Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit व्याकरण अलंकार परिचय Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Sanskrit Vyakaran अलंकार परिचय
पाठ्यक्रम में निर्धारित अलंकार चार है :
- उपमा
- उत्प्रेक्षा
- रूपक और
- अतिशयोक्ति
अलंकार शब्द का सामान्य अर्थ आभूषण या गहना होता है। यह एक ऐसा तत्त्व है कि जिसके संयोग या उपस्थिति से वस्तु की शोभा बढ़ जाती है। जैसे कि मानव के शरीर में सौंदर्य तो है ही, फिर भी वह शरीर पर कंगन (हाथ का कड़ा) तथा कुंडल (कान का गहना) वगैरह धारण करे, तो इन गहनों की वजह से शरीर के सौंदर्य में वृद्धि होती है। इसी तरह काव्य के भी शरीर होता है। (शब्द और अर्थ – इन दोनों को कव्य का शरीर कहा गया है।) काव्य के इस शरीर में सौंन्दर्य बढ़ानेवाले तत्त्व की काव्यशास्त्रियों ने चर्चा की है और ऐसे तत्त्वों को अलंकार कहा है।
मानव के शरीर की तरह शब्दार्थरूप काव्य शरीर में भी थोड़ा-बहुत तो सौंदर्य होता ही है फिर भी यदि शब्दार्थरुपी शरीर उपमा वगैरह अलंकारों को धारण करे, तो इन अलंकारों के कारण काव्य के सौंदर्य में वृद्धि होती है। (देखिए – काव्यस्य शब्दार्थों शरीरम्, अलङ्काराः कटक कुण्डलादिवत्। – आचार्य विश्वनाथ कृत साहित्य दर्पण, प्रथम (परिच्छेद) संस्कृत साहित्य में (अर्थात् कि संस्कृत की काव्य, नाट्य साहित्य संबंधी कृतियों में) और संस्कृत साहित्यशास्त्र में (अर्थात् साहित्य संबंधी तात्त्विक विचारणा करनेवाला शास्त्र, जिसे अलंकारशास्त्र भी कहते हैं, उसमें) अलंकारों का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है।
अलंकार दो प्रकार के हैं :
- शब्दालंकार और
- अर्थालंकार।
इन दोनों अलंकारों का यहाँ प्राथमिक परिचय प्राप्त करेंग।
1. शब्दालंकार : शब्द और वर्णों द्वारा जहाँ काव्य की शोभा में वृद्धि हो रही हो, वहाँ शब्दालंकार होता है।
जैसे कि –
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकान्तपदावलीं श्रुणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि।।
(श्लोकार्थ : यदि हरि के स्मरण में मन को रस मिलता हो, यदि विलास-कलाओं में कुतूहल हो, तो (उसकी संतुष्टि के लिए) मधुर, कोमल और कान्त (प्रिय) पदावलीवाली कवि जयदेव की सरस्वती को सुनो।)
इस उपर्युक्त पद्य = कविता में प्रयुक्त ‘सरसम्, विलास, कोमलकान्त’ पदों – शब्दों में क्रमशः ‘स’, ‘ल’ और ‘क’ वगैरह वर्णों का एकाधिक बार प्रयोग हुआ है। परिणामस्वरुप प्रस्तुत पद्य के कविता के सौंदर्य में वृद्धि हुई है। (इस सौंदर्य वृद्धि की अनुभूति वक्ता जब इस पद्य का पाठ करता है, तब होती है।) पाठ दौरान बार-बार उच्चारित ‘स’, ‘ल’, ‘क’ वगैरह एक प्रकार के विशेष लय को जन्म देते हैं और वह लय बोलनेवाला और सुननेवाला दोनों को सौंदर्य की अनुभूति करवाता है। इस तरह, यहाँ ‘स’, ‘ल’ जैसे वर्ण (या शब्द) से काव्य की शोभा में वृद्धि हुई है, इसलिए इस प्रकार के अलंकार को शब्दालंकार कहते हैं।
इस शब्दालंकार की एक मर्यादा यह है कि जिस वर्ण या शब्द के कारण काव्य के शब्दशरीर में शोभा बढ़ती हो (अर्थात् अलंकारत्व दिखाई देता हो), उस वर्ण या शब्द को दूर किया जाय, तो वहाँ से शोभा भी खत्म हो जाती है। (अर्थात् अलंकारत्व भी खत्म हो जाता है।) जैसे कि उपर्युक्त पद्य में ‘मधुरकोमलकान्तपदावलीम्’ इसी तरह की शब्द रचना की गई है। ऊपर देखा उसी तरह यहाँ ‘कोमल’ और ‘कान्त’ इन दो शब्दों में क-वर्ण है, इसके कारण यहाँ अलंकारत्व है। अब, यदि वहाँ ‘कोमल’ शब्द के बदले उसी अर्थवाला ‘पेशल’ शब्द रखें, तो (क-वर्ण के कारण) पद्य में रहा अलंकारत्व भी खत्म हो जाता है। अर्थात् ‘कोमल’ का ‘क’ तथा ‘कान्त’ के ‘क’ के कारण यहाँ जिस सौंदर्य का अनुभव हो रहा था, वह अब ‘कोमल’ के बदले ‘पेशल’ शब्द रखने से अनुभव नहीं होगा। इस तरह शब्दालंकार में शब्द हट जाय, तो अलंकार भी हट जाता है।
इस तरह जहाँ शब्द द्वारा काव्य की शोभा बढ़ाई गई हो, वहाँ शब्दालंकार में पर्याय-परिवर्तन अर्थात् एक शब्द के बदले दूसरा शब्द नहीं चलता है।
(2) अर्थालंकार : शब्द में रहे अर्थ द्वारा जहाँ काव्य की शोभा में वृद्धि हो रही हो, वहाँ अर्थालंकार होता है।
जैसे,
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
(श्लोकार्थ : शब्द और अर्थ की तरह हमेशा जुड़े रहनेवाले संसार के माता-पिता, उमा और महेश्वर को मैं वाक् (शब्द) और अर्थ का बराबर ज्ञान प्राप्त करने के लिए वंदना करता हूँ।)
उपर्युक्त पद्य श्लोक में जो ‘वागर्थी’ पद है, उसका अर्थ ‘वाक-शब्द और अर्थ’ है। जो ‘पार्वतीपरमेश्वरौ’ पद है, उसका अर्थ ‘पार्वतीउमा और परमेश्वर-शिव’ है। इस अर्थ को ध्यान में रखकर यहाँ कहा जा रहा है कि शब्द और अर्थ की तरह (वागर्थो इव) पार्वती और परमेश्वर भी हमेशा ए साथ रहनेवाले हैं। इस तरह, यहाँ पार्वती परमेश्वर के शब्द – अर्थ के साथ तुलना की जाने से ‘उपमा’ अलंकार है। हम देख सकते हैं कि यह उपमा अलंकार (किसी वर्ण या शब्द के कारण नहीं है, बल्कि पद्य में प्रयुक्त पदों के) अर्थ के कारण है, अत: इस प्रकार के अलंकार को अर्थालंकार कहते हैं।
इस प्रकार के अलंकार की एक विशेषता है। यहाँ शब्द में रहे अर्थ के कारण अलंकारत्व होता है, अर्थात् उस अर्थ को व्यक्त करनेवाला जो शब्द था, उस शब्द को हटा दिया जाय और उसके बदले उसके अर्थ जैसा ही अर्थ देनेवाला दूसरा शब्द प्रयोग किया जाय, तो भी अलंकार बना रहता है। जैसे कि उपर्युक्त पद्य में पार्वती-परमेश्वर की जिसके साथ तुलना की गई है, उस ‘वागौँ’ शब्द के बदले उसी अर्थवाला ‘शब्दार्थों’ (शब्द और अर्थ) शब्द रखें, तो भी यहाँ (उपमा) अलंकार बना रहता है। अर्थात् ‘वागर्थौ’ इस शब्द (और उसके अर्थ) के कारण यहाँ जो उपमा अलंकार निर्मित हुआ है, वह ‘शब्दार्थों’ कहने से भी बना रहता है।
इस तरह, जहाँ अर्थ द्वारा काव्य की शोभा में वृद्धि की गई हो, वहाँ अर्थालंकार में पर्याय-परिवर्तन अर्थात् एक शब्द की जगह दूसरे शब्द को बदला जा सकता है।
संस्कृत में शब्दालंकार की संख्या कम है और उसका महत्त्व भी अनुपात में कम है, जबकि अर्थालंकार की संख्या बहुत है और उसका महत्त्व भी अनुपात में अधिक है। (पाठ्यक्रम में शब्दालंकारों का समावेश नहीं किया गया है। मात्र चार अर्थालंकारों का ही समावेश किया गया है, अतः यहाँ चार अर्थालंकारों की चर्चा की गई है।)
1. उपमा
साधर्म्यम् उपमा भेदे। अर्थात् दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में रहे एकसमान धर्म के कारण, जब एक को दूसरे के साथ तुलना की जाए, तब वहाँ उपमा अलंकार होता है।
जैसे;
– वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
अर्थात् शब्द और अर्थ की तरह हमेशा जुड़े रहनेवाले जगत के माता और पितास्वरूप पार्वती और परमेश्वर को मैं वागर्थ की प्राप्ति के लिए वंदना करता हूँ।
यहाँ ‘वागर्थ’ (शब्द और अर्थ) और ‘पार्वती – परमेश्वर’ (पार्वती और परमेश्वर) इन दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में रहे ‘संयुक्त’ (मिलकर रहना) नामक एकसमान धर्म के कारण ‘पार्वती – परमेश्वर’ की ‘वागर्थ’ के साथ तुलना की गई है, अत: यहाँ उपमा अलंकार है।
(विशेष : उपमा के चार अंग है : (1) उपमेय अर्थात् जिसकी तुलना करनी हो, वह (2) उपमान अर्थात् जिसके साथ (उपमेय) तुलना की जाय, वह (3) उपमावाचक शब्द अर्थात् तुलना का अर्थ देनेवाला शब्द जैसे कि इव, सम, सदृश, तुल्य वगैरह (इन सभी शब्दों का अर्थ ‘के जैसा’ है।) और साधारण धर्म अर्थात् उपमान तथा उपमेय दोनों में रहा एकसमान धर्म (या एकसमान गुण)। उपर्युक्त उदाहरण शब्द ‘इव’ है, जबकि उपमान-उपमेय का साधारण धर्म ‘संयुक्त’ (हमेशा साथ मिलकर रहना) है।
2. उत्प्रेक्षा
सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्। प्रकृत अर्थात् प्रस्तुत वर्णनीय वस्तु (अर्थात् उपमेय) की उसके समान वस्तु (अर्थात् उपमान) के साथ जब संभावना की जाय, तो वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
जैसे ;
स्त्रीणां विरेजुः मुखपङ्कजानि सक्तानि हर्येषु इव पङ्कजानि।
(श्लोकार्थ : स्त्रियों का मुख कमल मानो कि महल के झरोखे में जड़ित कमल हो, इस तरह सुशोभित हो रहे थे।)
यहाँ मुख उपमेय है और कमल उपमान है। यहाँ (उपमेय) मुख (उपमान) की कमल के रूप में संभावना दर्शाई गई है। अत: यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।
दूसरे शब्दों में कहें तो (उपमा अलंकार में ‘इव’ उपमावाचक अव्यय का अर्थ ‘के जैसा’ लिया जाता है, उत्प्रेक्षा अलंकार में ‘इव’ अव्यय का अर्थ ‘मानो कि’ लिया जाता है। उत्प्रेक्षा अलंकार में इस ‘इव’ अव्यय का संबंध क्रियापद के साथ होता है, किसी कारक पद के साथ नहीं। (जबकि उपमा अलंकार में अर्थ के संदर्भ में वह अधिकांशतः किसी कारक पद के साथ संबद्ध होता है। संक्षेप में उत्प्रेक्षा में संभावना, धारणा या कल्पना का तत्त्व होता है।)
(आगे के पाठ-9 में आए ‘लिम्पतीव तमोडङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभः।’ (अर्थ – शरीर के) अंगों को अँधेरा मानो कि लेपन कर रहा है। आकाश मानो अंजन (काजल) वर्षा रहा है।) में भी उत्प्रेक्षा अलंकार है।
3. रूपक
तद् रूपकम् अभेदो या उपमानोपमेययोः। अर्थात् एकदूसरे की अत्यंत समानता के कारण उपमेय और उपमान के बीच अभेद अर्थात् दोनों एक ही हैं, ऐसा दर्शाना जहाँ उपक्रम हो, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
जैसे ;
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवैः रणनदी कैवर्तक: केशवः।
(श्लोकार्थ : पांडव उस युद्धरूपी नदी को तैर गए, (क्योंकि) केशव (कृष्ण) अनेक कर्णधार थे।)
यहाँ युद्ध और नदी दो वस्तुएँ हैं। इन दो वस्तुओं में से युद्ध की नदी के साथ तुलना की गई है। अर्थात् ‘युद्ध’ (रण) उपमेय है, जबकि ‘नदी’ उपमान है। इस उपमान-उपमेय में (अर्थात् नदी और युद्ध में) अत्यंत समानता है, ऐसा मानकर दोनों के बीच अभेद (अर्थात् दोनों एक ही हैं, ऐसा) माना गया है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।
(विशेष : उपमा अलंकार की तरह यहाँ मात्र तुलना ही नहीं होती है, बल्कि उपमेय और उपमान एक ही हैं, ऐसा माना जाता है। जब कि उपमेय और उपमान दोनों भिन्न-भिन्न होते हैं। उनके बीच भेद भी प्रकट रूप से रहता है, फिर भी उनके बीच अत्यंत समानता मान करके वक्ता उनके बीच अभेद दर्शाता है। जैसे कि यहाँ उपमेय ‘रण’ (युद्ध) और उपमान ‘नदी’ दोनों अलग-अलग वस्तुएँ हैं। उनके अलग होने का भेद स्पष्ट रूप से है, फिर भी यहाँ ‘रण’ और ‘नदी’ के बीच अत्यंत समानता बताने से ‘रणनदी’ में रूपक अलंकार है, ऐसा कह सकते हैं।)
4. अतिशयोक्ति
विवक्षा या विशेषस्य लोकसीमातिवर्तिनी। असावतिशयोक्ति: स्यात् अलंकारोत्तमा यथा।।
अर्थात् यहाँ लोकमर्यादा का अतिक्रमण करके वर्णन किया जाता है, अर्थात् कि अलौकिक या असामान्य वर्णन किया जाता है, यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। यह एक उत्तम प्रकार का अलंकार है।
जैसे;
उदेति पूर्वं कुसुमं ततः फलं
धनोदय: प्राक् तदनन्तरं पयः।
निमित्तनैमित्तिकयोरंय क्रमः
तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः।।
(श्लोकार्थ : पहले फूल उगता है और फिर फल (आता है), पहले बादल आता है और फिर (वर्षारूप) जल। इस तरह निमित्त (= कारण) और नैमित्तिक (= कार्य) का क्रम होता है। (अर्थात् पहले निमित्त (कारण) प्रकट होता है और उसके पश्चात् नैमित्तिक (कार्य) का जन्म होता है।) परंतु हे राजन् ! आपके कृपा प्रसाद के पूर्व ही संपत्ति आ जाती है।)
यहाँ कारण के बाद कार्य का अस्तित्व प्रकट होता है, ऐसी लोकमर्यादा को बताने के लिए (श्लोक के पहले दो चरण में) फूल निमित्त (कारण) के बाद फल (नैमित्तिक, कार्य) आने तथा बादल घिरने के बाद वर्षा के जल के आने की बात कही गई है। परन्तु इसके बाद (चौथे चरण में) प्रभु (राजा) की कृपा से पूर्व संपत्ति आ जाती है, ऐसी बात कही गई है। चौथे चरण में कही गई इस बात में लोकमर्यादा का अतिक्रमण हुआ है। कारण कि इस बात में संपत्ति रूप कार्य पहले है, और उसके बाद कृपारूप कारण की बात कही गई है। इस तरह, यहाँ एक असामान्य बात की गई है, अतः यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।
(विशेष : किसी भी व्यक्ति या वस्तु का महत्त्व बताने का एक उपाय यह है कि उसे समान्य व्यक्ति या वस्तु से भिन्न बताया जाय। उसके लिए सर्वप्रथम तो सभी व्यक्ति या वस्तु के संदर्भ में किसी एक निश्चित लोकमर्यादा को बताना होता है। उसके बाद उस व्यक्ति या वस्तु का महत्त्व बताना होता है। उसमें सब जगह दिखाई देनेवाली यह लोकमर्यादा यहाँ नहीं है, ऐसा बताने का उपक्रम करना होता है। इसके उपरांत (1) उपमेय – उपमान के बीच समानता का अतिरेक बताया जाय (2) उपमेय के बदले उपमान का वर्णन किया जाय, तो भी वहाँ लोकमर्यादा का उल्लंघन हो जाता है, अतः वहाँ भी अतिशयोक्ति अलंकार होता है। ऐसे उपक्रम से उस वस्तु या व्यक्ति का महत्त्व असरकारक ढंग से बढ़ जाता है।)
Four Figures of speech prescribed in the syllabus are:
- Simile
- imagination
- Metaphor
- Hyperbole.
The Gujarati equivalent of figures of speech is ‘Alankara’ which means ornament. Its use increases beauty of a thing or human body. There is beauty in human body yet, its beauty increases if it is ornamented with bangles, ear-rings etc. (Words and meanings are said to be the body of poetry). Literary critics have devised an element for an increase in the poetic body. this element is named ‘Alankara’- figures of speech.
Like human body, there is beauty in poetic body. Yet, the beauty of poetry increases with the use of figures of speech like similie. (see – काव्यस्य शब्दार्थौ शरीरम्, अलङ्काराः कटककुण्डलादिवत्। Sahityadarpana by Acharya Vishwanatha)
Figures of speech have a significant place in Sanskrit literature (i.e. in poetry, drama and prose fiction of Sanskrit) as well as in Sanskrit Criticism. (i.e. studies related to essence and philosophy of literature) which is also known as Alankarshastra.
There are two types of figures of speech –
- Figures of speech related to words (शब्दालंकार) and
- Figures of speech related to meaning (अर्थाअलंकार)
We shall have a primary (elementary) introduction of both the types.
1. Figures of Speech related to words.
When beauty is added to poetry only through words (not their meaning) the figures of speech are called (शब्दालंकार)
For eg.
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकान्तपदावली श्रुणु तदा जयदेवसरस्वतीम्॥
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे – – – –
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि॥
(Meaning: If the mind is interested in remembering the name of Lord Kirshna, if there is curiosity about sensuous stories, then (to fulfil it) listen to sweet, tender and pleasing poetry (in the form of goddess saraswati) of Jayadeva.
In the above stated verse in words and phrases like सरसम्, विलास, कोमलकान्त the letters स, ल, and क respectively are used more than once. Because of that the verse has became ornamentative (This beauty is realised when the verse is recited by a speaker). Repeated recital of letters स, ल, and क etc. generate a special rhythm and enable both, the speaker and the listener to experience the beauty. Thus, here the beauty of poetry is increased with the use of letters (or words) like 7, a so figure of speech of this type is known as शब्दालंकार.
One limitation of शब्दालंकार is that with the removal of letters or words lending beauty to verse the beauty of the verse also goes low/recedes. (Ornamentation is no longer retained).
For instance, in the above verse the phrase
मधुरकोमलकांतपदावलीम् is formed in this way. As mentioned above, the letter क is present in कोमल and कान्त. The beauty of the phrase is due to repetition of the letter क. Now, if synonym of the word कोमल – पेशल is put in the place of former, ther beauty of the verse (generated through wo) is no longer retained. i.e., the beautyexperienced through कin कोमल and cin कान्त will not beexperiened afterreplacing कोमल by पेशल. Thus in Flogicior the figurative quality no longer remains if the word is changed or removed.
In शब्दालंकार in which the beauty of the verse has been generated through words, no replacement of a word in terms of synonym is allowed.
2. Figures of speech by meaning अर्थालंकार
When the beauty of verse increases due to meaning of words, it is called अर्थालंकार,
For instance
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥
(For aquisition of knowledge of words and meanings, bow down to the parents of the world – Uma and Mahesha who are united like words and meaning).
In the above stated Shloka the phrase वागर्थौ means वाक् – word and अर्थ – the phrase पार्वतीपरमेश्वरौ means Parvati – Uma and Parameshwar – Shiva. Keeping in mind this meaning, it has been said that like word and meaning, Parvati and Parameshwara too, always live together. Thus, here Parvati-Parameshwara are compared with word and meaning so the figure of speech is similie (उपमा). We can see that here similie is not because of a letter or a word but because of meaning of the words used in the verse. So this type of figures of speech called अर्थालंकार.
There is one peculiarity of this type of अर्थालंकार. As noted above, here figurative quality is due to meaning of the words. So the figurative quality is sustained even if the word denoting meaning for the figure of speech is replaced by its synonym. For instance, in the above stated verse the word areit वागथौं with which Parrvati and Parameshwara are compared, is replaced by पदाथौं (Phrase and meaning) the Similie is still retained.
Thus, in figures of speech formed with the help of meaning, replacement of wordst by synonyms is allowed.
In Sanskrit, there are very few शब्दालंकार and they are less important but there are more many अर्थालंकार and they are more important. There are no शब्दालंकार in the syllabus, but only 4 शब्दालंकार are discussed here.
उपमा :
Because of a common quality of two different things, one is compared with the other, it is called Similie.
For example:
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपतये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥
(For aquisition of knowledge of words and meaning, I bow down to the parents of the world – Uma and Mahesha, who are united like words and meaning.)
Here two different objects वागर्थ (word and meaning) and पार्वती-परमेश्वर (Parvati and Parameshwara) have common quality संपृक्त (be together) so पार्वती-परमेश्वर is compared with वागर्थ hence, the figure of speech is Similie.
2. उत्प्रेक्षा
सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्। When probability of Upameya as identical with upamana is stated, it is उत्प्रेक्षा
स्त्रीणां विरेजुः मुखपङ्कजानि सक्तानि हर्येषु इव पङ्कजानि।
(Meaning of the Shloka – Lotus like faces of women looked beautiful like the lotuses embedded in a balcony.)
Here ‘face’ is upameya and ‘lotus’ is upaman. Here it is desired to depict (Upameya) face probably as (upaman) Lotus. So here the figure of speech is Utpreksha.
In other words meaning of the word इव which indicates comparism is understood as ‘as if in ‘Utpreksha’ figure of speech. Moreover, the relation of the unchangeable word इव is with verb and not any word that stands for door of an action i.e., noun. (while in similie in the context of meaning it has relation with a noun. In short, there is an element of probability, suppossition or imagination in Utpresha)
In lesson-9 in a line (meaning – parts of the body are as if being daubed. The sky is as showering collyrium eye-salve) also the figure of speech is Utpreksha.
3. रूपक
तद्रू पकम् अभेदो यः उपमानोपमेययोः। That is because of great similarity, there is no differnce between उपमेय and उपमान i.e., उपमेय and उपमान are identical. When the intention is to show this, the figure of speech is metaphor.
(Pandavas swam across the river of war because Keshava – Krishna was their charioteer.
Here war and river are two objects – out of these two war has been compared with river. War is (रण) उपमेय, river (नदी) is उपमान.
With the assumption on that there is a great similarity between उपमेय and उपमान ie., war and river, here both are presented as one, so it is metaphor.
सोत्तीर्णा खलु पाण्डवैः रणनदी कैवर्तकः केशवः।
(Note : Unlike Similie, there is not a comparison, it is assumed that उपमेय and उपमान are identical.. However, Upmeya and Upamana are different; the difference between the two is also evident yet, by assuming a great similarity between the two, the speaker mentions them as identical. For example, here Upameya रण (war) and Upamana नदी (river) both are different things. The difference between the two is very evident yet here having shown a great similarity between the two, it is metaphor in रणनदी.
4. अतिश्योत्ति:
विवक्षा या विशेषस्य लोकसीमातिवर्तिनी।
असावतिशयोक्तिः स्यात् अलंकारोत्तमा यथा॥
When a description is done beyond commonly accepted norms i.e. impossible or uncommon description is done, it is hyperbole. It is superior type of figure of speech. eg.
4. अतिश्योत्ति:
विवक्षा या विशेषस्य लोकसीमातिवर्तिनी।
असावतिशयोक्तिः स्यात् अलंकारोत्तमा यथा॥
Meaning of Sloka: A flower blooms first and then a fruit (blooms), there is a cloud first and then (in the form of rain) water. Thus, this is the order of cause and effect (a happening). (This means first there is always a cause and after that there results its effect (an act.) But, Oh King ! riches (werth) is received before (receiving your favour)
उदेति पूर्वं कुसुमं ततः फलं
घनोदयः प्राक् तदनन्तरं पयः।
निमित्तनैमित्तिकयोरयं क्रमः
तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः ॥
Here, there is a manifestation of effect a happening an act after the cause, to express such a popular (limitation accepted by people) (in the first two stanzas) only flower is the cause and then limitation there is a fruit (effect, an act) and that after the clouds in the sky there comes water is talked about. But then (in the fourth stanzas) wealth is received before being favoured (getting favour) by the king. Here there is an overemphasis of popular imitation that is said in the fourth stanza because in this narration the act/the result in the form of wealth is put first and after that favour is talked about in the form of cause. Thus, quite uncommon thing is talked about and so here the figure of speech is exhaggeration.
(Special note : The way to point out the importance of anything or any person is to show out that thing or a person as different others. Hence first the popular limitation of all those things or persons is to be pointed out, and then the importance of that thing or person is to be shown. And there the attempt is made to show that the popular limitation that is found in others is not in it or in him.
Moreover, (1) the exaggeration is pointed out in the similarity between the ‘upamaya’ and ‘upaman’i.e. the thing compared and the thing compared with. (2) instead of upameya upaman is described, (3) if relation is shown between quite unrelated things the popular limitation, neglected, overlooked, So, there also the figure of speech is exaggeration. Because of this, importance of the thing or the person gets increased (enhances.)