GSEB Class 11 Hindi Rachana रिपोर्ट लेखन (1st Language)

Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Hindi Rachana काव्य गुण-दोष-विवेचन (1st Language) Questions and Answers, Notes Pdf.

GSEB Std 11 Hindi Rachana रिपोर्ट लेखन (1st Language)

इस गद्यविद्या का संबंध भी मूलत: पत्रकारिता है।

रिपोर्ताज किसी घटना का आँखों देखा चित्रात्मक वर्णन है। रिपोर्ताज में कहानी के तत्त्व विद्यमान हो सकते हैं किन्तु वह काल्पनिक नहीं होता। घटना का सूक्ष्म विवरण तथा निजी प्रतिक्रियाएँ इसे लोकभोग्य, चित्रात्मक बनाती हैं। रिपोर्ताज में सामयिकता, सामाजिक सोद्देश्यता पर विशेष जोर रहता है।

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रिपोर्ताज किसी भी स्थिति का गतिशील चित्र प्रस्तुत करता है। इसके दृश्य चलचित्र की भाँति गतिशील तथा परिवर्तित होते रहते हैं। शैली की दृष्टि से रिपोर्ताज को – विवरणात्मक, विश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक तथा गहन-शोध रिपोर्ट जैसे भेदों में बाँटा जा सकता है।

आकार की दृष्टि से यह समाचार से बड़ा होता है। यदि रिपोर्ट ज्यादा बड़ी हो तो उसे कई दिनों तक शृंखलाबद्ध रूप में प्रकाशित करते हैं। जैसे ‘रेणु’ का ‘धनजल-ऋणजल’।।

आलेख लेखन – आलेख एक प्रकार के लेख होते हैं, जो प्रायः संपादकीय पृष्ठ पर ही प्रकाशित होते हैं किन्तु संपादकीय से इनका कोई सीधा संबंध नहीं होता। प्रायः विचार प्रदान, गद्यात्मक अभिव्यक्ति को आलेख कहते हैं। आलेख्न के मुख्य अंग हैं –

भूमिका (प्रस्तावना), विषय का प्रतिपादन – विश्लेषण, तुलनात्मक चर्चा और निष्कर्ष।

सर्वप्रथम विषयानुरूप शीर्षक देकर तदनुकूल भूमिका लिखी जाती है। भूमिका संक्षिप्त तथा प्रभावशाली होनी चाहिए। विषय प्रतिपादन में संबंधित समाचार के अनुरूप विषय का वर्गीकरण, क्षेत्र तथा आकार आते हैं। इनका क्रमिक, तारतम्यपूर्ण शृंखलाबद्ध विकास होना चाहिए।

वस्तु का विश्लेषण तुलनात्मक चर्चा में देते हुए अंत में विषय का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। इसके लिए संबंधित आँकड़ों तथा उदाहरणों का उपयुक्त संग्रह करना चाहिए। विरोधाभास, संदिग्धता, दुहराव तथा असंतुलन से बचना चाहिए:। आलेख की भाषा रोचक, सरल तथा बोधगम्य होनी चाहिए।

कुछ उदाहरण
फीचर लेखन (राजस्थान पत्रिका दि. 7 जुलाई, 2018 से साभार)

1. नर्मदा का चितेरा

– देवेन्द्र मेवाड़ी

अमृतलाल वेगड़ भले नब्बे की वय में थे, पर उनका जाना स्तब्ध कर गया। यायावरी में उनका जीवन निराला था। और वे इस बात की खुद मिसाल थे कि जुनून और समर्पण हो तो क्या-कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। उनकी शिक्षा-दीक्षा शांतिनिकेतन में कला संकाय में हुई। आचार्य नंदलाल बसु उनके गुरु थे। उन्होंने चित्रकला का अध्यापन भी किया। बाद में उन्होंने नर्मदा नदी की पैदल परिक्रमा का संकल्प ले लिया, जिसे वे लगभग तीस वर्ष तक पूरा करते रहे।

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नर्मदा से वे इतना जुड़ गए थे कि नर्मदा का धीर-गंभीर स्वभाव और निर्मलता उनकी अपनी पहचान बन गए थे। वे कहते थे, उन्होंने जीवन में जो कुछ अर्जित किया वह मां नर्मदा का ही दिया है। हंस कर कहते थे, ‘अगर सौ-दो सौ साल बाद कोई दंपती नर्मदा की परिक्रमा करता दिखाई दे, पति के हाथ में झाडू हो और पत्नी के हाथ में टोकरी और खुरपी, पति घाटों की सफाई करता हो और पत्नी कचरा ले जाकर दूर फेंकती हो, दोनों साथ-साथ पौधे रोप रहे हों तो समझ लीजिए वे हम ही हैं – कांता और मैं।’

नर्मदा के जल का संगीत उनके कानों में गूंजता था। नर्मदा की यात्रा में वे कहते थे, उन्होंने उसके किनारे बसे गाँवों में आम लोगों के हृदय का सौंदर्य देखा है। यानी यात्राओं में वे मानव स्वभाव का भी निकट से अध्ययन करते रहे। नदियों की वर्तमान स्थिति के बारे में उन्होंने दो टूक कहा कि हम सभ्य लोगों ने अपनी नदियाँ बुरी तरह मैली कर दी है।

अमृतलाल वेगड़ जी ने नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से लेकर भडूच में नर्मदा के सागर में समाहित होने तक की पैदल यात्राएँ की और इन यात्राओं के अद्भुत अनुभवों को पुस्तकों में संजोया। ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’, ‘अमृतस्य नर्मदा’ और ‘तीरे-तीरे नर्मदा’ उनकी चर्चित किताबें हैं।

‘नर्मदा रेखांकन’ में उनके अनोख्खे रेखांकन संयोजित है। अनेक कोलाज भी। उनकी पुस्तकों को हिंदी ही नहीं बल्कि अनुवाद में मराठी, गुजराती, बंगला और अंग्रेजी के पाठक वर्ग ने भी पढ़ा है। उनके यात्रा साहित्य को साहित्य अकादेमी ने भी सम्मान दिया।

भोपाल से मैं उनकी मधुर स्मृति लेकर दिल्ली लौटा। कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे अपनी नर्मदात्रयी की पुस्तकें सस्नेह भेंट के रूप में भेजी। यह उनके व्यक्तित्व और अदभत जीवन का ही प्रभाव था कि मैं भी यात्राओं के लिए प्रेरित हो उठा। बडे व्यक्तित्व की यही की होती है और उपलब्धि भी कि वह नई पीढ़ी को प्रेरणा देता चलता है।

वेगड़जी का लेखन, चित्रांकन, जीवन की सादगी और आस्थावान लम्बी यात्राओं का अनुभव संसार आनेवाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता रहेगा। यदि हम संविधान में संशोधन के माध्यम से सभी राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ करवाने की अनिवार्यता स्थापित कर देते हैं।

और अगर यह अनिवार्यता वैधानिक रूप से कायम नहीं की जाती है तो ऐसी कोई गारंटी नहीं हो सकती कि भविष्य में विधानसभाएँ या लोकसभा किसी भी स्थिति में समय से पूर्व भंग नहीं होंगी।

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2. सम्मिलित चुनावों का सवाल

– नंदकिशोर आचार्य

(साहित्यकार और विवेचक) सभी राज्यों की विधानसभाओं तथा लोकसभा के चुनाव एक साथ तभी सम्भव हो सकते हैं, जब राज्यों में राज्यपाल को नियुक्त किए जाने के बजाय उसका भी उसी तरह राज्य की सभी पंचायतों, नगर परिषदों और निगमों के सदस्यों और विधानमंडल द्वारा चुनाव किया जाए, जैसा राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति का होता है।

भा तथा राज्यों की विधानसभाओं के चनाव एक साथ करवाने का प्रस्ताव चर्चा में है। यह भी सझाया जा रहा है कि इसके लिए न केवल कछ विधानसभाओं या लोकसभा का कार्यकाल घट 5 लिए संविधान में संशोधन कर इस व्यवस्था को स्थायी रूप दिया जा सकता है। इस प्रस्ताव के समर्थ तरह के तर्क दिए जा सकते हैं।

सामान्य तौर पर इस प्रस्ताव का औचित्य समझा जा सकता है। दरअसल, संविधान के लागू होने के बाद हुए 1952 के पहले चुनावों में ऐसा हुआ था और यह परम्परा कुछ समय चली भी। लेकिन अनन्तर राज्य विधानसभाओं के तय समय से पूर्व भंग किए जाने, लोकसभा के 1971 के मध्यावधि चुनाव, फिर उसका कार्यकाल एक साल बढ़ाने के कारण न केवल विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे, बल्कि अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी अलग-अलग समय होने लगे।

यह प्रवृत्ति स्वायत्त शासन की स्थानीय संस्थाओं तक दिखाई देने लगी। नतीजतन अब कोई समय ऐसा नहीं रहा, जब किसी न किसी स्तर पर चुनाव की प्रक्रिया न चल रही हो।

कह सकते हैं कि यह एक तरह का वैधानिक कुप्रबंधन है। इसलिए कई लोगों को यह प्रस्ताव चुनावों को एक निश्चित ढरें पर लाने के लिए औचित्यपूर्ण लग सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी संविधान संशोधन के माध्यम से हमेशा के लिए ऐसा करना संभव और उचित होगा?

क्या ऐसा करना हमारी संघीय व्यवस्था और लोकतंत्र की दृष्टि से उचित माना जा सकता है? आखिर, शुरुआत जब एक-साथ के चुनावों से ही हुई थी, तो ऐसा क्यों हुआ कि वे अलग-अलग होने लगे? क्या यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि भविष्य में वैसी स्थितियाँ दोबारा पैदा नहीं होंगी?

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कांग्रेसी और गैर-कांग्रेसी दोनों ही तरह की केंद्र सरकारों ने अपने-अपने लाभ के लिए राज्यों की विधानसभाओं को समय-पूर्व भंग कर मध्यावधि चुनाव करवाए हैं। यदि एक बार हम यह मान भी लें कि भविष्य में वे ऐसा नहीं करेंगे, तो भी यह सवाल तो बना ही रहता है कि अगर किसी राज्य में बहुमत प्राप्त दल की सरकार किसी आंतरिक या बाह्य कारण से टूट जाती है और किसी नई सरकार के बनने की कोई सम्भावना नहीं बन पाती, तो उस राज्य को कब तक उस लोकतांत्रिक सरकार से वंचित रखा जा सकता है, जिसके लिए मध्यावधि चुनाव एक संवैधानिक अनिवार्यता हो जाता है?

हमारे संविधान की विचित्रता यह है कि यह पूरी तरह न एकात्मक है और न ही संघात्मक।
संविधान में भी ‘फेडरेशन’ की जगह ‘यूनियन’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है।

ऐसा लोकसभा के साथ भी हो सकता है और अतीत में हुआ भी है। 1977 में चुनी गई लोकसभा भंग कर 1980 में फिर चुनाव करवाने पड़े थे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को तेरह दिन में त्याग-पत्र देना पड़ा था। इसलिए ऐसा कोई भी संशोधन अनिवार्यता, अलोकतांत्रिक और संविधान की संघीय आत्मा के खिलाफ होगा जो एक साथ चुनाव के नाम पर राज्य या केंद्र में लोकतांत्रिक सरकार के बिना शासन की स्वीकृति देता हो।

लेकिन ऐसा करना अनिवार्य हो जाएगा, यदि हम संविधान में संशोधन के माध्यम से सभी राज्यों की विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ करवाने की अनिवार्यता स्थापित कर देते हैं।

और अगर यह अनिवार्यता वैधानिक रूप से कायम नहीं की जाती है तो ऐसी कोई गारंटी नहीं हो सकती कि भविष्य में विधानसभाएँ या लोकसभा किसी भी स्थिति में समय से पूर्व भंग नहीं होंगी और तब किसी राज्य या केन्द्र में मध्यावधि चुनाव टाले नहीं जा सकेंगे।

हमारे संविधान की विचित्रता यह है कि यह पूरी तरह न एकात्मक है और न ही संघात्मक। संविधान में भी ‘फेडरेशन’ की जगह ‘यूनियन’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जिसमें राज्यपाल के माध्यम से केंद्र राज्यों पर पूर्ण नियंत्रण रख सकता है। वह दरअसल. राज्य की चुनी हुई सरकार का केंद्र द्वारा नामांकित मुखिया होता है, जिसकी नियुक्ति, तबादला या कार्यकाल केंद्र के अधीन हैं।

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यह भी असंगत ही है कि राष्ट्रपति के चुनाव में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों के साथ विधानमंडलों के सदस्य भी हिस्सा लेते हैं और इस प्रकार सभी विधानमंडलों और संसद के दोनों सदनों के बहमत से चुना गया राष्ट्रपति केवल लोकसभा के साधारण बहुमत द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री और उसकी सरकार की सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य होता है। उसे उन विधानसभाओं को भंग करना पड़ता है, जिसके लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सिफारिश की हो।

दरअसल, सभी राज्यों की विधानसभाओं तथा लोकसभा के चुनाव एक साथ तभी सम्भव हो सकते हैं, जब राज्यों में राज्यपाल को नियुक्त किए जाने के बजाय उसका भी उसी तरह राज्य की सभी पंचायतों, नगर परिषदों और निगमों के सदस्यों और विधानमंडल द्वारा चुनाव किया जाए, जैसा राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति का होता है।

ऐसी स्थिति में किसी राज्य की विधानसभा के भंग होने की स्थिति में भी राज्यपाल द्वारा किया गया शासन, राज्य की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अधिक अनुरूप होगा और तब केवल राजनीतिक स्वार्थों की वजह से विधानसभाओं को निलम्बित या भंग किए जाने की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लग सकेगा।

kapiliour@dandiliour.com
राजस्थान पत्रिका – 7 जुलाई, 2018

रिपोर्ट

1. संकट में ऊंट

राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केन्द्र बीकानेर ने पिछले दिनों अपना 35वां स्थापना दिवस मनाया। यह सही है कि अनुसंधान केन्द्र के माध्यम से पिछले सालों में ऊंटों को बचाने व इनकी उपयोगिता को लेकर व्यापक शोध किए गए हैं। ऊंट पालकों और वैज्ञानिकों के बीच ऊंट की अन्य उपयोगिता पर भी बातचीत होती रहती है।

लेकिन जिस तरह से प्रदेश में ऊंटों की उपयोगिता कम होती जा रही है और इनकी संख्या में कमी होती जा रही है उसको देखते हुए अब इस दिशा में चिंतन की जरूरत है। इस प्रजाति को किस तरह से बचाया जाए इस पर अनुसंधान केन्द्र को और काम करना चाहिए।

हालांकि अभी ऊंटनी के दूध की डेयरी, ऊंट का पर्यटन में उपयोग आदि को आमजन के समक्ष रखा जा रहा है ताकि लोग ऊंटपालन की ओर आकर्षित हो। लेकिन ऊंट पालकों की आय में बढ़ोतरी के प्रयासों की भी दरकार है।

राज्य सरकार ने ऊंट पालक को आर्थिक सहायता का प्रावधान किया है। यही नहीं ऊंट की उपयोगिता बढ़ाने के लिए पर्यटन विभाग ऊंटों के नृत्य, ऊंट दौड़ एवं उष्ट्र सवारी से पर्यटकों को लुभाने की जतन कर रहा है।

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लेकिन यह भी सच है कि अब तक भले ही कितने ही प्रयास हुए हो, परन्तु रेगिस्तान का जहाज ऊंट संकट में ही है। इसे संकट से उबारने के लिए राजस्थान सरकार ने इसे राज्य पशु घोषित तो कर दिया पर ऊंट की घटती उपादेयता की चिंता नहीं की। कृषि उपयोग के साथ-साथ सुरक्षा दलों के जवान भी अब ऊंट का उपयोग कम करते जा रहे हैं। एक जमाना था जब पूरे रेगिस्तान में ऊंट के काफिले दिखाई देते थे।

ऊंटों का पालन करनेवाली राइका जाति के प्रत्येक पशु पालक के पास ऊंटों के टोले रहते थे। अब खेती, भार ढोने तथा यात्रा करने में ऊंटों की उपयोगिता कम हो गई है। खेती में ट्रेक्टर, भार ढोनेवाले वाहन और परिवहन सुविधाओं के विकास ने ऊंटों को अनुपयोगी बना दिया है।

स्थिति यह है कि राज्य में ऊंटों की संख्या तेजी से घटती जा रही है। पहले कभी जो लाखों की संख्या में थे अब राज्य में हजारों की संख्या में ही ऊंट रह गए हैं। ऊंटो की पड़ोसी राज्य और बांग्लादेश में मांस के लिए चोरी छिपे विक्रय किया जाने लगा है। सच पूछे तो ऊंटो का अस्तित्व संकट में आ गया है।

ऊंटनी के दूध की डेयरी व्यवसाय को संरक्षण की जरूरत है। ऊंटनी के दूध में रोग प्रतिरोधकता क्षमता साबित हो चुकी है। इसी वजह से बाजार में इस दूध की मांग बढ़ रही है। ऊंट से बनाई एन्टी वेनम से सांप के काटे का इलाज पर अनुसंधान हुआ है।

मधुमेह, थॉयराइड व कैंसर जैसे रोगों के उपचार की औषधि पर भी काम हो रहा है। एस.पी. मेडिकल कॉलेज, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र एवं अन्य संस्थाएँ इस दिशा में काम कर रही है। लेकिन ऊंटों को बचाने के लिए ऊंटपालक, समाज और सरकार के समन्वित प्रयासों की जरूरत है।

(राजस्थान पत्रिका – दैनिक) 7 जुलाई, 2018

2. गतिविधियाँ

दिनांक 22 फरवरी, 2015 को स्वयंसेवी संस्था ‘नेफोर्ड’ के तत्त्वावधान में डुमराव मोड़ (मऊ) पर वीररसावतार पं. श्यामनारायण पाण्डेय व शहीद पारसनाथ सिंह की स्मृति में प्रतिवर्ष की भाँति अखिल भारतीय कवि सम्मेलन एवं सम्मान-समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम दो सत्रों में विभाजित था। प्रथम सत्र सम्मान समारोह की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कन्हैया सिंह तथा संचालन हरेराम सिंह ने किया।

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इस सत्र में साहित्य सृजन के क्षेत्र में विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करानेवाले वरिष्ठ गीतकार रामेन्द्र त्रिपाठी तथा अपनी चिकित्सकीय सेवा एवं अन्य क्रियाकलापों द्वारा समाज सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान करनेवाले वरिष्ठ सल्यक् डॉ. एस. सी. तिवारी को वीररसावतार पं. श्यामनारायण पाण्डेय व शहीद पारसनाथ स्मृति सम्मान-2015, से अलंकृत किया गया।

नेफोर्ड निदेशक डॉ. रामकठिन सिंह प्रबन्धक मण्डल के दयाशंकर तिवारी, जन्मेजय सिंह, मृत्युन्जय तिवारी, डॉ. कमलेश राय तथा डॉ. कन्हैया सिंह ने अंगवस्त्रम्, स्मृति-चिह्न एवं प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया। नेफोर्ड प्रवाह मंच के अध्यक्ष सचिन्द्र सिंह तथा नेफोर्ड प्रभारी (मऊ) संतोष कुमार मिश्र ने प्रशस्ति-पत्र वाचन किया।

इस अवसर पर वक्तव्य देते हुए नेफोर्ड निदेशक डॉ. रामकठिन सिंह ने जनपदवासियों एवं ग्रामवासियों से अनुरोध किया कि नेफोर्ड के इस साहित्यिक सांस्कृतिक आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता करें ताकि इसे और बेहतर बनाया जा सके। कार्यक्रम के संयोजन में वरिष्ट चिकित्सक डॉ. एस. एन. खतत्री का सक्रिय सहयोग उल्लेखनीय रहा। द्वितीय-सत्र में कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ।

देश के प्रतिष्ठित कवियों-रामेन्द्र त्रिपाठी, हरिनारायण ‘हरीश’, के. के. अग्निहोत्री, डॉ. अनिल चौबे, शंकर कैमूरी, विनम्रसेन सिंह, वसीमुद्दीन जमाली, पूनम श्रीवास्तव, मधु राय, आदि ने अपनी श्रेष्ठ रचनाओं से कार्यक्रम को विशिष्ट गरिमा प्रदान की।

कार्यक्रम में डॉ. रामनिवास राय, ब्रिगेडियर पी. एन. सिंह, जयनारायण दुबे, देव भास्कर तिवारी, राजेन्द्र मिश्र सहित गाँव एवं जनपद के सुधी श्रोता उपस्थित रहे। अन्त में शब्दिता के संपादक डॉ. कमलेश राय ने सबके प्रति आभार व्यक्त किया।

दिनांक 22 मई, 2015 को नेफोर्ड द्वारा अमरवाणी विकलांग विद्यालय ताजोपुर (मऊ) में एक विराट किसान मेला का आयोजन किया गया। गाँवों और किसानों के उत्थान हेतु आयोजित इस किसान मेला की अध्यक्षता सूक्ष्मजीवी संस्थान, कुशमौर (मऊ) के निदेशक डॉ. ए. के. शर्मा तथा संचालन डॉ. मनोज सिंह, असिस्टेण्ट प्रो. फैजाबाद कृषि विश्वविद्यालय ने किया।

मुख्य अतिथि के रूप में भारत सरकार के कृषि सम्बन्धी स्थायी समिति के सदस्य सांसद विरेन्द्र सिंह ‘मस्त’ उपस्थित थे। निदेशक नेफोर्ड डॉ. रामकठिन सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया। मुख्य अतिथि श्री मस्त ने संस्था के कार्यों की सराहना की तथा हर स्तर पर सहयोग करने का आश्वासन दिया। इइस अवसर पर डॉ. कमलेश राय ने किसान गीत एवं ग्रामगीत प्रस्तुत कर कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।

डॉ. नवीन कुमार सिंह, डॉ. आर. के. सिंह सहित दर्जनों कृषि वैज्ञानिकों ने कृषि संबंधी जानकारियाँ दी। इस अवसर पर कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए उपकृषि निदेशक आसुतोष मिश्र तथा उत्कृष्ट किसान रमाकांत सिंह को संस्था द्वारा सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में किसान एवं अन्य विशिष्टजन उपस्थित रहे।

प्रस्तुति – संतोष मिश्र, प्रभारी, नेफोर्ड, मऊ
(शब्दिता पत्रिका से साभार)

आलेख

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जिन्हें भोजपुरी प्रिय है, उन्हें हिन्दी भी प्रिय है।

– अशोक द्विवेदी

आज दुनिया की बहुत-सी भाषाएँ या तो लुप्त हो चुकी है या मर रही है पर इसका यह मतलब नहीं कि जो किसी क्षेत्र-विशेष और वहाँ के जन-जीवन में जिन्दा है, उन्हें भी हम बेकार और मृतप्राय मान लें। बहुत-सी ऐसी लोकभाषाएँ हैं, जो अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताओं के साथ अपनी निजता को न केवल सुरक्षित रखे हुए हैं, अपितु सोच, संवेदनाओं और अनुभूतियों को सटीक और प्रासंगिक अभिव्यक्ति देने में भी सक्षम और शब्द-संपन्न है फिर भी उन्हें सम्मान सहित स्वीकारने में बहुतों को हिचक होती है, उनकी स्वाभाविकता गँवारू लगती है और भद्रजनों (?)

की अपनी अंग्रेजियत के आगे, उसकी संपन्नता उपेक्षित हो जाती है। ऐसे शिष्ट और नागर लोगों की जमात में, ‘लोक’ का अर्थ ही पिछड़ापन है, भले ही उसकी भाषा में बनावट मिश्रण और आडम्बर की जगह सहजता, मौलिकता और जीवंत सृजनशीलता क्यों न हो। ऐसे लोग अनेकता में एकता का गान भले करते हों, पर वे अपनी भाषा का वर्चस्व बनाए रखने के लिए अनेकता के अस्तित्व और उनकी निजता को नकारने में अपनी शान समझते है।

लोकभाषा उस दूब की तरह है जो अपनी मिट्टी को जकड़ कर पकड़े रहती है। वह अपने बोलने वालों की जीवन संस्कृति अपने भीतर आखिरी क्षणों तक बचाए रखती है। खुशबू के साथ उसको जीवन्त करती है। लोकभाषाओं का यही गुण-धर्म लोक की गतिशीलता और वैशिष्ट्य को पहचान देता है।

लोक का अन्तरंग उसकी भाषा में ही खुलता और खिलता है। अपने देश में कई ऐसी भाषाएँ हैं जिनमें अनुभव, बोध और ज्ञान की अभिव्यक्ति और संप्रेषण की अपार क्षमता है। वह परस्पर अन्य भाषाओं के साथ घुली-मिली भी है जैसे ब्रजी, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तिसगढ़ी, मैथिली अंगिका आदि।

इन सभी लोकभाषाओं ने परस्पर घुल-मिलकर जातीय विकास में सहायता देने के साथ राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत किया है पर जब इनकी निजता के सम्मान और न्यायसंगत समानता की बात आती है, तो कुछ राष्ट्रभक्तों (?) और हिन्दीवादियों को मितली आने लगती है।

ये वही हिन्दी प्रेमी लोग हैं, जिन्हें स्वयं हिन्दी की दुर्दशा की परवा नहीं रहती, जो अंग्रेजी को तो सम्मान देते हैं, पर अपने राष्ट्र की लोकभाषाओं को सम्मान देने में हाय तौबा मचाने लगते है। ऐसे भाषा के प्रति गंभीर दिखनेवाले लोग तब बिल्कुल विचलित नहीं होते, जब उनके ही शहर और देश में, उनके ही परिवार और समाज के लोग अपनी भाषा के प्रति लगातार अगम्भीरता का प्रदर्शन करते हैं। संवाद और जन-संचार के माध्यमों में भाषा को जिस रूप में लिखा जाना चाहिये, वैसा नहीं होने की वजहें है।

हम हों या हमारे युवा-हम बात-व्यवहार और अभिव्यक्ति में उसे बेहद चलताऊ बनाते जा रहे हैं। एक तरह से अपनी सुविधा और सहूलियत के साथ भाषा का अचार, मुरब्बा या चटनी बना लेना प्रचलन में है। ‘ह्वाटस एप’ और फेसबुकिया शार्टकट का प्रयोग मनमाना है।

हिन्दी को अंग्रेजी में लिखने का फैशन है। अब तो भोजपुरी भी रोमन में लिखी पढ़ी जा रही है। ‘एस एम एस’ और ‘मेल’ भाषा के प्रति हमारी लापरवाही और हड़बड़ी को अलग दर्शाते हैं। भाषा की प्रचलित व्यवस्था और नियम की मूल्यवत्ता की समाप्त कर दी जा रही है। उसके प्रवाह की धारा को ही बदल दिया जा रहा है।+

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अजब विसंगति है कि हमें हमारी मातृभाषा से विलग करने के सबक वे लोग सिखाते हैं जिन्हें राजभाषा और राष्ट्रभाषा के तिजारती, दफ्तरी और बाजारू घालमेल में बेपटरी होते जाने की तनिक भी चिन्ता नहीं। मीडिया, फिल्मों और नव कलाकारों के प्रयोगवादी लोग अपनी कमाई और चटखारेपन की तुष्टि के लिए, भाषा को जब जैसा चाहते हैं, तोड़ते-मरोड़ते रहते है और विज्ञापनों से लेकर साहित्य में भी भाषा की देशी-विदेशी खिचड़ी पकती रहती है।

भाषा को जीने और प्यार करनेवाले लोग तो पहले भी कुछ करने की स्थिति में नहीं थे और आज भी नहीं है और भाषा के ठेकेदार व्यापारी उसे खास फ्रेम से बाहर निकाल कर उसे नतन परिधान पहनाते हुए तालियाँ बजा रहे हैं। हिन्दी में घुस आए तकनीकी शब्दों की आड़ में न जाने कितने उटपटाँग देशी-विदेशी शब्द और वाक्य भाषा के जानकारों के लिए मनोरंजक है।

भाषा को हिंग्लिसियाते हुए जो नव-बाजारू भाषा व्यवहार में चलाई जा रही है, उसमें बोलियों का तड़का भी है। कुछ विद्वान इसे हिन्दी के बढ़ते ग्राफ से जोड़ते है, तो कुछ वैश्विक-विस्तार की जरूरत से।

सत्ता और राजनीति ने शिक्षा, संस्कृति और भाषा का ठेका कुछ खास संस्थाओं – अकादमियों और शिक्षण संस्थाओं के मत्थे मढ़कर पहले से ही अपना पल्ला झाड़ रखा है, कुछ साधन-संपन्न मीडिया चैनलों ने इसे अपने ढंग से हाँकना-डाकना शुरू कर दिया है।

करोड़ों की कमाई के लिए कुछ फिल्मकारों ने भी भाषा की ऐसी की तैसी करने की ठान ली है। भाषा के प्रति संजीदगी दिखाने और उसकी संरक्षा-सुरक्षा और प्रचार-प्रसार का समय किसी के पास नहीं है। सरकारी भाषा-संस्थानों की अपनी अकादमिक राजनीति और विवशताएँ हैं।

क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के अपने निहित स्वार्थ हैं। सत्ता सुख सुविधाएँ और पद हैं। हम स्वयं भी जातियों धर्मों क्षेत्रों और क्षेत्रीय गोलबंदियों में व्यस्त हैं। बिखराव, विघटन और हमारे अपने पूर्वाग्रह; कहीं से भी कुछ नया अच्छा और स्वाभाविक करने की गुंजाइश नहीं।

भाषा के कुछ नये पुराने पैरोकार भी चुप है। वे वहाँ जरूर बोलते हैं, जहाँ किसी लोकभाषा को, भारतीय भाषाओं के रूप में आठवीं अनुसूची में मान्य करने की बात आती है। उन्हें हिन्दी की भुजाएँ कटती दिखने लगती हैं। वे बिल्कुल भूल जाते हैं कि हिन्दी को इन जनभाषाओं ने अपनी सृजनात्मकता से कितना संपन्न किया है। ब्रजी, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, बुन्देलखंडी, राजस्थानी आदि के कवियों ने कितना कुछ दिया है।

हिन्दी पट्टी के विभिन्न राज्यों का अपनी क्षेत्रीय भाषा-संस्कृति और पहचान होते हुए भी राष्ट्रीय एकता और उसकी संकल्पना को आकार देने में कितना बड़ा योगदान है। हिन्दी के कुछ लोगों द्वारा जनभाषा के रूप में प्रतिष्ठित भोजपुरी जैसी भाषाओं को – भारतीय भाषाओं के साथ आठवीं अनुसूची में शामिल होने में रुकावट डालना अन्यायपूर्ण होगा। यह मातृभाषा के रूप में करोड़ों बोलनेवालों की भाषा है।

उसे भी समानता और सम्मान की दरकार है। समानता और स्वाभिमान के साथ ही सब मिल कर आगे चलेंगे। हिन्दी का भाषाई राष्ट्रवाद राष्ट्र की सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता को बनाए रख कर ही पुष्पित पल्लवित हुआ है। बंगाली, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलमाली, असमिया आदि अपनी भाषा के सम्मान के साथ ही आपके साथ है।

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हिन्दी अपनी बोलियों और जनपदीय भाषाओं से ही तत्त्व ग्रहण करती आई है। समस्त हिन्दी राज्य अपने भाषाई वैशिष्ट्य और वैविध्य के साथ ही संगठित हुए है। रोजी-रोटी और क्रिया-व्यापार की इन लोक भाषाओं की अपनी मौलिकता और निजता है, अपनी शब्द-सम्पदा और साहित्य है।

उन पर धौंस जमा कर और वर्चस्व बना कर, उन्हें छल और पाखण्डपूर्ण ढंग से उपेक्षित करके, हम अनजाने ही, हिन्दी-पट्टी की मान्य हिन्दी भाषा को भी उनके क्षोभ आक्रोश के सम्मुख खड़ा कर रहे हैं। सभी अपनी भाषा से प्रेम करते हैं इसका यह मतलब नहीं कि वे हिन्दी का विरोध करते हैं।

जिन्हें भोजपुरी प्रिय है, उन्हें हिन्दी भी प्रिय है। एक हमारी मातृभाषा है तो एक हमारी राष्ट्रभाषा है।

– 47, टैगोर नगर, बलिया
मो-8004375093
(शब्दिता से साभार)

कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य

  1. रिपोर्ताज शब्द की उत्पत्ति – फ्रेंच भाषा से हुई।
  2. हिन्दी में पहला रिपोर्ताज प्रकाशन – ‘हंस’ (सं. प्रेमचंद)
  3. रिपोर्ताज का पुस्तकाकार प्रकाशन – धनजल – ऋणजल (‘रेणु’)
  4. विशेष रिपोर्ट के दो प्रकार – शोध रिपोर्ट तथा इन-डेप्थ रिपोर्ट
  5. रिपोर्ट लेखन की भाषा – इकहरी, सरल, सहज होनी चाहिए।

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