Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 3 वर्षावर्णनम् Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.
Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 3 वर्षावर्णनम्
GSEB Solutions Class 11 Sanskrit वर्षावर्णनम् Textbook Questions and Answers
वर्षावर्णनम् Exercise
1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्यः समुचितम् उत्तरं चिनुत।
પ્રશ્ન 1.
कीदृशी प्रावृट् प्रावर्तत ?
(क) सर्वसत्त्वभयावहा
(ख) सर्वसत्त्वमनोहरा
(ग) सर्वसत्त्वसुखप्रदा
(घ) सर्वसत्त्वविनाशिका
उत्तर :
(ग) सर्वसत्त्वसुखप्रदा
પ્રશ્ન 2.
भास्करः भूम्याः कीदृशं वसु पिबति ?
(क) सुवर्णमयम्
(ख) जलमयम्
(ग) धातुमयम्
(घ) मृण्मयम्
उत्तर :
(ख) जलमयम्
પ્રશ્ન 3.
कलौ युगे पापेन के भान्ति ?
(क) खद्योताः
(ख) पाखण्डाः
(ग) अधर्माः
(घ) ग्रहाः
उत्तर :
(ख) जलमयम्
પ્રશ્ન 4.
सस्यसम्पद्भिः क्षेत्राणि केषां मुदं ददुः ?
(क) धनिनाम्
(ख) ब्राह्मणानाम्
(ग) शिखिनाम्
(घ) कर्षकाणाम्
उत्तर :
(घ) कर्षकाणाम्
પ્રશ્ન 5.
वर्षाकाले मार्गाः कीदृशाः भवन्ति ?
(क) सुस्पष्टाः
(ख) रुचिराः
(ग) सन्दिग्धाः
(घ) रम्याः
उत्तर :
(ग) सन्दिग्धाः
પ્રશ્ન 6.
मेघागमेन के हृष्टाः भवन्ति ?
(क) भक्ताः
(ख) खद्योता:
(ग) शिखण्डिनः
(घ) वृषभाः
उत्तर :
(ग) शिखण्डिनः
2. एकेन वाक्येन संस्कृतभाषया उत्तरत।
પ્રશ્ન 1.
सूर्य कति मासान् भूम्या: वसु पिबति?
उत्तर :
सूर्यः अष्टौ मासान् भूम्या: वसु पिबति।
પ્રશ્ન 2.
निशामुखेषु के भान्ति, के न भान्ति?
उत्तर :
निशामुख्नेषु खद्योता: भान्ति, ग्रहाः न भान्ति।
પ્રશ્ન 3.
क्षेत्राणि कथं कर्षकाणां मुदं ददुः?
उत्तर :
क्षेत्राणि सस्यसम्पििद्भः कर्षकाणां मुदं ददुः।
પ્રશ્ન 4.
अनभ्यस्यमानाः श्रुतयः कीदृश्य: भवन्ति?
उत्तर :
अनभ्यस्यमानाः श्रुतयः कालहताः इव भवन्ति।
3. Give answer in mother-tongue in two or three sentences:
Question 1.
How does the sky look when the rainy season sets in?
उत्तर :
वर्षाऋतु के आरंभ होते ही गगन-मण्डल की सम्पूर्ण परिधि अर्थात् आकाश सर्वत्र घन-दामिनी की चकाचौंध से तथा मेघ-गर्जना से क्षुब्ध हो जाता है।
Question 2.
With what is the sparkling of glowworms compared?
उत्तर :
जुगनुओं का प्रकाश निशा में तारा गणों की भाँति टिमटिमाता है। जिस प्रकार कलियुग में पाखण्ड का प्रभाव सर्वत्र विद्यमान है उसी प्रकार जुगनुओं का प्रकाश भी सर्वत्र मनोहर दृष्टिगोचर होता है तथा पाखण्ड की भाँति जुगनुओं का प्रकाश भी अल्पकालीन होता है।
इस प्रकार जुगनुओं के प्रकाश की तुलना कलियुग में व्याप्त पाखण्ड से की गई है।
Question 3.
Who feels satisfied seeing fields laden with crops? Why?
उत्तर :
धान्य से भरे लहलहाते खेतों को देखकर वे धनिक सन्तप्त होते हैं जो यह नहीं जानते कि सम्पूर्ण विश्व एवं घटनाएँ देवाधीन हैं। वे धनवान जन जो इस विषय से अनभिज्ञ हैं कि किसानों के खेत उनके भाग्यानुसार धान्य से परिपूर्ण होकर लहलहा रहे हैं वे संतप्त हैं क्योंकि वे अब उनका शोषण नहीं कर सकेंगे।
Question 4.
What happens to the roads in rainy season? Why are they compared with Vedas?
उत्तर :
वर्षा ऋतु में घास-फूस से लदे हुए मार्ग अस्पष्ट हो जाते हैं। मार्ग से घास-फूस आदि को न हटाने के कारण स्वच्छता के अभाव एवं घनी हरियाली के कारण मार्ग स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते हैं। जिस प्रकार कालक्रम के प्रभाव से वर्तमान कलियुग में वेदों का स्वाध्याय नहीं करने के कारण ब्राह्मणों के द्वारा वेद विस्मृत किए जा चुके हैं।
जैसे समय चक्र परिवर्तित होने पर स्वाध्यायाभाव से वेद, विप्रों की विस्मृति के गर्त में कहीं विलुप्त हो चुके हैं उसी प्रकार घास-फूस, लता आदि वनस्पति को मार्ग से न काटने पर या न हटाने पर मार्ग भी दिखाई नहीं देते हैं। मार्ग को ढूँढ़ना अत्यंत कठिन हो जाता है। अत: मार्ग की तुलना वेदों से की गई है।
Question 5.
With what is the joy of peacocks compared?
उत्तर :
वर्षा के आगमन पर मेघों की काली घनघोर घटाएँ छा जाने पर उत्सव मनाने वाले हर्षित मयूर उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं जैसे अपने-अपने भवनों में तीनों आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक तापों से गृहस्थ जन किसी भगवद् भक्त के अपने आवास पर पधारने से प्रसन्न होते हैं।
यहाँ मयूरों की साम्यता भगवान के भक्त के आने पर हर्षित सद्गृहस्थ जन से की गई है।
4. Write a critical note on:
Question 1.
Describe the rainy season in the light of the lesson वर्षावर्णनम्?
उत्तर :
वर्षाऋतु के आगमन-मात्र से अखिल आकाश-मण्डल मेघाच्छादित हो जाता है, आर्द्र-शीतल वायु चतुर्दिक प्रवाहित होने लगती है। मेघ-दामिनी के संयोग से गगन-मण्डल संक्षुब्ध हो जाता है। मेघ-गर्जन एवं विद्युत की चकाचौंध सर्वत्र दिङ्मण्डल में व्याप्त हो जाती है।
ऐसा प्रतीत होता है मानो एक प्रजापालक राजा की भाँति भगवान भास्कर प्रजारूपी पृथ्वी से जल रूपी कर आठ माह तक ग्रहण करते हैं। किन्तु जब पृथ्वी को आवश्यकता हो तब पुनः वे स्वयं अपने किरण रूपी कर-कमलों से पुनः प्रदान करते हैं।
वृष्टिकाल में रात्रि-काल के आरंभ होते ही अन्धकार में टिमटिमाते हुए जुगनुओं का प्रकाश अत्यंत मनोहर होता है। जिस प्रकार नभ मण्डल में नक्षत्र-तारे आदि चमकते हुए अति मनोरम होते है उसी भाँति घनान्धकार में उड़ते हुए जुगनुओं का प्रकाश भी सुन्दर लगता है।
वर्षा की अमृत धारा से चतुर्दिक प्रकृति हरितिमा से आच्छादित हो जाती है। धान्य से हरे भरे लहलहाते खेत देखकर कृषकों के हृदय में आनंद-सिन्धु की हिलोरें उमड़ने लगती हैं। जल-थल-वासी समस्त जीव नूतन जल का सेवन करने से और अधिक मनोज्ञ हो जाते है।
उनका सौंदर्य और अधिक निखर जाता है। मार्गों पर हरियाली छा जाने से सम्यक् प्रकार से दृष्टि-पथ से दृश्यमान नहीं हो पाते हैं। मार्ग घास-फूस-लताओं से ढंक जाते हैं तथा दिखाई न देने के कारण विस्मृत हो जाते हैं। मयूरों के लिए तो वृष्ट्यागमन एक उत्सव ही होता है।
मेघों की घनघोर घटाएँ छा जाते ही मयूरों का सुमधुर केकारव गुञ्जायमान होने लगता है तथा हर्षित मोर नृत्य करने लगते हैं। इस प्रकार जलचर-थलचर आदि प्राणी मात्र को वर्षा का आगमन आनन्द प्रदान करता है।
5. Explain with reference:
1. स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे भास्कर: काल आगते।
संदर्भ: – प्रस्तुत पंक्ति पाठ्यपुस्तक के वर्षा-वर्णनम् नामक पद्य पाठ से ली गई है। वर्षा-वर्णनम् पाठ का अंश श्रीमद् भागवत महापुराण के दशमस्कन्ध के बीसवें अध्याय से उद्धृत किया गया है।
अनुवाद : (योग्य) समय आने पर सूर्य ने अपनी किरणों के द्वारा मुक्त करना आरंभ किया।
व्याख्या : ‘वर्षा-वर्णनम्’ पद्यपाठ के इस श्लोक में वर्षा ऋतु का सुन्दर वर्णन करते हुए भगवान भास्कर को एक सकुशल, प्रजावत्सल, लोकप्रिय, कल्याणकारी नृप की भाँति तथा पृथ्वी को प्रजा के रूप में वर्णित किया है।
जिस प्रकार एक राजा प्रजा से कर ग्रहण करता है तथा प्रजा-हित के भी अनेक कार्य करके प्रजा को प्रसन्न करने का पूर्ण प्रयास करता है उसी प्रकार भगवान सूर्यनारायण भी आठ माह तक पृथ्वी से कर के रूप में जल (कर-वारि) ग्रहण करते हैं, तथा योग्य समय आने पर अपने किरण-करों से उसे मुक्त भी करते हैं। इस प्रकार भगवान भास्कर पृथ्वी को आनन्द प्रदान करते हैं।
2. यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदा: कलौयुगे।
संदर्भ: – प्रथम प्रश्न में वर्णित सन्दर्भ का उल्लेख कीजिए शेष सभी प्रश्नों में।
अनुवाद : जैसे कलियुग में पाप के द्वारा पाखण्ड (व्याप्त) है वेद नहीं।
व्याख्या: – प्रस्तुत पंक्ति में वर्षा-वर्णन करते हुए महर्षि वेद-व्यास ने प्राकृतिक शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हुए जुगनुओं की तुलना कलियुग में व्याप्त पाखण्ड से की है। रात्रि में नक्षत्र एवं तारों की भाँति चमकते हुए जुगनुओं का प्रकाश पारखण्ड के समान सर्वत्र दिखाई देता है किन्तु सत्य की भाँति, वेद की भाँति चिरस्थाई नहीं होता है।
जिस प्रकार ग्रह अत्यधिक कान्तिमान अथवा दैदीप्यमान होते हैं किन्तु उनकी कान्ति भूमण्डल तक नहीं पहुँच पाती है उसी प्रकार वेद अखिल – मानव-धर्म का मूल होते हुए भी नष्टप्राय हो चुके हैं। दैदीप्यमान ग्रहों की भाँति वेदों का प्रभाव भी न्यूनतम हो गया है।
जैसे कलि-काल के प्रभाव से पाखण्ड एवं आडम्बर सर्वत्र विद्यमान हो चुका है उसी प्रकार नक्षत्रों एवं तारा-गणों की भाँति जुगनुओं का प्रकाश निशा के घनान्धकार में अत्यंत मनोहर प्रतीत होता है।
किन्तु जिस भाँति बाह्याडम्बर या पारखण्ड अधिक समय तक चिर-स्थाई नहीं होते हैं उसी प्रकार जुगनुओं का टिमटिमाता मनोहर प्रकाश भी चिर-काल पर्यंत स्थायी नहीं रहता है।
3. गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथा भगवज्जनागमे।
सन्दर्भ : प्रश्न-1 में वर्णित।
अनुवाद : जैसे घरों में त्रिताप से संतप्त, परिश्रान्तजन, भगवद्-भक्त के आने पर प्रसन्न होते हैं।
व्याख्या : प्रस्तुत पंक्ति में वृष्टि-काल का मनोहर वर्णन करते हुए महर्षि वेद-व्यास मयूरों की प्रसन्नता का वर्णन करते हैं। प्राणीमात्र में परब्रह्म का अवलोकन करते हुए महर्षि वेद-व्यास ने सभी जीवों की मनःस्थिति का वर्णन किया है। मेघों के आगमनमात्र से मयूर उत्सव मनाते हैं।
मेघों से आच्छादित गगनमंडल को देखकर हर्षान्वित होकर उत्सव मनानेवाले मोर अत्यधिक आनंदित होते हैं। जैसे आधि-दैविक, आधि-भौतिक एवं आध्यात्मिक इन तापों से ग्रस्त एवं थके हुए सामान्य जन किसी भगवद्-भक्त के आगमन पर प्रसन्न हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार वर्षा के आगमन पर मोर प्रसन्न होते है।
4. मार्गाः बभूवुः सन्दिग्धास्तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृता।
संदर्भ : प्रश्न-1 में प्रदत्त। .
अनुवाद : अपरिष्कृत तृणाच्छादित मार्ग अस्पष्ट हो गए।
व्याख्या : प्रस्तुत पंक्ति में महर्षि व्यास वृष्ट्यागमनकाल में मार्गों की स्थिति का वर्णन करते हैं। मार्ग पर चारों ओर हरियाली छा जाती है। लताओं से घास-फूस आदि वनस्पतियों से मार्ग ढंक जाते हैं। अतः मार्गों पर से घास-फूस, लता आदि की समयानुसार कटाई नहीं होने पर मार्ग अस्पष्ट हो जाते हैं।
मार्ग स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देने के कारण विस्मृत हो जाते हैं। यहाँ हरितिमाच्छादित, अपरिष्कृत विस्मृत हो चुके मार्गों की साम्यता कलिकाल में स्वाध्यायाभाव से ब्राह्मणों के द्वारा भुलाए जा चुके वेदों से की गई है।
जिस प्रकार कलिकाल में काल-क्रम के प्रभाव-वश वेदों का विस्मरण हो रहा है उसी प्रकार असंस्कृत, तृणाच्छादित मार्ग भी अस्पष्ट हो चुके हैं। मार्ग स्पष्टतया दिखाई नहीं देते हैं।
Sanskrit Digest Std 11 GSEB वर्षावर्णनम् Additional Questions and Answers
वर्षावर्णनम् स्वाध्याय
1. अधोलिखितेभ्य: विकल्पेभ्य: समुचितम् उत्तरं चिनुत।
પ્રશ્ન 1.
क: अष्टौ मासान् भूम्या: वसु पिबति?
(अ) सूर्यः
(ब) कृषक:
(स) द्विजः
(द) मेघः
उत्तर :
(अ) सूर्यः
પ્રશ્ન 2.
…………….. सस्यसम्पद्मिः कर्षकाणां मुदं ददुः।
(अ) ग्रहाः
(ब) क्षेत्राणि
(स) खद्योताः
(द) पाखण्डाः
उत्तर :
(ब) क्षेत्राणि
પ્રશ્ન 3.
मार्गाः सन्दिग्धाः कदा भवन्ति?
(अ) निशामुनेषु
(ब) दिवसे
(स) वर्षाकाले
(द) कलौयुगे
उत्तर :
(स) वर्षाकाले
પ્રશ્ન 4.
गृहेषु तप्ता: कदा आनन्दिताः भवन्ति?
(अ) भगवज्जनागमे
(ब) वर्षागमे
(स) निशामुख्नेषु
(द) भास्करागमे
उत्तर :
(अ) भगवज्जनागमे
2. एकेन वाक्येन संस्कृतभाषया उत्तरत।
પ્રશ્ન 1.
भगवज्जनागमे के आनन्दिताः भवन्ति?
उत्तर :
गृहेषु तप्ता: निर्विण्णाः जनाः भगवज्जनागमे आननन्दिताः भवन्ति।
પ્રશ્ન 2.
मेघागमोत्सवा: हृष्टा: के प्रत्यनन्दन्?
उत्तर :
मेघागमोत्सवाः हृष्टाः शिखण्डिनः प्रत्यनन्दन्।
પ્રશ્ન 3.
मार्गाः कीदृशा: बभूवुः?
उत्तर :
मार्गाः तृणैः छन्नाः, असंस्कृताः सन्दिग्धाः बभूवुः।
પ્રશ્ન 4.
खद्योता: कदा भान्ति?
उत्तर :
खद्योता: निशामुख्नेषु भान्ति।
3. दो या तीन वाक्यों में मातृभाषा में उत्तर लिखिए।
પ્રશ્ન 1.
वर्षा के आगमन पर जलथलवासी जीवों का रूप कैसा हो जाता है?
उत्तर :
वर्षा के आगमन पर जल-थल-वासी सभी जीव वर्षा के नूतन-जल का सेवन कर और अधिक सुन्दर हो जाते है। जीवों का रूप-सौंदर्य और अधिक निखर उठता है। उनके सौंदर्य में अभिवृद्धि हो जाती है। जैसे भगवान की सेवा करने से भक्त का आंतरिक एवं बाह्य रूप निखर उठता है।
પ્રશ્ન 2.
भगवान भास्कर योग्य समय आने पर क्या करते हैं?
उत्तर :
भगवान भास्कर एक कुशल नृप की भाँति आठ मास तक करके रूप में पृथ्वी से जल ग्रहण करते हैं, तथा योग्य समय आने पर प्रजारूपी पृथ्वी को अपने किरण रूपी करों से उस जल को मुक्त करते है।
इस प्रकार पृथ्वी रूपी प्रजा से कर के रूप में जल लेकर उसके सर्व-विध कल्याण हेतु प्रजापालक, कल्याण-कारी राजा की भाँति किरण रूपी हाथ से जल-मुक्त कर पृथ्वी को आनन्द प्रदान करते हैं।
वर्षावर्णनम् Summary in Hindi
वर्षा-वर्णनम् (वर्षा का वर्णन)
सन्दर्भः – श्रीमद् भागवत महापुराण का अठारह पुराणों में महत्त्वपूर्ण है। सर्वसामान्य जनता में भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रीति उत्पन्न हो, इस उद्देश्य से महर्षि व्यास ने इस पुराण की रचना की थी। उन्होंने अपने पुत्र शुकदेव को एवं शुकदेव ने राजा परिक्षित को यह कथा सुनाई थी। सत्य स्वरूप परमेश्वर का वाङ्मय-स्वरूप है श्रीमद् भागवत। श्रीमद् भागवत में द्वादश-स्कन्ध हैं तथा अठारह हजार श्लोक हैं।
वर्षा-वर्णनम् शीर्षकान्तर्गत पाठ का अंश श्रीमद् भागवत के दशमस्कन्ध के बीसवें अध्याय से उद्धृत किया गया है। यहाँ वर्षाऋतु एवं शरदऋतु का सुन्दर वर्णन किया गया है। उनमें से वर्षा ऋतु से सम्बद्ध सात श्लोकों का चयन कर यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
वर्षाऋतु के आगमन मात्र से मेघ गर्जना एवं घन-दामिनी के संयोग से गगन-मण्डल कान्तिमान हो जाता है। मेघों से जलधारा की वृष्टि होने लगती है। वर्षा के आगमन होने पर प्रकृति चतुर्दिक हरितिमा से आच्छादित हो जाती है।
धनधान्य से परिपूर्ण खेतों को देखकर किसानों का मन-मयूर नृत्य करने लगता है। स्थलचर एवं नभचर प्राणी अत्यंत नवीन रूप धारण करते हैं। भूमण्डल पर सर्वत्र हरियाली छा जाती है एवं सारे मार्ग ढुक जाते हैं।
वर्षा का आगमन मयूरों के लिए एक उत्सव बन जाता है तथा वे मदमस्त होकर नृत्य करने लगते हैं तथा उनके सुमधुर केकारव से समग्र दिङ्मण्डल गुञ्जायमान हो जाता है, इस प्रकार मोर अपनी प्रसन्नता अभिव्यक्त करते हैं।
इस काव्य की विशेषता यह है कि इसमें वर्षाऋतु का सुन्दर शब्दों में सजीव वर्णन किया है। यहाँ उपमा अलंकार का प्रयोग रमणीय है। यहाँ उपमान के रूप में चयनित पदार्थ अत्यंत आकर्षक हैं यथा – तृतीय पद्य में रात्रि के प्रारंभ में अंधकार में चमकते हुए जुगनुओं की तुलना दाम्भिक एवं पाखंडी लोगों के साथ तथा अदृश्यमान ग्रहों की तुलना वेदों से की गई है।
कलियुग में पाप का साम्राज्य चारों ओर व्याप्त दिखाई देता है तथा पाखंडी लोगों का प्रभुत्व अधिक दिखाई देता है। वहीं दूसरी ओर वेद विस्मृत हो चुके हैं। छठे श्लोक में घास से आच्छादित मार्ग की साम्यता अभ्यासाभाव से विस्मृत वेद-ज्ञान से तथा सप्तम श्लोक में मेघागमन से हर्षित मयूरों की साम्यता गृहस्थ लोगों से की गई है।
पंचम श्लोक में नववारिनिषेवया तथा हरि निषेवया शब्दों के प्रयोग में यमकालंकार का सुन्दर प्रयोग है। इन सभी पद्यों में अनुष्टुप छन्द है।
अन्वय, शब्दार्थ एवम् अनुवाद
1. अन्वय : तत: विद्योतमानपरिधि: विस्फूर्जितनभस्तला सर्वसत्त्व समुद्भवा प्रावृट् प्रावर्तत।
शब्दार्थ : विद्योतमानपरिधिः = कान्तिमान, दीप्तिमान प्रकाश से युक्त परिधि (वर्तुल) है जिसकी ऐसी वह (वर्षाऋतु) विद्योतमाना परिधिः यस्याः सा-बहुव्रीहि समास। विस्फूर्जितनभरतला: = मेघ-गर्जना से युक्त गगन-मण्डल है जिसका (वह वर्षा ऋतु)। नभसः तलम् नभस्तलम् षष्ठी तत्पुरुष समास।
विस्फूर्जितम् नभस्तलम् यस्याः – सा (प्रावृट्) बहुव्रीहि समास। सर्वसत्त्वसमुद्भवा = सभी प्राणियों की उत्पत्ति जिससे होती है वह वर्षा ऋतु। सर्वेषां सत्त्वानाम् उद्भवः यस्याम् सा – बहुव्रीहि समास। प्रावृट् = वर्षा ऋतु। प्रावर्तत = आरंभ हुई, प्रवृत्त हुई। प्र उपसर्ग + वृत् धातु, ह्यस्तन भूतकाल, अन्य पुरुष, एकवचन।
अनुवाद : तब (समस्त गगनमण्डल को) घन-दामिनी से दीप्तिमान करनेवाली तथा नभमंडल को मेघ-गर्जन से व्याप्त करनेवाली तथा सर्वप्राणियों को उत्पन्न करनेवाली वर्षा ऋतु आरंभ हुई।
2. अन्वय: – (भास्करण) भूम्या यद् जलमयं वसु अष्टौ मासान् निपीतम् (तद्) काल आगते भास्करः स्वगोभिः मोक्तुम् आरेभे।
शब्दार्थ : भूम्या = भूमि से। वसु = सम्पत्ति, धन। अष्टौ = आठ। मासान् = महीने। निपीतम् = पी लिया हुआ, पीया हुआ, नि उपसर्ग + पा धातु + क्त – कर्मणि भूत कृदन्त। काल – आगते = समय आने पर (सति – सप्तमी का प्रयोग), भास्करः – मार्तण्ड, रवि, दिनकर, दिवाकर, भानु, आदित्य आदि। स्वगोभिः = अपनी किरणों से। गो = किरण। मोक्तुम् = मुक्त करना। आरेभे = आरंभ किया।
अनुवाद : (एक नृप की भाँति भगवान्) भास्कर ने भूमि से आठ माह तक (कर के रूप में) जल रूप धन ग्रहण किया (तथा – अब योग्य-समय आने पर) अपनी किरणों से मुक्त करना आरम्भ किया।
3. अन्वय: – यथा निशामुखेषु खद्योता: तमसा भान्ति, ग्रहा: न (भान्ति) तथा कलौ युगे पाखण्डा: पापेन (भान्ति) न हि वेदाः।
शब्दार्थ : निशामुख्नेषु = रात्रि के आरंभ के समय निशाया: मुखम् इति निशामुखम् तेषु – इति षष्ठीतत्पुरुष समास। खद्योता: = जुगनु। तमसा = अन्धकार के द्वारा। भान्ति = सुशोभित होते हैं। कलौ युगे = कलियुग में। पापेन = पाप से।
अनुवाद : जिस प्रकार (वर्षा ऋतु में) रात्रि के आरंभ के समय अंधकार में जुगनु सुशोभित होते हैं न कि (आकाश में विद्यमान) ग्रह, उसी प्रकार कलियुग में पाप (के प्रभाव) से पाखण्ड (व्याप्त) है न कि वेद।
4. अन्वयः – क्षेत्राणि सस्यसम्पद्भिः कर्षकाणां मुदं ददुः। दैवाधीनम् अजानताम् धनिनाम् उपतानयम् च (ददुः)।
शब्दार्थ : सस्यसम्पद्भिः = धान्य रूपी सम्पत्ति से (सस्यम् एव सम्पत् तैः – कर्मधारय समास। मुदम् = आनन्द। ददुः = दिया, प्रदान किया, (दा धातु, परोक्ष भूतकाल, अन्य पुरुष, बहुवचन। दैवाधीनम् = भाग्य के अधीन, दैवस्य अधीनम् इति – षष्ठीतत्पुरुष समास। अजानताम् = जानत् वर्तमान कृदन्ति, न जानत् इति अजानत् – तेषाम्, अजानताम् नञ् तत्पुरुष समास नहीं जाननेवाले लोगों का। धनिनाम् = धनवान लोगों को। उपतापम् = संताप, दुःख (यहाँ ईर्ष्यारूपी जलन का भाव भी ग्राह्य है।)
अनुवाद : (वृष्टि के द्वारा हरे भरे) अन्न से समृद्ध खेतों ने किसानों को आनन्द प्रदान किया तथा (सब कुछ) भाग्य के अधीन है, यह नहीं जानने वाले धनिक लोगों को सन्ताप प्रदान किया। (आशय यह है कि सम्यक् वृष्टि के कारण अब धनवान जन किसानों का शोषण नहीं कर सकेंगे।
कृषकों के लिए वर्षाकाल नव-जीवन प्रदान करते हुए आनन्दित कर रहा है तो दूसरी ओर सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है। इस विषय से अज्ञात धनिक जन संतप्त हो रहे हैं या ईर्ष्यावश उनके चित्त में जलन हो रही है कि अब वे कृषकों को अपने वश में करके उनका अनुचित लाभ नहीं उठा सकेंगे।)
5. अन्वयः – यथा सर्वे हरि-निषेवया तथा (सर्वे) जलस्थलौकस: नववारिनिषेवया रूचिरं रूपम् अबिभ्रत् !
शब्दार्थ : हरि-निषेवया = हरि की सेवा से, हरे: निषेवा इति हरिनिषेवा तया हरिनिषेवया – षष्ठी तत्पुरुष समास। जलस्थलौकस: = जल एवं स्थल में निवास करनेवाले, जलं च स्थलं ओकः येषां ते – बहुवचनम्। नववारिनिषेवया = नए जल के सेवन से, नवं च तट्ट वारि इति नव वारि – धर्मधारय समास, तस्य निषेवा इति नववारिनिषेवा तया – षष्ठी तत्पुरुष समास। रूचिरम् = सुन्दर, अबिभ्रत् = धारण किया।।
अनुवाद : जिस प्रकार भगवान की सेवा से (बाह्य एवं आन्तरिक दोनों ही) रूप अधिक सुन्दर हो जाता है उसी प्रकार (वर्षा के आगमन से) नए जल के सेवन से जल-थल-वासी समस्त जीवों का रूप (और अधिक) मनोहर हो गया।
6. अन्वयः – तृणैः छन्ना: मार्गाः सन्दिग्धा: असंस्कृता: हि बभूवुः (यथा) द्विजैः न अभ्यस्यमाना: श्रुतयः कालहता इव (जाता:)।
शब्दार्थ : तृणैः छन्ना: = घास से ढंके हुए। सन्दिग्धा = अस्पष्ट। असंस्कृता: = अपरिष्कृत, घास-फूस-लताओं आदि से अवरुद्ध – यह अर्थ यहाँ ग्राह्य है। बभूवुः = हो गए – भू धातु, परोक्ष-भूत-काल, अन्य पुरुष, बहुवचन। द्विजैः = ब्राह्मणों के द्वारा, अभ्यस्यमाना: = अभ्यास या स्वाध्याय करते हुए, श्रुतयः = वेद, कालहता: = यथा समय नष्ट होने वाले।
अनुवाद : जिस प्रकार विप्रो के द्वारा श्रुतियों का अभ्यास न किए जाने पर वे नष्टप्राय हो चुकी हैं उसी प्रकार घास से आच्छादित मार्ग अपरिष्कृत एवं अस्पष्ट हो चुके हैं।
7. अन्वय: – यथा गृहेषु तप्ता: निर्विण्णा: भगवज्जनागमे (प्रसन्नाः भवन्ति, तथैव) मेघागमोत्सवा: हृष्टा: शिखण्डिन: प्रत्यनन्दन्।
शब्दार्थ : तप्ता: = संतप्त, दुःखी, आधि दैविक, आधि भौतिक एवं आध्यात्मिक, इन तीन प्रकार के तापों से संतप्त। निर्विण्णा: = थके हुए, परिश्रान्त, शोकग्रस्त। भगवत् जन – आगमे = भगवान के भक्तों का आगमन होने पर, भगवतः जनाः इति भगवज्जनाः षष्ठी तत्पुरुष समास, तेषाम् आग में इति भगवज्जनागमे षष्ठी तत्पुरुष समास। मेघागमोत्सवा: = बादलों के आगमन को उत्सव मानने वाले, (मोर) मेघस्य आगमः इति मेघागमः – षष्ठी तत्पुरुष समास, मेघागमः उत्सवः येषां ते इति मेघागमोत्सवा: – बहुव्रीहि समास। हृष्टा: = प्रसन्न। शिखण्डिनः = मोर। प्रत्यनन्दन् = प्रसन्न हुए, प्रति उपसर्ग, नन्द् धातु, ह्यस्तन भूतकाल, अन्यपुरुष, बहुवचन।
अनुवाद : जिस प्रकार घरों में (बसते संसारी जन) परिश्रान्त एवं सन्तप्त जन भगवान के भक्तों के आगमन पर प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार मेघों के आगमन को उत्सव मानने वाले हर्षित मयूर नर्तन करने लगे।