GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 6 उपनिषद् रससुधा

Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 6 उपनिषद् रससुधा Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.

Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 6 उपनिषद् रससुधा

GSEB Solutions Class 11 Sanskrit उपनिषद् रससुधा Textbook Questions and Answers

उपनिषद् रससुधा Exercise

1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्यः समुचितम् उत्तरं चिनुत।

પ્રશ્ન 1.
सः …………………………………….. नित्यानाम्।
(क) नित्यः
(ख) अनित्यः
(ग) चेतनः
(घ) अचेतनः
उत्तर :
(क) नित्यः

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પ્રશ્ન 2.
अनृतम् इत्यस्य विलोमपदम् किम्?
(क) सत्यम्
(ख) असत्यम्
(ग) ऋतम्
(घ) नृत्तम्
उत्तर :
(ग) ऋतम्

પ્રશ્ન 3.
विद्युत् – इत्यस्य पर्यायः कः?
(क) अग्निः
(ख) दामिनी
(ग) आकाशम्
(घ) प्रकाशः
उत्तर :
(ख) दामिनी

પ્રશ્ન 4.
किं न जयते?
(क) ऋतम्
(ख) अनृतम्
(ग) सत्यम्
(घ) असत्यम्
उत्तर :
(ख) अनृतम्

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પ્રશ્ન 5.
तत्र किं न भाति?
(क) सूर्यः
(ख) चन्द्रमाः
(ग) अग्निः
(घ) सर्वम्
उत्तर :
(घ) सर्वम्

2. संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत।

પ્રશ્ન 1.
मोहः कस्य न भवति ?
उत्तर :
एकत्वमनुपश्यत: मोहः न भवति।

પ્રશ્ન 2.
धीराणां कीदृशी शान्ति: भवति ?
उत्तर :
धीराणां शान्तिः शाश्वती भवति।

પ્રશ્ન 3.
का कदाचन ने बिभेति ?
उत्तर :
ब्रह्मवेत्ता विद्वान् कदाचन न बिभेति।

પ્રશ્ન 4.
किं सदैव जयते ?
उत्तर :
सत्यम् सदैव जयते।

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પ્રશ્ન 5.
तत्र किं किं न भाति ?
उत्तर :
तत्र न सूर्यः भाति, न चन्द्रतारकं भाति, अग्निः न भाति च विद्युतः अपि न भान्ति।

3. Answer in your mother-tongue:

પ્રશ્ન 1.
What is the reward of ‘Ekatva Darshan’?
उत्तर :
एकत्व के दर्शन के फलस्वरूप व्यक्ति मोह एवं शोक से मुक्त हो जाता है।

પ્રશ્ન 2.
What is Atmasth’?
उत्तर :
परम चैतन्य, परब्रह्म स्वरूप, परम आत्मतत्त्व ही आत्मस्थ है। जो तत्त्व सर्वथा नित्य है, परम चैतन्य है, जो अनेकों में एक तत्त्व के रूप में विद्यमान है, तथा जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है, वह परंब्रह्म सभी प्राणी-मात्र में आत्मा के रूप में विद्यमान है तथा धैर्यवान व्यक्ति उसे देखता है।

પ્રશ્ન 3.
What is the final outcome of (Satya) Truth?
उत्तर :
सत्य से देवयान मार्ग विस्तरित होता है तथा आप्तकाम ऋषि उसे पार करते है। अर्थात् वह गति जहाँ से पुनः मृत्युलोक में आना नहीं पड़ता वह सत्य का परम निधान है।

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પ્રશ્ન 4.
Why does the sun not light the Supremeelement ‘Brahmatatva’?
उत्तर :
सूर्य ब्रह्मतत्त्व को प्रकाशित नहीं कर सकता है क्योंकि सूर्य स्वयं भी ब्रह्मतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित होता है। न केवल सूर्य प्रत्युत चन्द्र तारे आदि सबकुछ ब्रह्मतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं।

4. Write analytical note on:

1. सत्यम् :
‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद् में सुप्रसिद्ध उक्ति का वर्णन प्राप्त होता है। सर्व-जन-विदित इस उक्ति का अर्थ है – सत्य ही विजयी होता है। असत्य की विजय नहीं होती है। सत्य के ही मार्ग से आप्तकाम ऋषि देवयान-गति को प्राप्त करते हैं।

वह गति जहाँ से इस मृत्युलोक में पुनः आना नहीं पड़ता वह देवयान गति है। सत्य स्वरूप आत्मतत्त्व जो प्राणीमात्र में विलसित हो रहा है उसका चिन्तन करते हुए, उसे सर्वत्र देखते हुए व्यक्ति को देवयान-गति प्राप्त कर अपना कल्याण करना चाहिए।

2. आत्मस्थ :
जो परब्रह्म तत्त्व नित्यों का परं नित्य है, चैतन्यों का चैतन्य है अनेकों में एक तत्त्व के रूप में विद्यमान है तथा जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है तथा प्राणीमात्र के हृदय में आत्मा के रूप में स्थिर है वही परब्रह्म स्वरूप आत्मस्थ कहा जाता है।

आत्मनि तिष्ठति इति आत्मस्थः – अर्थात् आत्मा (के रूप) में रहने के कारण आत्मस्थ कहा जाता है। जो धैर्यवान. जन इस आत्मस्थ तत्त्व देखते है वे शाश्वत शान्ति प्राप्त करते है।

3. नित्य :
नित्य शब्द का आशय है सार्वकालिक। भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालों में तथा सर्वदेशों में (सर्वत्र) जिसका अस्तित्व विद्यमान हो उसे नित्य कहा जाता है अर्थात् जो कालत्रयातीत है। एवं सर्वत्र विद्यमान हो वह नित्य कहा जाता है।

इस सम्पूर्ण संसार का कर्ता जो ब्रह्म तत्त्व है उसे नित्य माना जाता है। साथ ही जो अनादि एवं अनंत है, उसे भी नित्य माना जाता है। ब्रह्म तत्त्व का न आदि है न ही अन्त है। इस प्रकार नित्य विद्यमान तत्त्व को शाश्वत भी कहा जाता है।

4. आप्तकामा: ऋषय:
कामनाओं को पूर्ण कर चुके ऋषि। प्रायः विश्व में मानव के लिए कामनाओं को पूर्ण कर पाना संभव नहीं होता है। क्योंकि कहा गया है –

तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः
कालो न यातो वयमेव याताः।।

अर्थात् तृष्णा (अर्थात् इच्छाएँ) कभी जीर्ण नहीं होती हम ही जीर्ण हो जाते हैं। समय व्यतीत नहीं होता, हम इस विश्व से बीत जाते हैं अर्थात् मृत्यु को प्राप्त हो जाते है। व्यक्ति वृद्ध हो जाता है किन्तु इच्छाएँ युवान होती जाती है। आशय यह है कि व्यक्ति अपनी एक कामना की पूर्ति करता है तत्काल दूसरी कामना उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार इन अनन्त कामनाओं को पूर्ण कर पाना सामान्य व्यक्ति के लिए संभव नहीं हो पाता है।

वहीं ऋषिगज अष्टांग – योग की साधना करते हुए, संयममय जीवन व्यतीत करते हुए, सत्य के मार्ग पर चलते हुए अपनी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर लेते है। मुख्य रूप से तीन-कामनाओं को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति आतुर रहता है। इनमें मुख्य है कामनाएँ, लोकैषणा, वित्तेषणा एवं पुत्रैषणा हैं। इस प्रकार सत्य की आराधना करते हुए समस्त इच्छाओं को पूर्ण कर देवयान गति को प्राप्त करते हैं।

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5. Explain with reference to context :

1. सत्यमेव जयते नानृतम्।
तत्सत्यस्य परमं निधानम्।
अथवा
अनुवाद : सत्य ही विजयी होता है, असत्य नहीं।
अथवा
वह सत्य का परं निधान है।

सन्दर्भ : उपर्युक्त पंक्ति पाठ्य-पुस्तक के उपनिषद् – रससुधा नामक पद्य-पाठ से ली गई है। इस पाठ में उपनिषदों में वर्णित सत्य स्वरूप, परम चैतन्यमय सर्वत्र विद्यमान ब्रह्म-तत्त्व का वर्णन किया गया है। यह पंक्ति मुण्डकोपनिषद् से ली गई है।

व्याख्या : इस पंक्ति में सत्यस्वरूप ब्रह्म तत्त्व का चिन्तन करते हुए सत्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए जीवन में सत्य का आचरण करते हुए सत्य ही विजयी होता है यह उद्घोषणा की गई है। असत्य सर्वदा परास्त होता है। अतः व्यक्ति को संनिष्ठ होकर सत्य का आचरण करना चाहिए। सत्याराधन से देवयान-गति का मार्ग विस्तरित होता है। आप्त-काम ऋषि सत्य से ही इस मार्ग को पार कर देवयान गति को प्राप्त करते हैं जो सत्य का परं निधान है।

2. तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।

अनुवाद : उसके प्रकाश से यह सबकुछ प्रकाशित होता है। सन्दर्भ : प्रश्न के अनुसार। यह पंक्ति श्वेताश्वतरोपनिषद से ली गई है।

व्याख्या : यहाँ परं ब्रह्म की चर्चा करते हुए परब्रह्म को अत्यंत दैदीप्यमान एवं समग्र विश्व की चेतना का मुख्य आधार बताया है। हम सूर्य, चन्द्र, तारों, विद्युत एवं अग्नि आदि को प्रकाशमान मानते हुए यह भी मानते हैं कि वह प्रकाश उनका स्वयं का है।

किन्तु वास्तव में सूर्य को जो प्रकाशित करता है चन्द्र आदि को जो प्रकाशित करता है वह परब्रह्म है। सूर्यादि का प्रकाश स्वयं का प्रकाश नहीं है। ब्रह्म के प्रकाश से सूर्य-चन्द्र-तारे आदि प्रकाशित होते है। उस परंब्रह्म तत्त्व के प्रकाश से सबकुछ सुशोभित होता है।

3. शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्।

अनुवाद : (धैर्यवान्) शाश्वत शान्ति प्राप्त करता है, अन्य कोई नहीं।

सन्दर्भ : प्रश्न 1 के अनुसार तथा अन्त में। यह पंक्ति कठोपनिषद से ली गई है।

व्याख्या : यहाँ कठोपनिषद में इस पंक्ति के माध्यम से यह समझाया गया है कि व्यक्ति को शाश्वत शान्ति प्राप्त करने हेतु आत्मस्थ परं ब्रह्म स्वरूप को सर्वत्र देखना चाहिए। चिर शान्ति प्राप्त करने की कुंजिका के रूप में कहा गया है कि जो तत्त्व नित्यों का परं नित्य है, चैतन्यों का परम चैतन्य है, अनेकों विलसित हुए होते हुए भी एक है, जो समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ है तथा जो प्राणी-मात्र के हृदय में आत्मा के रूप में अर्थात् आत्मा में स्थिर है उस तत्त्व का सर्वत्र वास्तविक स्वरूप में जो दर्शन करता है वही व्यक्ति चिर-शान्ति को प्राप्त कर सकता है, अन्य कोई व्यक्ति नहीं।

अतः प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों में जड़चेतन में सर्वत्र वह तत्त्व ही विद्यमान है अतः जब हमें यह ज्ञात हो जाए कि सर्वत्र विद्यमान तत्त्व में एवं मुझ में कोई भेद नहीं है तो निश्चित रूप सभी भेद समाप्त हो जाएँगे तथा शाश्वत शान्ति प्राप्त होगी।

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6. Write a critical note on:

પ્રશ્ન 1.
एकत्व के दर्शन का लाभ :
उत्तर :
एक होने के भाव को एकत्व कहा जाता है। यहाँ एकत्व से तात्पर्य हैं वह चिदानंद रूप, वह चिन्मय तत्त्व जो समस्त प्राणियों में विलसित हो रहा है उस ब्रह्म तत्त्व का वास्तविक रूप से दर्शन करना। जब हम सर्व प्राणियों में उस तत्त्व का दर्शन करते है तो मोह एवं शोक आदि से मुक्त हो जाते है।

वेदांत दर्शन के अनुसार यह समग्र विश्व एक तत्त्व से उत्पन्न हुआ हैं। अतः दृश्य एवं अदृश्य सर्व पदार्थों में वह एक ही तत्त्व विद्यमान है। अतः उसका दर्शन ही एकत्व का दर्शन कहा गया हैं। अतः सर्वत्र विद्यमान उस तत्त्व का दर्शन करने से व्यक्ति शोक एवं मोह की सीमा उपर उठ जाते हैं।

इस प्रकार व्यक्ति का जीवन उर्ध्वगामी हो जाता हैं।।

પ્રશ્ન 2.
शाश्वत शान्ति की प्रक्रिया :
उत्तर :
मानव आजीवन संकटों से मुक्त होने के लिए शान्ति प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयत्न करता है किन्तु शान्ति के मूल कारण को न जानने के कारण शाश्वत शान्ति प्राप्त नहीं कर पाता है। वेदों में, उपनिषदों में एवं पुराणों, शास्त्रों, दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों आदि में कहा गया है कि नित्यों के नित्य एवं चैतन्यों का परम चैतन्य, अनेकों में विद्यमान एक रूप आत्मतत्त्व, प्राणी मात्र में उस तेजोमय, आनन्दमय एकत्वरूप को देखनेवाले तथा जिसमें समस्त कामनाओं को पूर्ण करने का सामर्थ्य है उस आत्मस्थ परब्रह्म रूपी आत्मतत्त्व का दर्शन करनेवाले व्यक्ति को शाश्वत शान्ति प्राप्त होती है।

जब व्यक्ति को यह ज्ञान हो कि सम्पूर्ण प्रकृति में जड़-चेतन में वही आत्म तत्त्व विद्यमान है जो उसमें है। जिससे सूर्य, चन्द्र, तारे आदि प्रकाशित होते है जिससे सम्पूर्ण विश्व ऊर्जावान हो रहा है जिससे समस्त विश्व सुशोभित हो रहा है। वह एक ही तत्त्व सर्वत्र विद्यमान है इस विषय का ज्ञान होने पर व्यक्ति शोक-मोह की सीमा को भेदकर शाश्वत शान्ति को प्राप्त कर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति कर सकेगा।

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પ્રશ્ન 3.
प्रकाश का प्रकाश :
उत्तर :
वेदान्त एवं अन्य ग्रन्थों में परं ब्रह्म को परं तेजोमय, तेजपुंज एवं दिव्य प्रकाश का स्रोत बताया गया है। सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान सर्व तत्त्वों में वही परब्रह्म विद्यमान है। न केवल चैतन्य अपितु जड में भी वही तत्त्व है। पर्वत, झरने, नदी, सागर आदि उसी का रूप है। सूर्य उसके प्रकाश से प्रकाशित होता है।

विभिन्न प्रकार के पुष्पों में विविध सुन्दर वर्ण एवं गन्ध आदि को प्रकट करनेवाला तत्त्व वही परप्रह्म है। विविध प्रकार के प्राणियों के मनोहर वर्ण उनका मधुर कलरव इन रूपों में उसी परब्रह्म तत्त्व का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है।

चन्द्र में तेज, शीतलता, तारागण आदि सर्व तत्त्वों में वही परब्रह्म रूपी तत्त्व विलसित होता है। उसीके अस्तित्व से यह विश्व अत्यन्त मनोहर एवं कान्तिमान दिखाई देता है। मूलरूप से ब्रह्म-तत्त्व ही प्रकाश का प्रकाश है।

Sanskrit Digest Std 11 GSEB उपनिषद् रससुधा Additional Questions and Answers

उपनिषद् रससुधा स्वाध्याय

1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्य: समुचितम् उत्तरं चिनुत।

પ્રશ્ન 1.
कस्य कृते न शोकः च न मोहः अस्ति ?
(क) एकत्वमनुपश्यतः कृते
(ख) बहुत्वमनुपश्यतः कृते
(ग) किमपि न पश्यतः कृते
(घ) सर्वस्य कृते
उत्तर :
(घ) सर्वस्य कृते

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પ્રશ્ન 2.
सदैव किं जयते।
(क) सत्यम्
(ख) असत्यम्
(ग) नृत्यम्
(घ) अनृतम्
उत्तर :
(क) सत्यम्

2. संस्कृतभाषाया उत्तरं लिखत।

પ્રશ્ન 1.
तस्य भासा किं विभाति ?
उत्तर :
तस्य भासा इदं सर्वं विभाति।

પ્રશ્ન 2.
किं न जयते ?
उत्तर :
अनृतं न जयते।

उपनिषद् रससुधा Summary in Hindi

उपनिषद् – रससुधा (उपनिषदों की रससुधा)

सन्दर्भ : उपनिषद् अर्थात् भारतीय विद्वानों के द्वारा विकसित की गई आध्यात्मिक विचारधारा, ये उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अन्त भाग में आने के कारण वेदान्त के रूप में भी पहचाने जाते है। वेदान्त अर्थात् ज्ञान का तट, वेदान्त के ज्ञान के पश्चात् जीवन में ज्ञातव्य कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।

आदि शंकराचार्य के अनुसार जो विद्या परं ब्रह्म की प्राप्ति कराती है, माया का नाश करती है और संसार के बन्धनों को शिथिल करती है, उन्हें उपनिषद् कहते है। उपनिषद् ग्रन्थों में संसार के बन्धनों से मुक्त करनेवाली और परब्रह्म की प्राप्ति करानेवाली विद्या का उपदेश है। आज उपनिषद् के रूप में 250 से अधिक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार 108 उपनिषद् है। वे सभी प्राचीन नहीं है। कुछ उपनिषद् अर्वाचीन भी हैं।

ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तित्तिर (तैत्तिरीय) ऐतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दस उपनिषद् अत्यंत प्राचीन एवं प्रधान माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर – कौषीतकी और मैत्रायणी उपनिषदों को भी प्राचीन माना गया है। आदि शंकराचार्य और अन्य आचार्यों ने इन उपनिषदों पर भाष्य लिखकर इसकी महत्ता को स्वीकार किया है।

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व्युत्पत्ति की दृष्टि से उपनिषद् शब्द की रचना ‘उप’ एवं ‘नि’ उपसर्गपूर्वक सद् धातु के निष्पन्न हुआ है। उप + नि + सद् धातु से इस शब्द की रचना हुई है। उप शब्द का अर्थ है समीप। अर्थात् गुरु के, ईश्वर के समीप तथा नि उपसर्ग निश्चयार्थक है। अतः नि का अर्थ है निश्चित रूप से तथा सद्द धातु का अर्थ है बैठना। इस प्रकार उपनिषद् शब्द का आशय है गुरु के समीप निश्चित होकर बैठकर प्राप्त किया हुआ रहस्यात्मक ज्ञान।

इस प्रकार तात्त्विक ज्ञान से युक्त ग्रन्थों के लिए उपनिषद् शब्द प्रसिद्ध है। इन उपनिषदों में जिस ज्ञान का संग्रह है वह किसी एक काल खण्ड में किसी व्यक्ति के हृदय में प्रकट नहीं हुआ है। परंतु अनेक ऋषियों, मुनियों एवं विद्वानों की विद्वत्ता एवं तप का सारतत्त्व है।

उपनिषदों में परम तत्त्व परमात्मा का ब्रह्म शब्द से उल्लेख हुआ है। परब्रह्म के सगुण एवं निर्गुण दोनों स्वरूपों का वर्णन उपनिषदों में मिलता है। ब्रह्म की प्राप्ति हेतु सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य सदृश् गुण अनिवार्य है। ध्यान योग, कर्मयोग, ज्ञान-योग एवं भक्ति-योग ब्रह्म की प्राप्ति के भिन्न-भिन्न उपाय है। कठोपनिषद में मृत्यु के पश्चात् आत्मा की गति का वर्णन किया गया है। जीव, जगत एवं जगदीश की सूक्ष्म मीमांसा उपनिषदों में दिखाई देती है।

इसमें मुख्य रूप से अद्वैतवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया गया है। मुण्डोकपनिषद् में जीव एवं शिव को दो सुन्दर पक्षियों के रूप में दर्शाया गया है और उन्हें संसार रूपी वृक्ष पर बैठा हुआ बताया गया है। उन दोनों में एकत्व स्थापित करके अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।

उपनिषदों की शैली सरल एवं संवादात्मक है। इनमें प्रश्नोत्तर के रूप में अत्यन्त गहन विषयों की चर्चा की गई है। भारतवर्ष की भव्य संस्कृति ने समस्त मानव जाति को उपनिषद के रूप में उदात्त तत्त्व-ज्ञान का दिव्य उपहार प्रदान किया है।

इस पाठ में ईशोपनिषद्, कठोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद् एवं श्वेता-श्वतरोपनिषद् इन पाँच उपनिषदों में से पृथक्पृथक् विषयवस्तु से युक्त चयनित पाँच पद्य उद्धृत किए गए हैं। यहाँ प्रथम तीन पद्यों में क्रमश: एकत्व-सिद्धि की परंपरा का, परं शान्ति के अधिकारी का एवं विद्वान व्यक्ति के लक्षणों का वर्णन किया है। चतुर्थ मंत्र में सत्य की महिमा का गान किया गया है तथा पंचम – मंत्र में परम तत्त्व की परमता का प्रतिपादन किया गया है।

इन मंत्रों के वर्णन से मानव ज्ञान प्राप्त कर तदनुसार आचरण करते हुए जीवन व्यतीत कर मानव देह में जन्म को सफल करे यह उद्देश्य अन्तर्निहित है।

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अन्वय, शब्दार्थ एवं अनुवाद

1. अन्वय : यस्मिन् आत्मा एव सर्वाणि भूतानि अभूत् (इति) विजानत: एकत्वम् अनुपश्यतः तत्र का मोहः कः शोकः।

शब्दार्थ : यस्मिन् = जिसमें। आत्मा = जीवात्मा। भूतानि = प्राणी, जीव। अभूत् = हुआ। विजानतः = जाननेवाले का। एकत्वम् = एक रूप होने का भाव। अनुपश्यतः = देखनेवाले का।

अनुवाद : जिसमें आत्मा (आत्म तत्त्व, जीवात्मा) ही प्राणियों के रूप में हुई यह जानने वाले व्यक्ति का तथा एकत्व देखनेवाले व्यक्ति को वहाँ क्या मोह व क्या शोक होगा।

2. अन्वय : ये धीरा: (य:) नित्यानां नित्यः चेतनानाम् चेतना, बहूनाम् एक: य: कामान् विदधाति तम् आत्मस्थम् अनुपश्यन्ति तेषां शाश्वती शान्तिः (भवति) इतरेषाम् न (भवति)।

शब्दार्थ : धीरा: = धैर्यवान् लोग, नित्यानाम् = नित्यों का। नित्यः = सदा, सर्वकालीन। चेतनः = चैतन्ययुक्त। कामान् = कामनाओं को। आत्मस्थम् = आत्मा में स्थिर रहे हुए को। अनुपश्यन्ति = देखते है। शाश्वती शान्तिः = चिर शान्ति, सर्वकालीन शान्ति। इतरेषाम् = अन्यों का। विदधाति = धारण करता है – ‘वि.’ उपसर्ग धा धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन।

अनुवाद : जो धैर्यवान जन नित्यों के नित्य को, चैतन्यों के परम चैतन्य को, अनेकों में विद्यमान एक को तथा कामनाओं की पूर्ति करनेवाले ब्रह्म को स्वयं की आत्मा में देखते है। (स्वयं के अन्दर देखते हैं।) उन्हें शाश्वत-शान्ति प्राप्त होती है अन्य को नहीं।

3. यत: वाच: मनसा सह अप्राप्य ब्रह्मण: आनन्दं विद्धान कदाचन न बिभेति।
तैत्तिहीयोपनिषद् –

शब्दार्थ : यतः = जहाँ से, वाचः = वाणी, शब्द – वाक् – स्त्री लिंग, प्रथमा विभक्ति, बहुवचन। निवर्तन्ते = वापस आती है – नि उपसर्ग + वृत् धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन। मनसा = मन से, मनस् – नपुं. लिंग, तृतीया विभक्ति, एकवचनम्। ब्रह्मण: = ब्रह्म का – ब्रह्मन् – नपुं. लिंग, षष्ठी विभक्ति, एकवचन। विद्वान = ज्ञाता, जाननेवाला। बिभेति = भयभीत होता है,. डरता है। – भी धातु, वर्तमान काल, अन्य पुरुष, एकवचन।

अनुवाद : जहाँ से शब्द या वाणी मन से आनन्द को प्राप्त किए बिना वापस आती है, (उस से) ब्रह्म तत्त्व के आनन्द को जो जान लेता है वह कदापि भयभीत नहीं होता है।

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4. अन्वय : सत्यम् एव जयते अनृतम् न, सत्येन देवयानः पन्थाः वितत: येन आप्तकामा: ऋषयः हि आक्रमन्ति यत्र, तत् सत्यस्य परं निधानम् (अस्ति)।

शब्दार्थ : अनृतम् = असत्य, देवयानः = जीवन की एक प्रकार की गति (जहाँ से मृत्यु के पश्चात् जीव, मृत्युलोक में वापस नहीं आता है।), विततः = विस्तरित होता है, फैलता है, बढ़ता है। आक्रमन्ति = पार कर लेते है। – आ उपसर्ग + क्रम् धातु + वर्तमानकाल, अन्य पुरुष, बहुवचन। निधानम् = आश्रय स्थान। आप्तकामा: = जिन की कामनाएँ पूर्ण हो चुकी है वे (ऋषि)

अनुवाद : सत्य ही विजय को प्राप्त करता है, असत्य नहीं। सत्य से देवयान – मार्ग विस्तरित होता है। सत्य से आप्तकाम ऋषि उसे पार करते है, वह ही सत्य का परम सर्वोच्च आश्रयस्थान है।

5. अन्वय : तत्र सूर्यः न भाति, चन्द्रतारकं न (भाति), न इमा विद्युत: भान्ति, कुत: अयम् अग्निः। तम् भान्तम् एव सर्वम् अनुभाति,तस्य भासा इदं सर्वं विभाति।

शब्दार्थ : भाति = प्रकाशित होता है। चन्द्रतारकम् = चन्द्र एवं तारे – चन्द्रः च तारकाः च इति – समाहार – द्वन्द्व – समासः। भान्तम् = प्रकाशित होने से भासा – प्रकाश से। अनुभाति – पश्चात प्रकाशित होता है।

अनुवाद : वहा सूर्य प्रकाशित नहीं होता है न चन्द्र प्रकाशित होता है न तारे प्रकाशित होते हैं। न ये विद्युत (बिजली) प्रकाशित होती है। यह अग्नि कहाँ से प्रकाशित होती है? उसके प्रकाशित होने से ही सबकुछ प्रकाशित होता है। उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ शोभायमान होता है।

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