप से विचरण कर सकें। व्यापार-उद्योग के संचालक तथा कर्मचारी अपना-अपना काम विधि-विधान के अनुरूप करते रहें। देर रात में भी यदि किसी को आना-जाना पड़े तो वह भयातुर न हो। चोरी, छीना-छपटी रोकने के लिए चुस्त व्यवस्था रखना भी इसी के अंतर्गत होगी।
राज्य का प्रत्येक नागरिक चाहे वह अमीर हो या गरीब, किसी भी धर्म या जाति का हो राज्य की ओर से सबके साथ एक जैसा व्यवहार होगा, किसी तरह का भेदभाव नहीं रहेगा। सभी अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सकें, ऐसा शासन प्रदान करना मेरा ध्येय होगा।
शासन-व्यवस्था के बाद दूसरा क्षेत्र शिक्षा का होगा। प्रत्येक विद्यार्थी को स्तरीय शिक्षा मिले, इसे देखने का काम राज्य सरकार का होगा। अभी तक हमारे यहाँ बालिकाओं के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है, उसे और आगे बढ़ाकर बालकों की शिक्षा भी निःशुल्क कर सकूँ, तो मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया, ऐसा समझूगा। रोजगार-परक शिक्षा को प्रोत्साहन दिया जाएगा ताकि विद्यार्थी केवल डिग्रीधारी युवक न बनकर कार्य के लिए कुशल (skilled) कारीगर के रूप में रोजगार के लिए उपलब्ध हो सकें। नये-नये इनोवेशन, उद्यम साहसिकता को प्रोत्साहित किया जाएगा ताकि पढ़-लिखकर युवक केवल नौकरी की तलाश में ही न भटकते रहें। इस तरह शिक्षा बेरोजगारी दूर करने का माध्यम बना सकूँगा।
कृषि तथा कृषि आधारित विभिन्न उद्योगों को प्रोत्साहन दिया जायेगा ताकि ग्रामीणों को उनके अपने निवास के पास रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सके। मुर्गीपालन, पशुपालन, मधुमक्खी पालन, बागबानी आदि के लिए आसान शर्तों पर ऋण उपलब्ध कराकर युवकों को स्वरोजगार मिले, ऐसे प्रयास किए जाएँगे। _ रोजगार प्राप्त होने से लोगों की वार्षिक आय में वृद्धि होगी, राज्य समृद्ध होगा। ‘प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी होनी चाहिए’ – चाणक्य के इस सूत्र वाक्य को सदैव ध्यान में रखकर कार्य करूँगा। नियम-कानून का निर्माण करते समय सीमांत व्यक्ति को ध्यान में रखा जाएगा। पेयजल की आपूर्ति सार्वत्रिक होगी, ताकि लोगों को पीने का साफ पानी मिले। वे निरोगी-स्वस्थ बने रहें।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु – मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्।।
3. राष्ट्रभाषा – हिन्दी
प्रत्येक राष्ट्र का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। प्रत्येक राष्ट्र में उसकी विशालता के अनुसार विभिन्न प्रान्त होते हैं और प्रायः प्रान्तीय भाषाएँ अलग-अलग होती है। पूरे राष्ट्र का शासन एक ही केन्द्र से होता है। राष्ट्र की एकता को मजबूत बनाने के लिए किसी एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है जिसके माध्यम से राष्ट्र के अधिकतम कार्य सम्पन्न होते हैं। जिसे राष्ट्र के अधिकतर लोग जानते हैं। ऐसी भाषा को राष्ट्र भाषा कहा जा सकता है। प्रान्तीय भाषा का क्षेत्र सीमित होता है, राष्ट्रभाषा का बड़ा व्यापक। प्रान्तीय भाषा आवश्यक है, प्रान्तीय कामकाज के लिए। प्रान्तीय भाषाओं से राष्ट्र का काम नहीं चल सकता। सम्पूर्ण राष्ट्र का कार्य एक ही भाषा के माध्यम से चल सके इसलिए राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है।
राष्ट्रभाषा के लिए आवश्यक गुण – सामान्यतया किसी भी देश की राष्ट्रभाषा में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी ही चाहिए –
- राष्ट्रभाषा राष्ट्र की अधिकांश जनता की भाषा होनी चाहिए।
- उसे लिखने-पढ़नेवाले और समझनेवाले प्राय: सभी प्रान्तों में होने चाहिए।
- वह हर प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की बातों को व्यक्त करने में समर्थ होनी चाहिए।
- राष्ट्रभाषा की लिपि सुन्दर और सरल होनी चाहिए।
- उसकी वर्णमाला हर प्रकार की ध्वनि को व्यक्त और स्पष्ट करने में समर्थ होनी चाहिए।
- यह राष्ट्रीय चेतना के अनुरूप होनी चाहिए।
- उस भाषा का साहित्य समृद्ध होना चाहिए।
उक्त सभी विशेषताएँ हिन्दी भाषा में मिलती हैं, जैसे :
- हिन्दी राष्ट्र की अधिकांश जनता की बोली जानेवाली भाषा है।
- हिन्दी को लिखने, पढ़ने और समझनेवाले हर प्रान्त में मिलते हैं।
- हिन्दी भाषा संस्कृत भाषा के अधिक समीप है और संस्कृत भाषा के शब्द प्राय: सभी भाषाओं में मिलते हैं।
- हिन्दी भाषा की लिपि सुन्दर, सरल है। हिन्दी विश्व की एकमात्र वैज्ञानिक वर्णमाला युक्त भाषा है, जो प्रत्येक ध्वनि को व्यक्त करने में समर्थ हैं।
- हिन्दी भाषा का साहित्य समृद्ध है।।
- हिन्दी भाषा स्वयं वैज्ञानिक होने के साथ-साथ इसमें वैज्ञानिक तत्त्वों को ग्रहण करने की क्षमता है। विज्ञान से प्रयुक्त शब्दावली का हिन्दी में रूपान्तर सरलता से हो सकता है।
- हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है, जिस में संस्कृत, पाली, प्राकृति आदि प्राचीन भाषाएँ लिखी गई हैं। इसी से मिलती जुलती लिपि में गुजराती, पाली, प्राकृति आदि प्राचीन भाषाएँ लिखी जाती है।
इसलिए यह प्राय: अधिकतर प्रान्तों में लिखने में सरल बन जाती है। उपर्युक्त सभी विशेषताओं को देखते हुए हिन्दी ही राष्ट्रभाषा के मापदण्डों पर सही उतरती है, इसीलिए हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिया गया है।
देश को स्वतंत्र हुए छः दशक से ज्यादा हो गए फिर भी कुछ प्रान्त हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं दे रहे हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे –
- कुछ स्वार्थी नेताओं की स्वार्थी भावनाएँ उन्हें राष्ट्र हित की नहीं अपने हित की चिन्ता सताती रहती है। वे अपनी भाषा का राग आलाप कर अपने प्रान्त पर छा जाना चाहते हैं।
- कुछ लोगों की भावनाएँ इतनी संकीर्ण होती है कि वे सोचते हैं यदि हिन्दी को हमने राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया तो हिन्दी भाषी हमारे ऊपर छा जाएँगे।
- कुछ लोग जिनके मस्तिष्क में अभी भी गुलामी की बू है, जिनके बच्चे विदेशों में अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं वे जन-सम्पर्क और राष्ट्र का अधिकांश कार्य अंग्रेजी में चाहते हैं जिससे आम जनता पर उनका वर्चस्व बना रहे।
कुछ लोग जो किसी भी कारण से राष्ट्र-भाषा हिन्दी को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं वे राष्ट्र का अहित कर रहे हैं। उन्हें राष्ट्र की एकता, समृद्धि, सांस्कृतिक विकास और राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में आत्मसात् कर लेना चाहिए। इसी में उनका हित है, राष्ट्र का हित है। हमें भारतेन्दु बाबू की इन पंक्तियों का ध्यान रखना चाहिए –
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिट तन हिय को शूल।।
4. मेरे जीवन का लक्ष्य
हमारे जीवन का कोई न कोई एक लक्ष्य अवश्य होना चाहिए। किन्तु यह समझ आते-आते हम 13-14 वर्ष की उम्र तक पहुँच जाते हैं। आठवीं कक्षा में पढ़ते समय यह तय कर लेना चाहिए कि आगे मुझे क्या करना है ? कैसे करना है ? यह हमारी क्षमता, परिस्थिति तथा योग्यता के अनुरूप हो, तभी हम उस लक्ष्य को पाने में सफल हो सकेंगे।
मनुष्य को अपनी आजीविका के लिए ऐसे क्षेत्र का चयन करना चाहिए जिसमें उसकी रूचि हो। परिवार, सगे-संबंधियों या मित्रों के कहने में आकर अपनी रूझान के विपरीत क्षेत्र में जानेवाले अच्छे-अच्छे विद्यार्थी भी बाद में फिसड्डी सिद्ध हो सकते हैं, इसकी संभावना अधिक ही रहती है। मेरी रूचि शिक्षा में विशेष रूप से अध्यापन में है। अत: मैं इसी क्षेत्र में जाना चाहूँगा।
मेरे इस चयन के पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला यह कि देश की भावी पीढ़ी को तैयार करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ और दूसरा हमारे शिक्षकों ने जो दिया है, उसे अगली पीढ़ी तक पहुँचाकर गुरुऋण से मुक्त होने का अवसर मिलेगा। एक उत्तम शिक्षक का सम्मान सभी विद्यार्थी तथा अभिभावक करते हैं, उन्हें समाज द्वारा पूरा मान-सम्मान मिलता है। यह ऐसा पेशा जिसमें आपके कार्य में कम से कम दखलंदाजी हो सकती है। आप बहुत कुछ स्वयं सीखते रहते हैं और विद्यार्थियों को नया देते रह सकते हैं।
इस क्षेत्र में जाने के लिए रुचि के साथ-साथ अभी से मैं संपूर्ण पाठ्यक्रम पूरी तरह समझता जा रहा हूँ। छोटी से छोटी बात, सूक्ष्म से सूक्ष्म मुद्दों पर भी ध्यान दे रहा हूँ। ज्ञान के अलावा शिक्षक के लिए जिन दो बातों की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, वे हैं – सादगी तथा उदारता। उस दिशा में अभी से अपने जीवन व्यवहार को ढालने का मेरा प्रयास है। यहाँ उदारता से तात्पर्य सभी प्रकार के लोगों के साथ एक समान पक्षपात रहित व्यवहार। शिक्षक के लिए सभी विद्यार्थी एक-से होने चाहिए। उनके निर्माण में उसे किसी तरह का हठाग्रह नहीं रखना चाहिए। विद्यार्थी की रुचि, योग्यता के अनुरूप उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। मुझे इस समय वे गुरुजन स्मरण आते हैं जिन्होंने मुझमें इन मूल्यों का बीजारोपण किया था। देश के लिए आदर्श नागरिकों के निर्माण में एक शिक्षक के रूप में मेरा भी योगदान रहे, ऐसी मेरी भावना है।
चाणक्य का प्रसिद्ध कथन है – ‘शिक्षक कभी साधारण नहीं होता।’ शिक्षक बनकर मैं भी पूरी कोशिश करूँगा कि वह असाधारणत्व मुझमें आ सके और अपने विद्यार्थियों को उसमें लाभान्वित कर सकूँ। गुरु – ईश्वर को लेकर रहीम का प्रसिद्ध दोहा तो सभी को पता ही होगा –
गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पाँय।
बलिदारी गुरु आपनो, जिन गोबिंद दियो बताय।।
गुरुकृपा से ही गोबिन्द की प्राप्ति होती है, अत: गुरु की महिमा किसी से कम नहीं।
5. मेरा प्रिय खेल : क्रिकेट
[प्रस्तावना – क्रिकेट का जन्म – खेलने की रीति – आधुनिक क्रिकेट – उपसंहार]
प्रस्तावना : जिस प्रकार शिक्षा मानव के मस्तिष्क को स्वस्थ बनाने के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार क्रीडा मानव शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। मानव जीवन में खेलकूद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। विश्व में अनेक प्रकार के खेल खेले जाते हैं। उन्हीं में से क्रिकेट भी एक विशेष खेल है। क्रिकेट एक अन्तर्राष्ट्रीय खेल है। यद्यपि यह विदेशी खेल है। फिर भी भारतीय खिलाड़ियों ने विश्व में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए हैं।
क्रिकेट का जन्म सन् 1478 के फ्रांसीसी खेलों में क्रिकेट की सर्वप्रथम चर्चा मिलती है। इस खेल का नियमानुसार प्रथम प्रदर्शन 1840 में फ्रांस के मिल फोर्ड नामक स्कूल में हुआ। आज यह अपनी लोकप्रियता के लिए सारे विश्व में प्रसिद्ध है। विदेशों में इसकी शिक्षा देने के लिए क्लबों की स्थापना की गई। इससे आर्थिक लाभ भी हुआ है। ऑस्ट्रेलिया, भारत, श्रीलंका, वेस्टइन्डीज, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैण्ड, पाकिस्तान की टीमे विश्व में अपना विशेष स्थान रखती हैं।
खेलने की रीति : यह एक विशाल मैदान में खेला जानेवाला खेल है। खिलाड़ियों की दो अलग-अलग पार्टियाँ होती हैं। तीनतीन डण्डे 22 गज के फासले पर गाड़ दिए जाते हैं। इन डण्डों को विकेट कहते हैं। विकेटों के समान्तर दो रेखाएँ चार फुट की दूरी पर खींची जाती है। खेल आरंभ होने के पूर्व निर्णायक (अम्पायर) व दोनों दलों के कप्तान को फिल्डींग या बल्लेबाजी करने को कहता है। खेल प्रारंभ होता है। एक टीम फिल्डींग करती है तथा दूसरी टीम बैटिंग। प्रत्येक टीम में 11 – 11 सदस्य होते हैं। यदि बल्लेबाज की गेंद फील्ड के बाहर टप्पा खाए तो छः रन माने जाते हैं। रन संख्या शॉट मारकर विकेटों के बीच दौड़कर भी बढ़ाई जाती है। एक पक्ष के दो खिलाड़ी बल्ला लेकर आगे जाते हैं। गेंद फेंकनेवाला गेंद फेंकता है दूसरे पक्ष का खिलाड़ी गेंद रोकता है। खेलतेखेलते जब दस खिलाड़ी आऊट हो जाते हैं, तो फिर दूसरा दल खेल प्रारंभ करता है, जिस पक्ष के रन ज्यादा होते हैं वह जीता हुआ माना जाता है।
आधुनिक क्रिकेट : आधुनिक क्रिकेट में टेस्ट क्रिकेट के साथ-साथ वन डे – इन्टरनेशनल तथा ट्वेन्टी-ट्वेन्टी क्रिकेट का भी आगमन हुआ है। भारतीय टीम ने सन् 1983 में पहला वर्ल्डकप अपने नाम किया था। तथा सन् 2007 में पहला ही ट्वेन्टीट्वेन्टी वर्ल्डकप की विजेता बनी। वन डे वर्ल्डकप कपिलदेव तथा ट्वेन्टी वर्ल्डकप वर्तमान केप्टन महेन्द्रसिंह धोनी ने दिलाया है। सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के शहनशाह हैं। तथा भारत के सबसे सफल कप्तान के रूप में कोलकाता के टाईगर सौरव गांगुली तथा विराट कोहली का आता है।
आज क्रिकेट केवल खेल मात्र नहीं रह गया हैं। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट संघ तथा विभिन्न देशों के क्रिकेट संघों ने विभिन्न प्रकार की नियमित प्रतिस्पर्धाओं के आयोजन द्वारा इसे मनोरंजन का साधन बना दिया है। सट्टेबाजी तथा मैच फिक्सिग जैसे दूषणों के कारण इस जेंटलमैन गेम की छबि को हानि पहुँचा है। आशा करें कि निकट भविष्य में खेल को इनसे मुक्ति मिलेगी और वह फिर से अपने स्वर्णिम दिवसों को वापस ला सकेगा।।
उपसंहार : आज क्रिकेट का खेल सम्पूर्ण विश्व में विख्यात एवं लोकप्रिय है। स्वास्थ्य एवं मनोरंजन कि दृष्टि से यह खेल पूरी तरह से दक्ष है। हमारे भारतीय क्रिकेट के खिलाड़ी आज विश्व में अपना कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। खेलों के माध्यम से मानव में कई चारित्रिक गुण उत्पन्न होते हैं। खेलों से उसमें जीवन के संघर्षों से लड़ना और उनमें सफलता प्राप्त करना आता है। खेल हमेशा खिलाड़ी भावना से ही खेला जाना चाहिए।
6. वर्षाऋतु
भारत ऋतुओं का देश है। भारत में छः ऋतुएँ होती हैं। वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर। क्रमश: अपने-अपने समय पर आती हैं और भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य में चार चाँद लगा देती हैं। वैसे तो प्रत्येक ऋतु सुहानी होती है लेकिन अपने सौंदर्य और प्रभाव के कारण जैसे वसन्त ऋतु को ऋतुओं का राजा कहा गया है उसी प्रकार वर्षाऋतु को ऋतुओं की रानी कहा गया है।
वर्षा जीवदायिनी है। वह सजीवों के लिए जलप्राप्ति का सबसे बड़ा सर्व उपलब्ध स्रोत है। आज के बढ़ते जल संकट के समय – वर्षाजल का संचय करके उसके सदुपयोग की तकनीक को और भी अधिक विकसित करना तत्काल जरूरी है। ‘जल है तो जीवन है।’
वर्षाऋतु के आगमन से पूर्व ग्रीष्म का आतंक छाया होता है। ग्रीष्म के प्रचण्ड ताप से लोग घर से बाहर निकलने का साहस नहीं करते। नदी, नाले, तालाब सूख जाते हैं। पशु-पक्षी व्याकुल होकर छाया की शरण में चले जाते हैं।
‘देख जेठ की दोपहरी, छाया चाहनी छाँह।’ फिर प्राणीजीवन का तो कहना क्या ? सभी वर्षा रानी के आगमन की प्रतिक्षा करते हैं। ऐसे समय में बादलों की गड़गड़ाहट के साथ वर्षाऋतु का आगमन होता है। वर्षा की पहली फुहार के साथ ही धरती खुशी से झूम उठती है। प्राणी जगत आनंद-विभोर होकर वर्षा रानी का स्वागत करता है।
मेंढ़कों की टर्र-टर्र, झींगुरों की झनकार, पपीहे की पी कहाँ पी कहाँ वातावरण को मादक बना देती है। कवि ने कहा है –
दादुर टर टर करते, झिल्ली बजती झन झन।
म्याउ म्याउ रे मोर, पीउ चातक के गण।
ऐसा वातावरण किसके मन को नहीं मोह लेता ? पेड़-पौधे लहलहाने लगते हैं। धरती से भीनी सोंधी सुगन्ध निकलती है। चारों ओर हरियाली छा जाती है। छोटे-छोटे बच्चे वर्षा के जल में स्नान करने निकल पड़ते हैं। बहते हुए पानी में कागज की नाव बनाकर तैराते हुए खुशी से झूम उठते हैं। ग्रामीण युवतियों का आनन्द गीतों के स्वरों में व्यक्त होता है। जगह-जगह सावन के झूले पड़ जाते हैं। झूलों पर ग्रामीण युवतियों का भोला अल्हड़ यौवन झूमने लगता है।
भारत कृषि प्रधान देश है। भारत की कृषि का आधार वर्षा ही है। वर्षा के आगमन के साथ किसान हल-बैलों के साथ खेतों में पहुँच जाते हैं। वर्षा अन्न और जल का आधार है, इसलिए वर्षाऋतु हमारी भाग्य विधात्री तथा जीवन-दात्री है। वर्षा से ही वनस्पति का विकास होता है। जंगलों का विकास होता है। वनस्पति तथा जंगलों का विकास बढ़ते हुए प्रदूषण को रोकता है। इस तरह वर्षा प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूपों में हमारी जीवन-दात्री है। पानी प्राणी जगत का जीवन है और पानी का एकमात्र आधार वर्षा है।
जहाँ वर्षा से हमें अनेक लाभ हैं, वहीं कुछ हानियाँ भी हैं। अतिवृष्टि से नदियों में बाढ़ आ जाती है। बाढ़ के आने से जानमाल की अपार हानि होती है। अधिक वर्षा आने से फसल को हानि पहुँचती है। बहुत से मकान ढह जाते है। बहुत से लोग बेघर हो जाते हैं। वर्षाऋतु में कितने ही रोगों के कीटाणु पैदा हो जाते हैं। बीमारी फैलाने का भय पैदा हो जाता है। जहाँ वर्षा से अनेक लाभ हैं, वहाँ ये सामान्य हानियाँ लाभ को देखते हुण नगण्य हैं। सचमुच वर्षा प्राणी-जीवन की स्रोत है। अन्य सभी ऋतुओं के सौन्दर्य की सहायक है।
7. दूरदर्शन का समाज पर प्रभाव
दूरदर्शन का टेलिविजन विज्ञानरूपी देवता का अनोखा वरदान है, एक अद्भुत आविष्कार है। स्कॉटलैण्ड के वैज्ञानिक जॉन लॉगी बेयर्ड का यह अद्भुत आविष्कार आज सारी दुनिया का हृदयहार बन गया है।
दूरदर्शन जादू का पिटारा है। बच्चों को अपनी पढ़ाई का टाइम-टेबल भले याद न हो, पर दूरदर्शन के दैनिक कार्यक्रम उन्हें अवश्य याद रहते हैं। बूढ़े लोग भी टी.वी. के कार्यक्रमों का आनंद लेकर अपने नीरस जीवन को सरस बना लेते हैं। गृहिणियाँ टी.वी. का आनंद लेने के लिए अपने सारे काम पहले ही पूरे कर देती हैं। जिनके घर टी.वी. नहीं होती, वे पड़ोसी के टी.वी. से दिल बहलाते हैं। सचमुच, टी.वी. ने सबके दिलों पर जादू – सा कर दिया है।
दूरदर्शन पर देश-विदेश के कोने-कोने की खबरें मूल दृश्यों के साथ प्रस्तुत की जाती हैं। बाढ़, अकाल, भूकंप जैसी आपत्तियों के समय दूरदर्शन के सचित्र और जीवंत प्रसारण पीड़ितों के प्रति लोगों के दिलों में सहानुभूति जगा देते हैं मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन के क्षेत्र में दूरदर्शन ने अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की है। इसके द्वारा फिल्म, नाटक, नृत्य, सांस्कृतिक कार्यक्रम, कविसम्मेलन आदि का आनंद हम घर बैठे ही ले सकते हैं। दूरदर्शन पर क्रिकेट, होकी, फुटबॉल या टैनिस का मैच देखने में निराला ही आनंद मिलता है। दूरदर्शन कार्यक्रमों की कुछ श्रेणियाँ लोगों के दिलों में बस जाती हैं। प्रयोजित कार्यक्रम भी लोगों का अच्छा मनोरंजन करते हैं। व्यापारिक विज्ञापनों के प्रसारण की आकर्षक शैलियाँ और संगीतमय धुनें देखते-सुनते ही बनती हैं।
दूरदर्शन शिक्षा के प्रसार और लोक-जागरण का क्रांतिकारी माध्यम है। दूरदर्शन के कार्यक्रमों की प्रेरणा से आज धार्मिक, सामाजिक, सांप्रदायिक, संकीर्णताओं की दीवारें ढह रही हैं। दूरदर्शन के माध्यम से राष्ट्रीय एकता, सद्भावना और सहयोग की जड़े मजबूत हो रही हैं। दूरदर्शन पर प्रस्तुत होनेवाले शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम ज्ञान-विज्ञान के प्रसार में अमूल्य योगदान दे रहा है।
इस समय दूरदर्शन के अलावा सैंकड़ों राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक चैनलों का प्रसारण शुरू हो जाने से जन आकांक्षाओं की पूर्ति हो सकी है। अपनी भाषा के चैनलों के माध्यम से वे समाचारों के अलावा मनोरंजन, खेलजगत तथा सिनेजगत के निरंतर संपर्क में रहते हैं। फिर भी दूरदर्शन की प्रशिष्ट सेवायें उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती ही हैं। दूरदर्शन विज्ञान की एक अनुपम देन है, जो कम्प्यूटर तथा स्मार्ट फोन से जुड़कर अत्यधिक प्रसार पा चुका है। एकता तथा विश्वबंधुत्व का संदेश देकर यह मानवजाति की अनुपम सेवा कर रहा है।
इतना उपयोगी होने पर भी दूरदर्शन अपने कुछ दुष्प्रभाव भी डाल रहा है। विद्यार्थी अपनी पढ़ाई से अधिक दूरदर्शन में दिलचस्पी लेते हैं, जिससे उनकी शैक्षणिक प्रगति पर बुरा असर पड़ता है। टी.वी. पर मैचों के प्रसारण के दिनों में दफ्तरों में काम की उपेक्षा होती है। नित्य टी.वी. देखने से बालकों की आँखों पर बुरा असर पड़ रहा है। विविध चैनलों पर प्रसारित होनेवाले कुछ कार्यक्रम हिंसा, फैशनपरस्ती आदि को बढ़ावा देते हैं।
इसके बावजूद दूरदर्शन की उपयोगिता कम नहीं होती। सचमुच, दूरदर्शन आधुनिक विज्ञान का एक अनोखा वरदान है, एक अनूठा उपहार है। यह घर-घर का आभूषण और जीवन का एक अभिन्न अंग बनता जा रहा है।
8. वर्तमान भारत की समस्याएँ
प्रत्येक राष्ट्र के विकास के लिए अनेक राष्ट्रों से संघर्ष करना पड़ता है, जिससे अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। भारत को भी उसकी आजादी की जन्मखूटी में ही कुछ समस्याएँ मिली। आज आजादी के 62 वर्ष बाद इन समस्याओं का वंशवृक्ष शाखा-प्रशाखा युक्त होकर विकसित हो चुका है। यदि आज भारत को समस्याओं का देश कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इनमें एक राष्ट्र के रूप में भारत के सम्मुख मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं –
1. राष्ट्रीय चरित्र का अभाव :
राष्ट्र केवल एक निश्चित भूभाग का नाम ही नहीं, उसमें बसनेवाले व्यक्तियों का एक निश्चित संगठन भी है। आजादी की लड़ाई के दिनों में भारतीयता-स्वदेशी की जो भावना उभरी थी, आजादी मिलने के कुछ वर्षों बाद ही लुप्त हो गई। हम पूरे राष्ट्रीय भी न बन पाए थे कि अंतर्राष्ट्रीय हो गए। राष्ट्रीयता के अभाव में हम बंगाली, पंजाबी, गुजराती, तमिल, मराठी, वगैरह बनकर रह गए। देश का व्यक्ति ‘भारतीय’ न बन पाया, परिणामस्वरूप देश में प्रांतवाद, क्षेत्रीयवाद को बढ़ावा मिला। एक ही प्रांत के विभिन्न क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों के बीच भी अंतर बढ़ता गया। व्यक्ति संकुचित होकर स्वार्थी बनने लगा, फलतः प्रांत और केन्द्र के बीच, प्रांत और अन्य प्रांत के बीच संघर्ष की नौबत आई है। एक प्रांत को क्षेत्र के आधार पर विभाजन की मांग, नए प्रांत बनाने के लिए अदालत अथवा किसी प्रांत द्वारा स्वतंत्र राष्ट्र बनाने की कामना के लिए संघर्ष इसी संकुचितता एक स्वार्थ का ही प्रतिफल है। आज भारतीय राष्ट्र की पंजाब समस्या, असम समस्या, गोरखा लैण्ड, बोडोलैंड आदि को इस संदर्भ में देखा जा संकता है।
2. साम्प्रदायिक सौहार्द तथा भावात्मक एकता की कमी :
भारत विभाजन के समय हुए साम्प्रदायिक दंगों की भयावहता का भूत अभी भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। आजादी के इतने वर्षों के बाद आज भी यत्र-तत्र छोटी-मोटी बातों को लेकर हिन्दु-मुस्लिम दंगे भड़क उठते हैं, जिससे जन-धन को हानि तो होती है, राष्ट्र की असाम्प्रदायिक छबि भी उभरने नहीं पाती। एक ही गाँव-शहर में बसनेवाले ये भिन्न-धर्मी जातियों के बीच सौहार्द पनप नहीं रहा है, वे एकदूसरे को संशय की नजर से देखते हैं, परिणामस्वरूप आशंका तथा भय की स्थिति हमेशा बनी रहती है, जो जरा सी बात पर दंगों का रूप धारण कर लेती है।
इसी तरह कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बसनेवाले विभिन्न धर्मों-जातियों के लोग सांस्कृतिक दृष्टि से भिन्नता लिए हुए हैं। ‘विविधता में एकता’ की बात करते हम भले ही नहीं अघाते, किन्तु वास्तविकता यही है कि हमारे तमाम प्रयास भावात्मक एकता को दृढ़ कर सकने में असफल रहे हैं।
3. सामाजिक असमानता-छुआछूत की समस्या :
जन्म के आधार पर जाति-निर्धारण के कारण जन्म से ही व्यक्ति का सामाजिक स्तर निश्चित हो जाने से भारतीय समाज में ऊँच-नीच की भावना का विकास हुआ। आज भी इसी तरह का दृष्टिकोण सर्वत्र दिखाई दे रहा है। विशेषतः ग्रामीण समाज में एक जाति के अंतर्गत ही जो विभिन्न सामाजिक स्तरीकरण दिखाई देता है, वह हमारी वर्णाश्रम व्यवस्था की रूढ़ि का परिणाम है। फलतः एक ही समाज में कुछ शूद्र कही जानेवाली जातियाँ उसी समाज की अन्य जातियों के लिए अस्पृश्य बन गई हैं। समाज-सुधारकों, महापुरुषों के तमाम प्रयासों के बावजूद भी इस अस्पृश्यता की मूल भावना में कोई खास अंतर नहीं पड़ा है। कानून की दृष्टि में अपराध होने पर भी छुआछूत की भावना हमारे समाज में अभी गई नहीं है।
4. जनसंख्या वृद्धि, तद्जन्य समस्याएँ :
‘जन’ राष्ट्र की पूँजी है, किन्तु यही जनवृद्धि पाकर राष्ट्र के लिए समस्या बन सकते हैं। हमारे देश में जनसंख्या आज एक समस्या बनी हुई है और इसने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण देश में खाद्यान्न की कमी, गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं को बढ़ावा मिला है। जिस गति से जनसंख्या में वृद्धि हुई, उससे हम रोजगार के अवसर नहीं जुटा पा रहे हैं, फलतः बेरोजगारी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। लोगों की प्राथमिक आवश्यकता की पूर्ति के हमारे तमाम प्रयास विफल हो रहे हैं। स्वास्थ्य पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। देश के सभी लोगों के लिए हम प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करा सकने में असफल रहे हैं, इतना ही नहीं उनके आवास-भोजन भी स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। बढ़ती हुई आबादी के कारण हमें खाद्यान्न आयात करना पड़ता है। कृषिप्रधान देश के लिए यह एक अपमानजनक स्थिति है। आबादी-वृद्धि ने अशिक्षा को भी बढ़ावा दिया है, लोगों के रहन-सहन का स्तर नीचा गया है। सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं की तमाम कोशिशों के बावजूद जनसंख्या वृद्धि की दर में यथेष्ट गिरावट अभी तक नहीं आई है। जनसंख्या का यह विस्फोट हमारे लिए एक सिरदर्द बनकर रह गया है।
6. नवीनतम आर्थिक सुधारों का आरंभिक दुष्प्रभाव :
भारत सरकार द्वारा नोटबंदी तथा जी.एस.टी. (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) को जितनी त्वरा से लागू किया गया, उससे तो यही प्रतीत होता है कि इन अच्छी योजनाओं का लाभ मिलने के बजाय यह सामान्य जन जीवन को अस्त-व्यस्त करनेवाली बन गई। हमारा देश अभी पूरी तरह से डिजिटल विश्व में रम नहीं पाया है। करोड़ों भारतीय जो अल्पशिक्षा तथा बुनियादी ढाँचे के अभाव के कारण इनके कुप्रभावों का शिकार बने। छोटे-छोटे घरेलू-लघु उद्योगों पर इतनी मार पड़ी की वे सँभल नहीं पाये। इसके कारण बेरोजगारी की समस्या और विकट बनी। योजनाएँ भले ही उत्तम हों किन्तु अधकचरे अमलीकरण ने उसे दुःखदायक बना दिया।
6. आर्थिक असमानता की समस्या :
आर्थिक दृष्टि से भारत में संपत्ति का विभाजन असमान है। देश की अधिकांश पूँजी कछ उद्योगपति घरानों में सीमित हो गई है। गाँव, शहर के बीच अंतर बढ़ा है, फलतः गाँव का व्यक्ति शहर की ओर पलायन कर रहा है। गाँव में पूँजी के अभाव में रोजगार-धंधे में भी कमी आई है।
पूँजी के एकत्रीकरण ने शोषण को बढ़ावा दिया है। शोषण के कारण श्रमिक संगठनों का जन्म हुआ है। दोनों ही स्थितियाँ अपनी चरम सीमा पर राष्ट्र की गति में बाधक बनी है। औद्योगिक क्षेत्रों में बढ़ती हुई श्रमिक अशांति, उद्योग-धंधों का बंद होना आदि आर्थिक विषमता के ही परिणाम है।
देश में काले धन की मात्रा बढ़ी है, फलतः मँहगाई और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। भ्रष्टाचार की जड़े सत्ता से लेकर सामान्य व्यक्ति तक फैली है। नैतिकता को ताक पर रखकर व्यक्ति अर्थोपार्जन में लगा हुआ है। अर्थ की ताकत के सम्मुख व्यक्ति का व्यक्तित्व बौना होता जा रहा है। धन के लिए व्यक्ति देशद्रोह करने में भी नहीं हिचक रहा है।
7. दहेज, नारी – विषयक अन्य समस्याएँ :
कहने को तो हम स्त्री-पुरुष को समान मानते हैं। किन्तु व्यवहार में आज भी नारी का दर्जा द्वितीय कोटि के नागरिक जैसा ही है। समाज में पुत्री का जन्म आज भी शोक का कारण है। स्त्री-जाति के शोषण, दहेज की माँग, दहेज न मिलने पर स्त्री को जला देने के उपक्रम आदि स्त्री-पुरुष समानता की हमारी बात की कलई खोल रहे हैं। नारी-शिक्षा के अभाव ने भी शोषण को बढ़ावा दिया है। जीवन के हर क्षेत्र में आज समान रूप से प्रविष्ट होने के बावजूद भी एक बहुत बड़ा नारी समुदाय सामाजिक न्याय से वंचित है। कहीं-कहीं तो अन्याय-अत्याचार अपनी सीमा को लांघ जाते हैं, नारी की व्यथाकथा दयनीय है। नारी में जागरूकता का अभाव, अशिक्षा, हीनतर सामाजिक स्थिंति ही उसकी दुर्दशा के मूल कारण हैं।
8. राजनीति में आतंकवाद का प्रवेश :
स्वतंत्र भारत की नींव राष्ट्रपिता ने अहिंसा और सहिष्णुता पर रखी थी। समय बीततेबीतते हमारे राजनैतिक नेताओं ने अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए जाने-अनजाने ऐसे तत्त्वों को प्रश्रय देना शुरू किया जो अपराधी मनोवृत्ति के थे। सत्ता और अपराध का यह गठबंधन आतंकवाद के रूप में जन्म ले चुका है। मत प्राप्ति के लिए जबरन मतदान केन्द्रों पर कब्जा से लेकर प्रत्याशियों का अपहरण एवं उनकी हत्या की घटनाएँ इस बात की साक्षी हैं। राजनीति में आतंकवाद के प्रवेश से उग्रता को बढ़ावा मिला है, नक्सलवाद इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हम समझौते के बजाय बल द्वारा अपनी समस्याओं के समाधान की ओर अनजाने में अग्रसर हो रहे हैं। यह राष्ट्र के विघटन का कारण बन सकता है।
9. एक कुत्ते की आत्मकथा
आत्म परिचय :
मैं एक कुत्ता हूँ आपकी जानी-पहचानी जाति का एक अभागा प्राणी। आज मुझे मानवसमाज से कुछ शिकायतें करनी हैं। इसीलिए मैं आपको अपनी आपबीती सुनाना चाहता हूँ।
जन्म और बचपन :
मेरा जन्म गाँव के एक किसान के घर में हुआ था। मैं अपनी माँ की लाड़ली संतान था। हम पाँच-छ: भाई-बहनों ने एक साथ जन्म लिया था। माँ ने बड़े प्यार से हमारा पालन पोषण किया और अपने मीठे दूध तथा यहाँ-वहाँ के रोटी के टुकड़ों से हमें पुष्ट किया। जब हमने चलना सीख लिया तो आसपास के बच्चे मुझे उठाकर अपने घर ले जाने लगे। वे कभी-कभी मुझे दूध भी पिलाते थे। अपने भाई-बहनों में मैं सबसे सुन्दर था इसलिए जल्दी ही सबका प्रिय पात्र बन गया।
मालिक के घर :
एक दिन उस गाँव में एक व्यापारी आया। एकाएक उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी और पता नहीं उसने मुझ में क्या विशेषता देखी कि जाते समय वह मुझे अपने साथ लेता गया। विदा का वह दृश्य मैं जीवनभर नहीं भूल सकता। मुझे अलग होते देखकर मेरी माँ और भाई बहन बहुत बेचैन हो गए थे।
सुखी जीवन :
उस व्यापारी के घर में बहुत-से बच्चे थे। मेरे पहुँचते ही सबने मुझे अपना दोस्त बना लिया। मालकिन ने मुझे अपनी गोद में बिठाया और मेरी पीठ पर हाथ फेरा। मेरा नाम ‘टीपू’ रखा गया। बढ़िया खाना, दिनभर आराम और सबका लाड़-प्यार। जंजीर होते हुए भी मैं आजाद रहता था। आगंतुकों को देखकर मैं भौंका करता था। एक बार मालिक के घर में रात को कुछ चोर घुस आए। उनके आते ही मुझे शंका हुई और मैं भौंकने लगा। एक चोर के पैर में तो मैंने अपने दाँत गड़ा दिए। सब लोग जाग गए। देखा कि आँगन में गहनों की पेटी पड़ी हुई हैं। मेरे भौंकने और काटने से चोर सब कुछ छोड़कर नौ दो ग्यारह हो गए थे। सबने मेरी खूब तारीफ की।
बुढ़ापा और उपेक्षा :
किन्तु समय गुजरने के साथ मेरे उत्साह, शक्ति और रंगरूप फीके पड़ते गए। धीरे-धीरे मैं मालिक के घर में सबकी उपेक्षा का पात्र बनता गया। एक दिन मालिक का पुत्र ‘बुलडॉग’ जाति का एक नया कुत्ता ले आया मैंने भौं-भौं करके अपना विरोध प्रकट किया, किन्तु डंडे मारकर मुझे घर से बाहर निकाल दिया गया।
उपसंहार :
आज मैं अपनी शेष जिन्दगी यहाँ-वहाँ घूमकर काट रहा हूँ। जाड़े की ठिठुरन ने मेरे जीवन को अधमरा बना दिया है। सोचता हूँ, क्या मेरा मालिक और साल-छ: महीने मुझे रोटी नहीं खिला सकता था ? पर मनुष्य तो ठहरा स्वार्थ का पुतला ! उसमें इतनी दया कहाँ कि वह मेरे दिल के दर्द’ को समझ पाए।
10. विद्यार्थी और अनुशासन
किसी भवन की सुदृढ़ता उसकी आधारशिला पर है। भवन की आधारशिला जितनी गहरी और मजबूत होगी, भवन उतना ही मजेचूत और विशाल बनाया जा सकेगा। इसी प्रकार मानव की महानता, समृद्धि, सुखशान्ति, स्वास्थ्य आदि छात्रावस्था अर्थात् विद्यार्थी जीवन पर आधारित है। यह अवस्था उस कोमल शाखा की तरह है, जिसे मनचाही दिशा में, मन चाहे रूप में मोड़ा जा सकता है। अतः मानवजीवन की इस प्रारम्भिक अनुपम अवस्था को सच्चरित्रता, सदाचारिता, संयम और अनुशासन से सुरक्षित रखना चाहिए।
विद्यार्थी की प्रथम पाठशाला उसका घर है, परिवार है और गुरु है उसकी माँ। बालक अपने परिवार में प्रेम, सहयोग, अनुशासन आदि से परिचित होता है। छात्रावस्था अबोध और कोमल अवस्था होती है। इस अवस्था में न तो बुद्धि परिष्कृत होती है और न विचार परिपक्व। इसलिए इस अवस्था अर्थात् विद्यार्थी जीवन को माता-पिता, गुरुजन सद्गुणों से समृद्ध बना सकते हैं।
अपने शाब्दिक अर्थ में अनुशासन शासन (नियमों) का अनुसरण करना है। यदि व्यक्ति दंड या किसी अन्य भय से नियमों का पालन करता है, तो वह बाह्य अनुशासन कहलाता है, पर स्वेच्छा से उन नियमों का अनुसरण करता है तो उसे आत्मानुशासन कहा जाता है। आत्मानुशासन ही विद्यार्थीजीवन का लक्ष्य है।।
यूँ तो जीवन के हर मोड़ पर अनुशासन महत्त्वपूर्ण होता है किन्तु विद्यार्थीजीवन में अनुशासन का विशेष महत्त्व है। इस समय के अर्जित संस्कार जीवनभर व्यक्ति का साथ देते हैं। विद्यार्थी जीवन हमारे जीवन की आधारशिला है, इसलिए इस काल में पड़ी आदतें, प्राप्त मूल्य हमारे भावी जीवन को गढ़ते हैं। विनय, सादगी, शिष्टाचार, समयबद्धता, सत्यनिष्ठा तथा परिश्रमशीलता जैसे सद्गुण इसी काल में अर्जित किये जाते हैं। भारत के संदर्भ में यह अनुशासन कुछ अधिक ही महत्त्वपूर्ण बन जाता है। चारों ओर से हो रहे सांस्कृतिक आक्रमण हमारे जीवन मूल्यों को नष्ट कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति पर पड़नेवाले विदेशी संस्कृति के दुष्प्रभाव से हमारा विद्यार्थी भी अछूता नहीं है।
इन परिस्थितियों आत्मानुशासन ही हमें सद्मार्ग पर चलते रहने का संबल देता है। इस आत्मानुशासन की प्राप्ति हेतु हमें अपनी शिक्षाप्रणाली तथा रहन-सहन की पद्धति में व्यापक सुधार करने की आवश्यकता है। अनुशासनहीनता समाज, राज्य या देश में अराजक स्थिति को जन्म देती है, हमें उससे बचना है।
11. समय का सदुपयोग
प्रस्तावना :
समय का प्रभाव बड़ा प्रबल होता है। यह सभी को प्रभावित करता है। समय के सदुपयोग से गरीबी, अमीरी में बदल जाती है। असत्य सत्य सिद्ध हो जाता है। लघुता प्रभुता में बदल जाती है और यही नहीं, असंभव संभव में बदल जाता है परन्तु समय के बीत जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं होता। कहा भी है –
का वर्षा जब कृषि सुखाने।
समय चूकि पुनि का पछाताने।।
कहावत है कि ‘समय पीछे से गंजा होता है।’ अर्थात् समय के निकल जाने पर आप उसे पीछे से नहीं पकड़ सकते। अतः सही समय पर उठाया गया कदम ही उसे उपयोगी बना सकता है।
खोया हुआ धन लौटकर आ सकता है, खोया हुआ स्वास्थ्य भी प्रयत्न करके पुनः प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु खोया हुआ समय वापस नहीं मिल सकता। अतः हमें अपने जीवन का एक-एक क्षण बहुमूल्य मानकर व्यतीत करना चाहिए। समय के संबंध में संस्कृत नीतिकारों का कथन द्रष्टव्य है –
काव्य शास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन तु मूर्खाणां, निद्रया कलहेन वा।।
अर्थात् बुद्धिमान व्यक्तियों का समय तो काव्य शास्त्र आदि के अध्ययन में व्यतीत होता है। अतएव समय का सबसे अच्छा उपयोग तो ज्ञानार्जन हेतु विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन ही है।
लक्ष्य निर्धारण :
जीवन को सुखी और सफल बनाने के लिये सबसे बड़ी आवश्यकता जीवन में लक्ष्य निर्धारित करने की है। एक बार लक्ष्य निर्धारित कर लेने के पश्चात् हमारी सारी शक्ति .उसी लक्ष्य को प्राप्त करने में लग जानी चाहिए। लक्ष्यहीन व्यक्ति इधर-उधर भटकता फिरता है। लक्ष्य निर्धारण करने में हमें अपनी रूचि को देखना होगा। जिस विषय में हमारी अधिक रुचि हो, उसी दिशा में हमें अपना लक्ष्य स्थापित करना चाहिए। इससे हमें शीघ्र सफलता मिलने की सम्भावना रहती है।
शरीर की स्वस्थता :
शरीर आत्मा का मन्दिर है, मस्तिष्क का निवास स्थान है। अतएव शरीर की स्वस्थता परम आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है। मन की स्वस्थता शरीर की स्वस्थता पर निर्भर है। अतएव अपने बहुमूल्य समय में से कुछ समय अपने शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए दें। शरीर के स्वस्थ रहने पर ही हम अपना, अपने समाज का और अपने राष्ट्र का हित चिंतन कर सकते हैं।
धनोपार्जन :
उदर पूर्ति हेतु धनोपार्जन करने के लिए भी हमें समय देना चाहिए। बिना धन के हम जीवन निर्वाह नहीं कर सकते। जीवन में धन साधन मात्र ही होना चाहिए, साध्य नहीं। धन के लोभ में हमें जीवन के इस महत्त्वपूर्ण तत्त्व को नहीं भूलना चाहिए। अतएव धन के प्रति हमारे हृदय में आसक्ति नहीं होनी चाहिए।
समय की पाबन्दी :
समय का सदुपयोग करने के लिए समय की पाबन्दी भी नितान्त आवश्यक है। किसी काम को आलस्यवश टालना नहीं चाहिए। आलस्य मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। जो व्यक्ति आलस में पड़कर समय को व्यर्थ में बर्बाद करता रहता है, समय भी उस व्यक्ति को कुचलकर समाप्त कर देता है। जो काम कल के ऊपर टाला गया वह कभी पूरा नहीं हो पाता। अतएव जीवन को नियमित बनाना अत्यन्त आवश्यक है।
उपसंहार :
समय के सदुपयोग पर ही मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास निर्भर करता है। उससे मन को। अपूर्व शान्ति मिलती है। समय का मूल्य जाननेवाला व्यक्ति सदा अच्छे अवसर का स्वागत करने के लिए तैयार रहता है। सौभाग्य प्रत्येक व्यक्ति का दरवाजा एक बार खटखटाता है और जो व्यक्ति उसका स्वागत नहीं करता, उसे फिर जीवन में उससे निराश होना पड़ता है। अतएव यदि हम चाहते हैं कि हम अपने जीवन में सफल और महान बनें तो हमें जीवन के एक-एक बहुमूल्य क्षण का उपयोग करना चाहिए। समय के सदुपयोग पर ही जीवन की सफलता निर्भर है।
12. ‘दहेज-प्रथा : एक सामाजिक अभिशाप’
प्रस्तावना :
दहेज और दायज शब्द समानार्थी है जिनका अर्थ विवाह के अवसर पर कन्या के संरक्षकों द्वारा वर पक्ष को दी जानेवाली धनराशि से लगाया जाता है। साधारणतया दहेज वह सम्पत्ति है जो एक व्यक्ति विवाह के समय अपनी पत्नी अथवा उसके परिवारवालों से पाता है।
दहेज का प्रचलन :
दहेज प्रथा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही विद्यमान है। तुलसीकृत रामचरित मानस में शिव-पार्वती के विवाह के पिता हिमवान अपनी बेटी के विवाह के अवसर पर अपार सम्पत्ति और दास-दासी प्रदान करते हैं। इसी प्रकार दहेज प्रथा का उल्लेख अन्य भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। प्राचीन काल में हमारा देश भारत एक समृद्ध देश था। इसलिए इसे सोने की चिड़िया की संज्ञा दी जाती है। माता-पिता अपनी सम्पत्ति का एक भाग लाड़ली कन्याओं को विवाह के अवसर पर अपनी स्वेच्छा से दिया करते थे। उस समय तक समाज में इसके पीछे कोई लालच व सौदेबाजी की भावना नहीं थी।
दहेज एक कुप्रथा के रूप में :
आज का युग भौतिकवादी युग है। इसमें धन को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है, परिणामस्वरूप जिन लोगों के पास धन अधिक होता है, वे अनुकूल लड़के को धन देकर क्रय कर लेते हैं। कन्या की शिक्षा व सुन्दरता पर ध्यान नहीं दिया जाता है। वस्तुत: दहेज एक पापपूर्ण चक्र है जो एक बार चलने पर कभी समाप्त नहीं होता। वास्तव में निर्धन माता-पिता के लिए दहेज एक अभिशाप बन चुका है, जिसके कारण वह अपनी लाड़ली पुत्री को किसी सद्गृहस्थ को देने में सदा असमर्थ रहते हैं।
दहेज उन्मूलन अधिनियम के द्वारा सरकार ने इस कुप्रथा को कानूनी अपराध घोषित कर दिया है परंतु यह प्रथा इतनी मजबूत हो चुकी है कि इसे अकेली सरकार दूर नहीं कर सकती। इस कार्य में समाज-सुधारकों को आगे आना चाहिए। अंतजातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिससे विवाह के लिए वर ढूँढने के क्षेत्र का विस्तार हो सके। – तमाम कानूनों, समाज सुधारों के बावजूद इसका मात्र स्वरूप बदला है, नकद के बजाय, मकान-फ्लैट-बंगले तथा आभूषणों के रूप में यह और भी विकराल रूप धारण कर रहा है। उत्तर भारत में स्थिति बदतर हो रही है।
दहेज एक सामाजिक बुराई हैं :
दहेज प्रथा अब एक आम बुराई बन चुकी है। अतः इसे समाप्त करने के लिए शिक्षा का प्रसार किया जाना चाहिए, जिससे समाज में नवीन मूल्यों का निर्माण हो सके। साथ ही लोग इस प्रथा का विरोध करने के लिए प्रेरित हो। शिक्षित नवयुवक व नवयुवतियाँ इस कुप्रथा का कड़ा विरोध करे। दहेज-प्रथा के उन्मूलन के लिए स्त्रियों में शिक्षा को बढ़ावा और उनको उन्नतिशील बनाने की अति आवश्यकता है। जब उनमें शिक्षा का अच्छा विकास हो जाएगा तो उनका स्तर पुरुष के बराबर बन जाएगा : परिणामस्वरूप सामाजिक क्षेत्र में उनका महत्त्व बढ़ेगा, आत्मविश्वास बढ़ेगी। इन सब कारणों से वे स्वयं ही इतनी सक्षम हो जायेगी कि अपने लिए वर का चयन कर सकें। ऐसा होने पर माता-पिता स्वयं ही दहेज की चिंता से मुक्त हो जायेंगे। इस दूषित प्रथा को समाप्त करने के लिए देश में कवियों, उपन्यासकारों, नाट्यकारों तथा चलचित्र निर्माणकर्ताओं को चाहिए कि वे दहेजप्रथा उन्मूलन में अपना सहयोग दे और ऐसे वातावरण का निर्माण करें, जिससे समाज में लोग दहेज को एक बुराई समझकर उसका त्याग करें।
उपसंहार :
यदि समाज के लोगों को जीवित रखना है तो इस बुराई का समय रहते अन्त किया जाना बहुत जरूरी है, जैसा कि ए. एस. आल्टेकर ने कहा है – ‘अब समय आ गया है कि मनुष्य को समाज में दहेज जैसी कुप्रथा का अन्त कर देना चाहिए। जिसने समाज की अनेक निर्दोष कन्याओं को आत्मदाह करने को मजबूर कर दिया है। ऐसा होने पर समाज को इस महाव्याधि से मुक्ति मिल सकेगी।
13. जंगलों का महत्त्व
प्रस्तावना :
वृक्षारोपण कार्यक्रम या वन महोत्सव से हमारा तात्पर्य पृथ्वी को हरा-भरा बनाने से है। इसके लिये हमें अधिकाधिक मात्रा में वृक्ष उगाने चाहिये क्योंकि वृक्ष धरा के आभूषण है और इनसे हमें अनगिनत लाभ हैं।
वृक्षारोपण की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा :
प्रकृति भारत की सदा सहचरी रही है। भारतीय संस्कृति का विकास वनों से ही हुआ। प्राचीन भारत में वनों का बड़ा महत्त्व था। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम कोलाहल से दूर वनों में स्थित थे। वन महोत्सव भारत का राष्ट्रीय पर्व होता है। सारंगधर पद्धति में लिखा है ‘धर्म और अर्थ से अनेक पुत्रों के जन्म से क्या लाभ है ? इससे तो अच्छा मार्ग में लगाया गया एक वृक्ष होता है जो लोगों को छाया और फल देता है। दस कुओं के निर्माण का पुण्य एक तालाब बनवाने के बराबर होता है और दस तालाबों के निर्माण का पुण्य एक झील के बराबर होता है और दस पुत्रों का पुण्य एक वृक्ष लगाने के समान होता है। भारतीयों ने वनों की परम्परा को अक्षुण्य तथा अनवरत् बनाये रखने के लिए अनेक व्रत और पर्यों की प्रथा चालू की थी। जैसे – बहुलाचतुर्थी, वटमावस, व्रत सावित्री पूनम, हरियाली तीज आदि। इन पर्यों पर वृक्ष-पूजन और नवीन वृक्षारोपण होता है। भारतीयों को वन-विज्ञान का पर्याप्त ज्ञान था। हरें वृक्षों को काटना पाप था। ऋषियों ने हरे वृक्ष काटनेवालों के लिये दण्ड का विधान निर्धारित किया था।
वृक्षों से लाभ :
वृक्षों से हमें लकड़ी प्राप्त होती है जिनसे कुर्सी, मेज, फर्नीचर आदि बनते हैं। बच्चों के खिलौने भी लकड़ी से बनते हैं।
वनों से मनुष्यों को फल-फूल, गोंद, कपूर, कत्था आदि अनेक वस्तुएँ प्राप्त होती है। इन वस्तुओं से वह आर्थिक लाभ प्राप्त करता है। पशुओं को इनसे चारा मिलता है। वन बादलों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं जिससे वहाँ वर्षा हो जाती है। वर्षा के जल को वृक्ष सोख लेते हैं। और मिट्टी को उपजाऊ बना देते हैं। भूमि का कटाव भी नहीं हो पाता।
मानव जीवन के लिए ऑक्सीजन आवश्यक है। वन के वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ते हैं और वातावरण में उसका सन्तुलन बनाये रखते हैं। यही नहीं, वे जहरीली कार्बन डाइओक्साइड को ग्रहण कर पचा लेते हैं। वन जंगली जानवरों की शरण स्थली है, उन्हें भी जीने का हक है अतः उनके शिकार पर रोक लगाकर उनकी नस्ल का संरक्षण किया जा रहा है। इस प्रकार सभी के लाभ एवं सुरक्षा के लिए वनों का महत्त्व है।
वन महोत्सव :
मध्य युग में वनों के राष्ट्रीय महत्त्व को भूला दिया गया। जनसंख्या वृद्धि के कारण वनों को काटकर वन श्री को नष्ट किया गया। नवीन वृक्षारोपण बंद हो गया। हरितिमा शनैः शनैः मिटती गई। भूमि की उर्वरा शक्ति घटती गई। नदी, सरोवर और जलाशय सूखने लगे। वृक्षों का अभाव खटकने लगा, इसलिए सन् 1950 ई. में राजस्थान के बढ़ते हुए रेगिस्तान को रोकने के लिये तत्कालीन राज्यपाल श्री के. एस. मुन्सी ने वन सम्पदा को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से ‘वन महोत्सव’ का श्रीगणेश किया। अब भारत सरकार नवीन वृक्षारोपण में प्रयत्नशील है। सरकारी कार्यक्रमों में वृक्षारोपण पर पर्याप्त बल दिया जा रहा है। आज पुनः सम्पूर्ण भारत में वृक्षारोपण तीव्र गति से किया जा रहा है। प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों पौधे सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा लगाये जाते हैं किन्तु. पर्याप्त देख-रेख के अभाव में वे काल कवलित हो जाते हैं। लगाए जानेवाले पौधों के संरक्षण में जनभागीदारी का अभाव है। हमें इस क्षेत्र में जनसहयोग को बढ़ाने की जरूरत है।
उपसंहार :
वृक्षों का बहुत महत्त्व है, यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई है। शासकीय एवं व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को वृक्षारोपण कार्यक्रम पर पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिए, क्योंकि वृक्ष लेते कुछ नहीं है, देते ही देते हैं। सत्य ही कहा गया है –
‘वृक्ष धरा के भूषण हैं, करते दूर प्रदूषण हैं।’
14. समाज में नारी का स्थान
प्रस्तावना :
नारी सृष्टि की आधारशिला है। उसके बिना हर रचना अधूरी है, हर कला रंगहीन। वह पुरुष की माता भी है, प्रेमिका भी, सहचरी भी और सहयोगिनी भी। भारत की संस्कृति में नारियों को महिमामय एवं गरिमामय स्थान प्राप्त रहा है। ‘यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ अर्थात् जहाँ नारियाँ पूजित होती है, वहाँ देवता रमण करते हैं। यह भारतीयों की नारी दृष्टि का परिचायक है। प्राचीन भारत की नारी केवल पूजा और श्रद्धा की वस्तु ही नहीं अपितु उसने वेद मंत्रों की रचना कर अपने युद्ध कौशल से महाबलियों को परास्त कर, अपने तर्क से महापण्डितों को पराजित कर तथा अपने बुद्धि-चातुर्य से राज्य का संचालन कर यह प्रमाणित कर दिया था कि यदि समुचित अवसर प्राप्त हो और साधन सुलभ हो तो वह प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं।
मध्ययुग में नारी :
आगे चलकर भारतीय समाज में नारी की स्थिति बदलती गयी। वह केवल भोग्या हो गयी – पुरुष के राग – रंग का साधन बनकर उसकी कृपा पर जीवित रहना ही उसकी नियति बन गयी। जिन स्त्रियों ने वेद मंत्रों की रचना की थी, उन्हें वेद पाठ के अधिकार से वंचित कर दिया गया। जिन्हों ने युद्धभूमि में अपनी शूरता का परिचय दिया था, उन्हें कोमलांगी कहकर चौखट लांघने तक की इजाजत नहीं दी गयी। पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में वह मात्र एक दासी बनकर रह गयी। मुस्लिम युग में स्त्रियों पर और भी बन्धन डाल दिये गये, क्योंकि विदेशियों की दृष्टि किसी देश की धन सम्पदा पर ही नहीं, वहाँ की स्त्रियों पर भी होती थी। स्त्रियों पर अधिकार हो जाने से बड़ी सफलतापूर्वक जाति-परिवर्तन, धर्म-परिवर्तन या समाज परिवर्तन किया जा सकता था। अतः स्त्रियों को अपहरण एवं बलात्कार से बचाने के लिये पर्दा-प्रथा की शुरुआत हुई। वह घर के बाहर नहीं निकल सकती थी। उसकी शिक्षा या उसके अर्थोपार्जन का प्रश्न ही नहीं उठता था। वह बस दासी थी, सेविका थी, परिचारिका थी, आज्ञापालिका थी।
आधुनिक युग और नारी :
आधुनिक युग में जब हम पाश्चात्य जीवन संस्कृति के अधिक निकट आये, तब हमें लगा कि स्त्रियों की आधी जनसंख्या को पालतू पशु-पक्षी की तरह बाँधकर खिलाते रहना मानवता का बहुत बड़ा अपमान है। एक ओर ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ और दूसरी और ‘नारी नरकरय द्वारम्’, ये दोनों ही दृष्टिकोण अतिवादी हैं। हमें उसे मात्र मानवी मानकर वे सारी सुख-सुविधाएँ देनी चाहिए जो हम खुद अपने लिये चाहते हैं। 19-20 वीं शताब्दी में प्राय: सभी धर्म सुधारकों और राजनेताओं ने स्त्रियों को प्रारम्भ में ही हमारी नारी दृष्टि परिवर्तित हुई। स्त्रियों की शिक्षा संस्थाएँ खुली, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में खुलकर भाग लिया, साहित्य और कला के क्षेत्र में उन्होंने नाम तथा यश अर्जित किया और धर्म तथा आध्यात्म के क्षेत्र में भी उन्होंने बहुत कुछ उल्लेखनीय स्थान प्राप्त किया।
जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ भारतीय महिलाएँ पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल रही हों; चाहे वह सशस्त्र सेनाबल हो, टेक्नोलॉजी का क्षेत्र हो, परंपरागत व्यवसाय या उद्योग आदि का क्षेत्र हो। हर जगह भारतीय स्त्री पुरुषों से प्रतिस्पर्धा करती हुई आगे बढ़ रही है।
उपसंहार :
आज की नारी अपने पाँवों पर खड़ी है। पश्चिमी शैली के अन्धानुकरण ने उसकी गरिमा और प्रतिष्ठा छीन ली है। आज के अधिकांश परिवारों का टूटना और घुटन के मूल में नारी की अदम्य इच्छाएँ या अप्रिय महत्त्वाकांक्षाएँ ही हैं। उसे बहुत सँभलकर अपनी आस्था के चर ग उठाने होंगे।
15. जल-संकट
मनुष्य को जीवित रहने के लिए सबसे जरूरी चीजों में हवा, जल तथा भोजन का समावेश है। हवा के बिना आप चंद मिनटों तक जीवित रह सकते हैं और जल के बिना चंद घंटों या चंद रोज। मनुष्य के शरीर का लगभग सत्तर प्रतिशत भाग जल है। मनुष्य को हर एक-दो घंटे में पानी की प्यास लगती है, जिसे मिटाने के लिए उसे पानी या पानी मिश्रित आहार ग्रहण करना जरूरी हो जाता है। कहा गया है – ‘जल है तो जीवन है।’
पानी केवल मनुष्य के लिए समस्त सजीव सृष्टि के लिए आवश्यक है, जिस पर मनुष्य का जीवन अवलंबित है। जल के अभाव में भूमि की उर्वरा शक्ति समाप्त हो जाती है। रेगिस्तान इसके प्रमाण हैं। बिना नमी (जल का ही एक रूप) के वनस्पतियाँ नहीं उगेंगी। वनस्पति के अभाव में मनुष्य को आहार तथा श्वसन के लिए प्राणवायु (ऑक्सीजन) की उपलब्धता घट जाएगी, संदिग्ध हो जाएगी। अन्य जीव-जंतु भी पानी के अभाव में जीवित नहीं रह सकेंगे। हम मनुष्य तो पीने के अलावा पानी का अनेक तरह से उपयोग करते हैं। सफाई के लिए, सिंचाई के लिए, भोजन पकाने तथा बर्तनों को साफ करने-धोने के लिए, कल कारखानों में, वाष्पशक्ति से चलनेवाले संयंत्रों में इत्यादि। यह सूची अनंत है। समस्त सजीवों को जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है, इसीलिए कहा जाता है कि ‘पानी जीवन का आधार है।’
सामान्य रूप से पृथ्वी का दो तिहाई भाग जल है, भूमि के नीचे भी जल के भंडार हैं, पर्वत शिखरों पर जल बरफ के रूप में है। प्रतिवर्ष वर्षा द्वारा हमें जल मिलता है। इन सबके बावजूद हमें उपयोग में लानेवाले जल की कमी निरंतर बनी है। इसके मुख्य कारणों में उपलब्ध जल की गुणवत्ता तथा गुणवत्ता युक्त जल की मात्रा की कमी है। भूपृष्ठ पर मिलनेवाला अधिकांश जल प्रदूषित है, वह पेय जल के रूप में प्रयोग करने योग्य नहीं है। हम उसका शुद्धीकरण करके पीने के लिए उपयोग करते हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या को सभी कार्यों के लिए जल सभी स्थानों पर उपलब्ध नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में जल की आपूर्ति एक विकट प्रश्न है। आस-पास के चालीस-पचास किलोमीटर दूर के जलस्रोतों से पाइपों द्वारा पानी का परिवहन करके शहरों में पहुँचाया जाता है। वर्षा का असमान वितरण तथा जलस्रोतों – नदी, तालाब, झीलों आदि के गिरते जलस्तर से यह संकट दिन-प्रतिदिन गहराता जाता है। बड़े नगरों में तो सुएज प्लांट द्वारा जल का ट्रीटमेंट करके कल-कारखानों के प्रयोग योग्य जल आपूर्ति की जाती है, फिर भी जल की कमी हमेशा बनी रहती है।
जल की कमी के साथ एक दूसरी समस्या जुड़ी है जल के प्रदूषण की। अधिकांश नदियों में छोड़ा जानेवाला औद्योगिक कचरा उन्हें इतना प्रदूषित कर चुका है कि उनका पानी पीना तो दूर रहा, सफाई या सिंचाई के लायक भी नहीं बचा है। उनके पानी से सिंचाई करके उगाई जानेवाली फसलें, साग-सब्जियाँ प्रदूषित होती हैं, जो आहार योग्य नहीं है। इनके खाने से नाना किस्म की बीमारियाँ पनप रही हैं। भोपाल के आसपास की स्थिति इस समय बदतर हो गई है।।
जल संकट के निवारण का उपाय है – जल का जितना जरूरी हो, उतना ही उपयोग, जल को यूँ ही बहने से रोकना, जल स्रोतों की नियमित रूप से सफाई, औद्योगिक स्रोतों से निकलनेवाले कचरे का शुद्धीकरण करने के बाद ही उसे जलस्रोत में छोड़ा जाए। ये उपाय भी बहुत कारगर नहीं हो पायेंगे। यदि हम जल को बचायेंगे नहीं। आज आप जल बचाएँगे तो कल जल आपको बचायेगा। सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर बड़ी नदियों तथा अन्य जल स्रोतों की सफाई करके उन्हें बचाने का कार्यक्रम शुरू हुआ है पर उसमें हमें आशानुरूप सफलता नहीं मिली है। इस पीढ़ी को जल बचाने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करना है ताकि आनेवाली पीढ़ी को जीवन के लिए जल उपलब्ध हो सके।
16. मेरी प्रिय पुस्तक – रामचरित मानस
पुस्तकें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र हैं। ये हमारे लिए सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक ज्ञान का साधन हैं। एक पीढ़ी द्वारा संचित उत्कृष्ट ज्ञान पुस्तकों द्वारा अगली पीढ़ी को पहुँचाने का काम पुस्तकों के माध्यम से होता है। कुछ पुस्तकें एक-दो बार पढ़ने के बाद उन्हें दुबारा पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जब कि कुछ पुस्तकें हमें बार-बार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती है। मैं जिस पुस्तक की बात कर रहा हूँ वह है गोस्वामी तुलसीदासरचित – ‘रामचरित मानस।’
बचपन से ही रामचरित मानस को सुनने का मुझे सौभाग्य मिला। मेरी दादी प्रतिदिन रामचरित मानस का एक अंश पढ़ती थीं, हम बैठकर उसे सुनते थे। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती गई, समझ में आया कि यह केवल एक किताब नहीं है बल्कि हमारे जीवन व्यवहार का संविधान है। माँ के प्रति बालक के कर्तव्य, भाई-भाई का प्रेम, पति-पत्नी का आदर्श संबंध, मित्रता, राजा-प्रजा के अधिकार एवं कर्तव्य सभी का एक उदार आदर्श रूप रामचरित मानस में मिलता है। यही कारण है कि यह ग्रंथ उत्तर भारत के लगभग प्रत्येक हिन्दू के घर में मिलता है। इस काव्यग्रंथ को एक धर्मग्रंथ का-सा दरजा मिला है।
इस ग्रंथ के रचयिता तुलसीदास जीने राम के चरित्र का आलेखन ‘स्वांतः सुखाय’ किया है। मूलकथा वाल्मीकि रामायण से ग्रहण किया है, किन्तु उसमें अपनी रुचि, परिस्थिति के अनुरूप परिवर्धन, परिमार्जन किया है। तुलसीदासजी इसमें ‘नाना पुराण निगमागम’ का सार देना चाहते हैं। इस उद्देश्य से राम के चरित का आलेखन किया है। इस ग्रंथ की भाषा अवधी है, किन्तु प्रत्येक सर्ग (कांड) के आरंभ में संस्कृत के श्लोक हैं। यानी तुलसीदास जी चाहते तो इसे संस्कृत में भी लिख सकते थे, किन्तु उन्होंने इसे अवधी में लिखकर इसे लोगभोग्य बनाया।
रामचरित मानस सात कांडों (सर्गों) में विभाजित एक सुबद्ध महाकाव्य है। बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड, उत्तरकांड। तुलसीदास कथा के साथ-साथ स्थलविशेष की महिमा, ऋतुओं का वर्णन, मानवचरित्रों के गुण-दोष का आलेखन भी करते गए हैं। प्रत्येक पाठक को इसमें उसकी रुचि के अनुकूल सामग्री मिल ही जाती है।
रामचरित मानस आदर्श की स्थापना का महाकाव्य है। इससे प्रभावित होनेवाले व्यक्ति रामचरित मानस के नायक ‘राम’ से अवश्य प्रभावित होता है और जीवन में उनके सद्गुणों को आचरण में लाने का प्रयास करता है, इसी तरह ‘सीता’ का आदर्श चरित्र भी महिलाओं को अपार प्रेरणा देता है। भाषा की सुबोधता तथा सहज ग्राह्यता इसकी उपादेयता में कई गुना वृद्धि करता हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। इस ज्ञान के ग्रंथ को हमें भक्तिपूर्वक पारायण करना चाहिए।
17. भारतीय किसान की दशा
कहने को तो हम भारतीय किसान जगत का तात तथा अन्नदाता जैसे आदरसूचक शब्दों से उसका परिचय हैं। इसमें वास्तविकता भी है। किसान ग्रीष्म-वर्षा-ठंड की परवाह किये बिना खेती में कठोर परिश्रम करके अन्न तथा फल-सब्जी-दूध आदि भोजनोपयोगी सामग्री का उत्पादन करके लोगों तक पहुँचाने का काम करता है, इस अर्थ में वह अन्नदाता तो है ही। किन्तु आज भारतीय किसान की क्या हालत है, इसका पता आपको समाचारों में किसान आत्महत्या की खबरों से चल जाता होगा। किसान की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण है, उस पर बढ़ता कर्जा यानी कुल मिलाकर देखा जाय तो भारतीय किसान की वर्तमान दशा असंतोषजनक है।
भारतीय किसान की असंतोषजनक होने के कई कारण हैं, उनमें से एक है भूमि का असमान वितरण। भारत में बड़े, मझोले तथा लघुस्तर के किसान तो है ही, साथ ही भूमिहीन किसान भी हैं जो दूसरे की जमीन भाड़े पर या बटाईदारी में लेकर खेती करते हैं। वस्तुओं की महँगाई तथा मजदूरी में बेतहाशा वृद्धि से कृषि की लागत में वृद्धि हुई है। खाद, बीज, सिंचाई, जुताई महँगी हो गई है। परिश्रम से खेती करके फसल उगाने के बाद भी किसान को उसकी लागत भी नहीं मिल पाती। किसानों को आंदोलन के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। किसान को मंडी में औने-पौने दाम पर अपनी चीजें बेचनी पड़ती है। उसने कृषि साधनों या खादबीज आदि के लिए जो ऋण लिया होता है, उसे चुकाना असंभव हो जाता है। लेनदार बैंकों के तगादे पर तगादे उसे बेचन कर देते हैं। पुरानी कहावत है ‘किसान कर्ज में जन्म लेता है और कर्ज में ही मर जाता है।’
प्रकृति भी कभी-कभी किसान का साथ नहीं देती। अधिकांश भारतीय कृषि वर्षा पर आधारित है, जो समय पर न होने से या तो पिछड़ जाती है और उत्पादन कम होता है अथवा हो-ही नहीं पाती। कभी अतिवृष्टि, ओला-पत्थर आदि के कारण फसल नष्ट हो जाती है या खराब हो जाती है, जिसका उचित मूल्य बाजार में नहीं मिल पाता। हमारी व्यवस्था कुछ ऐसी है कि जैसे ही किसान के घर में अनाज या दूसरे उत्पादन पहुँचते हैं, मंडियों में उनका दाम गिर जाता है। भंडारण की समस्या से जूझ रहा किसान अपना माल मंडी के हवाले कर देता है और कभी-कभी तो गुस्से में यूँही सड़क पर छोड़कर अपना आक्रोश तथा हताशा व्यक्त करता है।
कभी निम्नकोटि के बीज किसानों को वितरित किये जाते हैं, जिससे उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है। किसान कहाँ जाए, शिकायत करने। सरकारों के कानों पर जू तक नहीं रेंगती। हालांकि सरकार कुछ उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है, किन्तु वह मूल्य भी किसानों को नहीं मिल पाता। अधिकारियों-कर्मचारियों तथा व्यापारियों की सांठ-गांठ से किसान ठगा जाता है। सरकारें बार-बार कर्ज माफी की घोषणा करती हैं, किन्तु उसकी शर्ते भी किसानों को ऋणमुक्त नहीं करा पाती .। ‘फसल बीमा योजना’ की बहुविज्ञापित वास्तविकता यह है कि किसानों को बीमा की रकम के रूप में 50 पैसे, रुपए – दो रुपये या 10 रुपये से कम के चेक किसानों को मिलते हैं। यह अन्नदाता के साथ कैसा भद्दा मजाक है।
सरकारें वचन देती है – स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का किन्तु उनकी नियत साफ नहीं है। उसमें लागत मूल्य पर 50% लाभ की गणना करने का प्रावधान है किन्तु धूर्त अफसरशाही लागत मूल्य की व्याख्या ही बदल देती है, जिसमें भूमि की लागत तथा किसान का श्रम नहीं गिनने का उपक्रम करके किसानों के साथ धोखा होता है। जब किसान सरकारी खरीद केन्द्रों पर अनाज लेकर पहुँचता है, तो बोरे नदारद। खुले में माल रखकर हानि उठाने के अलावा उसके पास कोई चारा ही नहीं बचता।
कहाँ तक गिनाया जाय। गन्ना किसानों का वर्षों का बकाया चीनी मिलों पर चढ़ जाता है और जब तक सरकारें चीनी मिलों को कोई पैकेज घोषित नहीं करती तब उसमें की थोड़ी राशि भी नहीं मिल पाती है। अन्नदाता त्राहिमाम पुकार जाता है। परिवार की दुरावस्था देखकर हताशा में वह आत्महत्या जैसा कदम उठाकर अपने आप को स्वयं दंडित करता है। किसानों की दशा के सुधार के लिए यदि ठोस कदम शीघ्र न उठाए गए तो यह हालात दिन-पर-दिन बदतर होते जाएँगे।
18. बेरोजगारी की समस्या
व्यक्ति अपने परिवार के पालनपोषण के लिए कोई न कोई आर्थिक प्रवृत्ति करता ही है, फिर वह चाहे मजदूरी, खेती, कल-कारखाने में अथवा सरकारी-गैरसरकारी संस्थान में छोटी या बड़ी नौकरी है। वह स्वरोजगार-जैसे लुहारी, बढ़ईगिरी जैसी कारीगरी से अर्थोपार्जन करके घर-परिवार चलाता है अथवा छोटी-मोटी दुकानदारी से अथवा फल-सब्जी आदि बेचकर या चाय-पान की रेहड़ी लगाकर। ये तथा ऐसे ही अन्य काम व्यक्ति का रोजगार कहलाते हैं।। तकनीकी दृष्टि से काम करना चाहनेवाले व्यक्ति को योग्यता के मुताबिक काम न मिलना ही बेरोजगारी है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मौसमी कामधंधे या मजदूरी करते हैं और कुछ समय के लिए उनके पास कोई काम नहीं होता। ऐसे व्यक्ति अर्धबेरोजगार कहलाते हैं। हमारे देश में पूर्ण बेरोजगार तथा अर्ध बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
हमारे यहाँ बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण जनसंख्या का विस्फोट है। सरकारी या गैरसरकारी क्षेत्र में जितने रोजगार का सृजन होता है उसके हजारों गुना लोग बेरोजगार होते हैं। इस कारण कभी-कभी उच्च योग्यता वाला व्यक्ति भी निचले दरजे की नौकरी में लग जाना चाहता है। छोटा-मोटा रोजगार-धंधा या मजदूरी करके परिवार के लिए आर्थिक उपार्जन करता है। बेरोजगारी का एक बहुत बड़ा कारण हमारी शिक्षा या गिरता स्तर भी है, जिस कारण हमें योग्य व्यक्ति नहीं मिलते हैं और डिग्रीधारियों की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती है और नई नौकरियाँ ऊँट के मुँह में जीरा सिद्ध होती है। शारीरिक श्रमवाले कामों के प्रति तिरस्कार का भाव भी कम नहीं है। आज का नौजवान खेती, पशुपालन का व्यवसाय करने की अपेक्षा चपरासी या चौकीदार की नौकरी के लिए लालायित दिखता है। स्वरोजगार या औद्योगिक साहस का अभाव भी बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है। इसके साथ ही अकुशल या अर्धकुशल लोगों की बहुतायत भी बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है।
बेरोजगारी अपने आप में तो समस्या है ही साथ ही वह अपने स्थान अनेक नई समस्याओं को भी जन्म देती है। इनमें सबसे प्रमुख है भुखमरी। बच्चों को शिक्षा न दिलाकर काम पर भेजने को मजबूर लोगों को आपने देखा होगा। बेरोजगार व्यक्ति के परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने से वह बीमारियों, तनाव का भोग बनता है। नौयुवक और गैरकानूनी कार्य करने लगते हैं, कभी-कभी तो देश के विरुद्ध-कार्य भी वे करते हैं। यूँ कहा जाय तो बेरोजगारी केवल एक समस्या है पर ध्यान से देखें तो यह अनेक समस्याओं की जननी है।
बेरोजगारी की समस्या का हल क्या है ? इसका कोई तात्कालिक अल्पकालीन समाधान संभव नहीं है। व्यक्ति स्वरोजगार की ओर बढ़े तभी कुछ राहतजनक स्थिति निर्मित हो सकती है। पढ़ा लिखा व्यक्ति व्यावहारिक ज्ञान तथा कार्य-कुशलता (Work – Skiil) प्राप्त करे तो कहीं रोजगार-धंधा मिल सकता है। सरकारों से आशा रखना की वे सबको नौकरी दे सकेंगी यह पूर्णवाली नहीं है। पढ़ाई करनेवाले भली-भाँति अच्छी शिक्षा प्राप्त करें तो आज के स्पर्धात्मक दौर में कहीं टिक सकेंगे अन्यथा नहीं।
19. स्वच्छ भारत – स्वस्थ भारत
गंदगी रोगों की जन्मदात्री है, यह सभी समझदार व्यक्तियों को मालूम है। इसके विरुद्ध स्वच्छता हमें अनेक रोगों से बचाती है। हर युग में समाज सुधारकों ने स्वच्छता पर बल दिया है। हमारे वर्तमान लोकप्रिय प्रधानमंत्री जीने स्वच्छता अभियान को एक आंदोलन का रूप दिया है, जिसका नाम है – स्वच्छ भारत – स्वस्थ भारत। निकट अतीत में गांधीजी ने रचनात्मक कार्यक्रम में आजादी के पूर्व स्वच्छता आंदोलन का प्रसार किया था, उसी से प्रभावित है, यह नारा।
अपने घर-गाँव-शहर के साथ सार्वजनिक स्थानों की सफाई के लिए भी सबको प्रोत्साहित किया है। गाँवों में खुले में शौच न करने के लिए केवल बातें ही नहीं कीं अपितु गाँव-गाँव में घर-घर में शौचालय बनवाने के लिए हर व्यक्ति को पूर्ण आर्थिक सहायता प्रदान की है। इससे खुले में शौच जाना महद् अंश तक रूका है, वातावरण को स्वच्छ बनाने में मदद मिली है।
गंगा की सफाई का महाभियान चल रहा है, तो समुद्र तथा पर्वतों से कचरे को हटाने का अभियान भी जोरों पर है। ये अभियान केवल सरकार नहीं चला रही अपितु समग्र निवासी इसमें शामिल हैं। इन्हें प्रोत्साहित करने का काम हमारे लोकप्रिय खिलाड़ी, नेता, अभिनेता, बुद्धिजीवी सभी कर रहे हैं। एवरेस्ट पर्वत शिखर के सफाई का अभियान का एक चरण अभी पूरा हुआ है। इसी तरह गंगा ही नहीं, अपितु अन्य नदियों की सफाई में भी लोग लगे हैं। जल प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए कल-कारखानों द्वारा छोड़े जानेवाले प्रदूषित जल को शुद्ध करने की व्यवस्था की जा रही है, किन्तु अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि औद्योगिक इकाइयों इसमें पूर्ण सहयोग नहीं कर रही हैं।
अभी-अभी पता चला है कि औद्योगिक प्रदूषित जल से भोपाल के आसपास की भूमि भी प्रदूषित हो चुकी हैं। इनमें उगनेवाली सब्जियाँ भी प्रदूषित हैं और गंभीर रोगों का कारण बन रही हैं। यही दशा सभी बड़े नगरों के आस-पास के गाँवों की है। पीने तथा इस्तेमाल के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था एक भगीरथ कार्य है। हवा-पानी-भूमि के प्रदूषण के कारण जनस्वास्थ्य के सम्मुख भयंकर खतरे उपस्थित हैं। इस कारण इन्हें दूर करने, रोकने तथा कम करने की और सबका ध्यान गया है। स्वास्थ्य के लिए यह एक गंभीर चुनौती है।
बढ़ते शहरीकरण ने शहरों के अंदर तथा आसपास मलिन बस्तियों का प्रसार किया है, जिनमें जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं – हवा, पानी, सड़क आदि का अभाव है। इस तरह के आवासीय प्रदूषण से वहाँ रहनेवाले गरीब लोगों का स्वास्थ्य-स्तर गिरा है साथ ही शहरों में प्रदूषण भी बढ़ा है। इनमें भी सुधार की अत्यंत जरूरत है।
शहरों में दोपहिए तथा चार पहियेवाले वाहनों की संख्या में वृद्धि तेजी से हुई है, जिससे वायु प्रदूषण के साथ ही ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ा है। ध्वनि प्रदूषण के बढ़ते स्तर के कारण बहरेपन का खतरा भी दिखाई दे रहा है।
समग्रतया देखें तो जल, वायु, भूमि के प्रदूषण को रोकने पर ही स्वच्छता हो सकती है। स्वच्छ वातावरण अच्छे स्वास्थ्य की अनिवार्य शर्त है, यह हमें भूलना नहीं चाहिए। ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क वास करता है।’
20. गणतंत्र दिवस (26 जनवरी)
प्रत्येक राष्ट्र में सामाजिक, धार्मिक त्यौहारों या पर्वो के साथ कुछ राष्ट्रीय पर्व भी मनाए जाते हैं। 1947 में स्वतंत्रता मिलने पर स्वाधीनता दिवस (15 अगस्त) हमारा पहला राष्ट्रीय पर्व बना। राष्ट्रीय पर्यों का एक ऐतिहासिक संदर्भ होता है। भारत के राष्ट्रीय पर्यों में गणतंत्र दिवस का अत्यंत महत्त्व है, जिसे हम प्रतिवर्ष 26 जनवरी को मनाते हैं।
यूँ तो भारत देश 15 अगस्त, 1947 को ही आजाद हो गया था किन्तु वह आजादी अधूरी थी क्योंकि उस समय तक देश का कोई अपना संविधान नहीं था। संविधान सभा के गठन के पश्चात् नवम्बर, 1949 में हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ। इस संविधान को पूर्ण स्वराज्य की माँग (1930) वाले लाहौर अधिवेशन की याद में 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। इसीलिए हम प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं।
गणतंत्र दिवस भारत में तो बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है, साथ ही विश्व में जहाँ कहीं भी भारतीय रहते हैं वहाँ भी बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। सरकारी स्तर पर मुख्य आयोजन राजधानी दिल्ली में नई दिल्ली के इंडिया गेट के निकट इसका भव्य आयोजन होता है। इस दिन भारत के महामहिम राष्ट्रपति पहले ध्वजारोहण करते हैं तथा सेना के तीनों अंगों की सलामी लेते हैं। सैनिक परेड में अस्त्र-शस्त्र का प्रदर्शन किया जाता है। देश के राज्यों की झाँकियाँ राजपथ पर निकलती हैं। स्कूल-कॉलेजों से चुने हुए एन.सी.सी. कैडेट्स भी परेड में शामिल होते हैं। देश के विभिन्न कोने से आए लोक कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।
राज्य सरकारें भी अपनी-अपनी राजधानी में अर्धसैनिक बलों, पुलिस तथा स्कूली छात्रों की परेड का आयोजन करती हैं। राज्यपाल महोदय ध्वजारोहण करते हैं। शहरों तथा गाँवों के स्कूल-कॉलेजों में भी यह दिवस अत्यंत उल्लास के साथ मनाया जाता है। ध्वजारोहण के पश्चात् अतिथि का अभिभाषण होता है। तत्पश्चात् सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। कॉलेजों में एन.सी.सी. के कैडेट्स ध्वज को सलामी देते हैं।
राजधानी दिल्ली के भव्य आयोजन को देखने के लिए अपार जनसमूह एकत्र होता है। यही हाल राज्य तथा जिला एवं ग्राम स्तर के आयोजनों का होता है।
गणतंत्र दिवस हमें एक प्रभुत्त्वसंपन्न राष्ट्र के नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों की याद दिलाता है तथा उन शहीदों का स्मरण कराता है जिन्होंने अपना बलिदान देकर हमें यह अमूल्य स्वाधीनता दिलाई तथा एक गणतंत्र के निर्माण भगीरथ कार्य किया है। हमें भी राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन सर्वोत्कृष्ट ढंग से करने के लिए सदैव तत्पर रहना पड़ेगा। संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों की रक्षा तथा कर्तव्यों का पालन करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है।
21. बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ
भारत के सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए हमारे वर्तमान लोकप्रिय प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्रभाई मोदी ने सत्तासीन होने पर यह नारा दिया – बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।
पिछले कई दशकों में भारत में स्त्री-पुरुष की संख्या का अनुपात जिस तेजी से विषम हुआ है, यह स्थिति पूरे उत्तर और मध्य भारत की है। पंजाब, हरियाना, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात तथा मध्य प्रदेश में जन्मदर में बालिकाओं का अनुपात घटा है। इसका सबसे बड़ा कारण हमारी मानसिकता है, जो बालिका के जन्म को भार समझती है। स्त्री गर्भ का भ्रूण परीक्षण करवाकर उसे नष्ट कराने का उपक्रम सामान्य जन द्वारा निकट अतीत में हो रहा है। परिणामस्वरूप आज स्त्रियों की जनसंख्या में कमी आई है। इसी को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री ने हरियाणा से इस आंदोलन का शुभारंभ किया। प्रसिद्ध सिनेतारिका माधुरी दीक्षित इसकी ब्रांड अंबेसडर हैं। बेटी बचाओ के संदर्भ गर्भवती महिलाओं का उचित पोषक खुराक और डॉक्टरी सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। ग्राम स्तर से शुरू करके जिला स्तर पर इसकी देखरेख की जा रही है। बालिकाओं की जन्मदर में होनेवाली कमी को रोकने तथा उनके जन्म को प्रोत्साहित करके ‘बेटी बचाओ’ का कार्यक्रम पूरा किया। जा सकता। साथ ‘बचाओ’ के अंतर्गत उसके उत्तम लालन-पालन, शिक्षा व्यवस्था को भी शामिल किया गया है। उनके पालन-पोषण में लिंग संबंधी भेदभाव न हो, इसका भी ध्यान रखना है। यह छोटी-सी पहल, एक बहुत बड़े परिवर्तन का आगज है।
‘बेटी पढ़ाओ’ रूढिगत मानसिकता पर प्रहार है जो बेटी को केवल चूल्हा-चौके तक सीमित करने की हिमायत करती है। बालिकाओं को शिक्षा सुचारु ढंग से दी जाए ताकि उनका व्यक्तित्व सर्वांगीण विकास हो और वे समाज तथा देश के नवनिर्माण में नये सिरे से जुट जाएँ। भारतीय युवती जीवन के हर क्षेत्र में आगे निकलने को तत्पर है। उसको उच्च शिक्षा मिले तो. वह राज्य तथा देश के लिए नीति निर्धारण में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकती है।
आइए, हम सब मिलकर यह शपथ लें कि भ्रूण का परीक्षण नहीं करवायेंगे, न ही स्त्री भ्रूण का गर्भपात करवाएँगे। उसका लालनपालन अच्छी तरह करके, उसे यथाशक्ति उत्तम शिक्षा दिलायेंगे। उसके सर्वांगीण विकास के लिए सदा प्रयत्नशील रहेंगे। तब प्रधानमंत्री का यह नारा सार्थक होगा और देश की सामाजिक कुरीतियों का विनाश होगा।
22. स्मार्ट फोन
समकालीन समय में विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी ने जिन अद्भुत उपकरणों का आविष्कार किया है, उनमें से एक है स्मार्ट फोन। यह भी एक तरह मोबाइल फोन है जो अन्य संचार सुविधाओं से लैस होकर स्मार्ट बन गया है।
स्मार्ट फोन ने जनसंचार की दुनिया में क्रांति ला दी है। अब यह केवल संदेश या समाचार के आदान-प्रदान या नये-पुराने गानों सुनने का साधन नहीं है बल्कि सूचनाओं, चित्रों डीवीडी को शीघ्रता से आदान-प्रदान का विशिष्ट उपकरण बन गया है। इंटरनेट से जुड़कर यह भी कम्प्यूटर के सारे काम करता है। इस तरह यह एक अत्यंत उपयोगी डिवाइस हो गया है।
ई-मेल, फोटो-फिल्म का आदान-प्रदान तत्काल संभव बना है। लोगों के बीच शीघ्रता से समाचार का विश्वसनीय साधन है।
इतना ही नहीं ऐसे फोन से आप अपनी विविध विषयों की पुस्तकें पीडिया फॉर्म में डाउनलोड कर सकते हैं और अपनी इच्छा एवं सुविधा के मुताबिक उन्हें पढ़ सकते हैं। स्मार्ट फोन द्वारा इंटरनेट के माध्यम से तरह-तरह की सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इसकी मदद से फोटा खींचना, प्रिंट निकाला, आँकड़ों (डाटा) का संकलन, संयोजन, प्रोजेक्ट बनाने का काम आसानी से हो सेकता है। स्मार्टफोन के वॉट्स एप तथा फेसबुक का उपयोग करके देश-विदेश में बसे अपने परिचितों-मित्रों के संपर्क में रहते हैं।
यह तो स्मार्ट फोन का शुक्ल पक्ष। जहाँ इससे अनेक लाभ हैं वहाँ हानियाँ भी कम नहीं हैं। विशेषकर माध्यमिक कक्षाओं का छात्र वर्ग इसके दुष्प्रभावों से अनजान होने के कारण स्मार्ट फोन के चंगुल में फँस कर अपना कीमती समय सोशल मीडिया को देखने में बरबाद करता है। स्मार्ट फोन इनके लिए स्टेटस सिंबल बन गया है। स्मार्ट फोन पर उपस्थित कतिपय ऊल जलूल फिल्में, पॉर्न संदेश आदि में उनको इतना तो आनंद आता है कि वे अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर स्मार्ट फोन के पीछे अपना कीमती समय बरबाद करके अपने भविष्य को जोखिम में भी डालते हैं। इससे उनके स्वास्थ्य तथा पढ़ाई पर भी गहरा दुष्प्रभाव पड़ता है। स्मार्ट फोन के कारण किशोर-अपराध में वृद्धि हुई है।
किसी भी वस्तु का अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर रहने में हैं। स्मार्ट फोन भी विज्ञान का अद्भुत वरदान है, इसका दुरुपयोग इसे अभिशाप बना सकता है। छात्रों को विशेष रूप से टीन-एजर्स को इसके उपयोग में अत्यंत सावधानी रखनी चाहिए।
23. इंटरनेट (आंतर-जाल)
‘इंटरनेट’ में इंटर का अर्थ है आंतरिक और नेट का अर्थ है – जाल। यानी इंटरनेट अर्थात् आंतरिक जाल; यह जाल सिर्फ कम्प्यूटर का है। कम्प्यूटर मात्र गणनाकार्य ही नहीं करता अपितु विभिन्न प्रकार की जानकारी को अपनी मेमॉरी में संग्रह करता है। इस संग्रहित सूचना के आदान-प्रदान के लिए कम्प्यूटरों को परस्पर में रहने की व्यवस्था ही इंटरनेट है। मानव जाति के लिए यह एक अद्भुत उपहार है।
इंटरनेट विविध क्षेत्रों की ढेर सारी सूचनाओं को अपने अंदर समेटे हुए है। यह सामान्य आदमियों तथा विशिष्ट विषयों या क्षेत्रों में काम करनेवाले, दोनों के लिए समान रूप से उपयोगी है। आज इंटरनेट आवश्यकता से आगे बढ़कर अनिवार्य बनता जा रहा है। अब यह महानगरों, शहरों की परिधि को तोड़कर कस्बों तथा गाँवों तक पहुँच गया है। कम्प्यूटर की अनुपस्थिति में स्मार्ट फोन या मोबाइल फोन के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग हो रहा है।
इंटरनेट की मदद से विश्व के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति संसार में अन्यत्र हो रही गतिविधि की जानकारी कुछ सेकंड में प्राप्त कर सकता है। इंटरनेट की मदद से लोग चर्चा-विचार कर सकते हैं। इसके सामने अन्य साधन बौने सिद्ध हुए हैं। सूचनाओं का यह भंडार अजोड़ है।
इंटरनेट का उपयोग अत्यंत व्यापक तथा विशद रूप में हो रहा है। यात्रा टिकटों की बुकिंग, बैकिंग कार्यों, कार्यालयीन पत्रव्यवहार, ताजा समाचार जानने या समाचार पत्रों को पढ़ने के साथ ही इंटरनेट पर कविता, कहानी, चुटकुले पढ़ सकते हैं। मनचाही फिल्में देख सकते हैं, गीत सुन सकते हैं। टी.वी. के कार्यक्रम देख सकते है। इंटरनेट ने सूचना संचार की दुनिया में क्रांति ला दी है। उपयोगिता तथा लाभ की दृष्टि से यह किसी वरदान से कम नहीं है।।
जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह इंटरनेट से प्राप्त सामग्री का भी कृष्ण पक्ष है। इसका दुरुपयोग करके सांप्रदायिक दंगे भड़काने, जातिगत विद्वेष बढ़ाने, वर्ग-विग्रह पैदा करने का कार्य पिछले कुछ वर्षों में भारत में भी हुआ है। इंटरनेट द्वारा नाना प्रकार की अफवाहें जंगल की आग की तरह फैलती है। इतना ही नहीं अवयस्कों (मानसिक रूप से) द्वारा इसका उपयोग बीभत्स दृश्यों, अश्लील फिल्में देखने से उनमें विकृति का आना और फैलना स्वाभाविक है। इसलिए इंटरनेट का इस्तेमाल किन चीजों के लिए करना है इसका विवेक उपयोगकर्ता को होना चाहिए, अन्यथा उसके लिए अभिशाप भी सिद्ध हो सकता है।
इंटर हर आयु वर्ग के व्यक्ति के लिए उपयोगी है। यह उपयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि वह उसका कितना सदुपयोग करके अपने विकास में उसका लाभ उठाता है। यदि कोई व्यक्ति इसका दुरुपयोग करता है, तो इसमें इंटरनेट का तो कोई दोष नहीं ही है, दोष है उपयोग करनेवाले की मानसिकता का।।
24. समाचारपत्र और उसकी उपयोगिता
जैसा की नाम से ही पता चलता है कि समाचार पत्र समाचार देनेवाला पत्र है। मुद्रण प्रथा के अस्तित्व में आने के साथ ही समाचारपत्रों का अस्तित्व संभव हुआ। भारत में समाचार का उद्भव सर्वप्रथम बंगाल में हुआ। समाचार पत्र लोकइच्छा-आकांक्षा तथा जिज्ञासा की तृप्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन हैं। कहा है –
इस अँधियारे विश्व में दीपक है अखबार।
सुपथ दिखाये आपको, आँखि करत है चार।।
आज समाचारपत्र हमारे दैनिक जीवन का अंग है। प्रात: काल नित्य कर्म से निवृत्त होकर हर मध्यमवर्गी या उच्चवर्गी व्यक्ति समाचारपत्र को ढूँढ़ता है।
समाचारपत्र में क्या छापना है क्या नहीं, इसका निर्णय करनेवाला व्यक्ति संपादक कहलाता है। एक अच्छा संपादक जनानुभूतियों तथा विचारों को वाणी प्रदान करता है। वह प्रत्येक पृष्ठ की सामग्री के बीच समन्वय स्थापित करता है। उसका मुख्य दायित्व प्रथम पृष्ठ के समाचार शीर्षकों पर ध्यान देना तथा संपादकीय प्रस्तुत करना है।
संपादक के अधीनस्थ संवाददाता, विशेष संवाददाताओं, विभिन्न स्रोतों द्वारा सामग्री संपादक तक पहुँचाई जाती है। यह सामग्री संपादक के निर्देशानुसार विभिन्न पृष्ठों पर सज्ज की जाती है। समाचारपत्र में समाचारों के अलावा लेखों, संपादकीय, संपादक के नाम पत्र, पाठकों का कोना या इसी तरह के अन्य स्थायी कॉलम होते हैं, जो प्रतिदिन या सप्ताह के निश्चित दिनों में छापे जाते हैं। इस सामग्री के साथ विज्ञापनों का भी संयोजन किया जाता है। वास्तव में विज्ञापनों से होनेवाली आय ही समाचारपत्र के प्रकाशन का सबसे बड़ा आर्थिक साधन है।
संपूर्ण रूप से सुसज्ज समाचारपत्र वितरक द्वारा एजेंटों को पहुँचाया जाता है, जहाँ से वह गाँव-गाँव, शहर-शहर में लोगों तक हॉकर्स के माध्यम से पहुँचता है।
इस तरह से प्राप्त समाचार की सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि वह अपने आस-पास के जगत, प्रमुख राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा खेलकूद की घटनाओं से आपको परिचित कराता है। लेख-संपादकीय के माध्यम से वह जनमत को भी प्रभावित एवं प्रशिक्षित करता है। लोकमत के निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण उपादान होने के कारण ही उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। यह सरकारों के कामकाज पर बारीक नजर रखते हैं। इस तरह समाचार पत्र एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में आता है। पत्रकारिता के आरंभिक वर्षों में एक कहावत प्रचलित थी –
– ‘हो, तोप सामने तो अखबार निकालो।’
अखबार नीतियों-कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार ही नहीं करता, गलत नीतियों का वह विरोध भी करता है।
25. स्वदेश प्रेम (हमारा प्यारा भारत)
स्वदेश प्रेम यानी अपने देश से प्रेम, देश के प्रति निष्ठा, श्रद्धा का भाव। इसे एक अर्थ में राष्ट्रीयता भी कहा जा सकता है। एक हिन्दी कवि का कहना है –
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश से प्यार नहीं।
हमारा देश भारत है और हम सब भारतीय है। हमारा एक अत्यंत उज्ज्वल अतीत है। एक देश के रूप में भारत ने किसी भी देश पर आक्रमण नहीं किया है। उलटे हम पर सदियों पूर्व विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों ने हमले किए, किन्तु जो यहाँ आया यहीं का बनकर रह गया। हम एक सर्वसमावेशी देश हैं। इसीलिए रवीन्द्रनाथ ने इसे ‘मानवेर महासागर’ कहा था। हमारे यहाँ विविध धर्मों, संप्रदायों, जातियों-प्रजातियों के लोग रहते हैं। इस विविधता में एकता ही हमारी सबसे बड़ी पहचान है, शक्ति है। सदियों से मिलजुलकर रहनेवाली भारतीय प्रजा सहिष्णु है। सहिष्णुता ही भारतीयता की पहचान है।
हजारों वर्ष की गुलामी के बाद हमने अहिंसक संघर्ष से आजादी प्राप्त की। अहिंसा हमारे लिए स्वाभाविक धर्म है। हमें अपने अतीत पर गर्व है।
भारत हमारी मातृभूमि है। दुष्यंत-शकुंतला के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा है। त्याग-तपस्या की इस भूमि ने समूची मानवता के प्रेम-भाईचारा और संयम का संदेश दिया है। हमारा देश धर्म, संस्कृति और दर्शन का संगम तथा मानवता का पोषक है। इन्हीं विशेषताओं के कारण इकबाल ने कहा था – ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।’
हमारा देश उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तथा पूर्व में अरूणाचल-मिजोरम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ, दिखने में अलग-अलग लगता किन्तु एक है। हमारी भाषाएँ भले भिन्न हैं, वेशभूषा अलग-अलग हैं किन्तु इम सभी इस देश को अपना मानते हैं। यह हमारा स्वदेश है।।
हमारा स्वदेश भारत महापुरुषों की जन्मस्थली रहा है। ईश्वर ने यहाँ बार-बार अवतार लिया है। ऋषि-मुनियों की तपस्या से यह पवित्र बना है। हमें अपने देश पर गर्व है। हर निवासी स्वदेश के सम्मान की रक्षा के लिए अपने आप को न्योछावर कर देने के लिए सदैव तत्पर रहा है।
इस देश की सीमाओं की रक्षा करनेवाले हमारे वीर सैनिक किसी एक प्रांत, जाति, धर्म, भाषा के नहीं है, अपितु यहाँ की समस्त जातियों, धर्मों, भाषाओं तथा प्रांतों से चुनकर आते हैं। विविधता में सच्ची एकता की पहचान हमारी भारतीय सैन्य है। ये वीर सैनिक किसी भी शत्रु का सामना करने में सक्षम हैं और मौका आने पर अपना सर्वोच्च बलिदान देते हैं। यह उनका स्वदेश प्रेम ही है जो हमारे लिए गौरव और गर्व की बात है।