Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 1 वेदामृतम् Textbook Exercise Questions and Answers, Notes Pdf.
Gujarat Board Textbook Solutions Class 11 Sanskrit Chapter 1 वेदामृतम्
GSEB Solutions Class 11 Sanskrit वेदामृतम् Textbook Questions and Answers
वेदामृतम् Exercise
1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्यः समुचितम् उत्तरं चिनुत।
પ્રશ્ન 1.
आशाः इत्यस्य पदस्य कोऽर्थः ?
(क) श्रद्धा
(ख) विश्वासः
(ग) दिशाः
(घ) देवता
उत्तर:
(ग) दिशाः
પ્રશ્ન 2.
समानेन वो ………………………………………… जुहोमि।
(क) अग्निना
(ख) मनसा
(ग) चित्तेन
(घ) हविषा
उत्तर:
(घ) हविषा
પ્રશ્ન 3.
कमिव अन्यो अन्यमभिहर्यत ?
(क) वत्सं जातमिव
(ख) अजामिव
(ग) गामिव
(घ) मित्रमिव
उत्तर:
(क) वत्सं जातमिव
પ્રશ્ન 4.
अघ्न्या का भवति ?
(क) वत्सा
(ख) गौः
(ग) माता
(घ) पुत्री
પ્રશ્ન 5.
विश्वभेषजः कः अस्ति ?
(क) हस्तौ
(ख) हस्तः
(ग) भगवान्
(घ) अयम्
उत्तर:
(ख) हस्तः
2. Explain the following statement in mother-tongue.
પ્રશ્ન 1.
सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु।
उत्तर:
यह वाक्य वेदामृत नामक पद्य-पाठ से लिया गया है। यह वाक्य अथर्ववेद के 19वे काण्ड के 15वे सूक्त के छठे मंत्र में वर्णित है। पाठ्यपुस्तक में यह मंत्र प्रार्थना शीर्षक के अन्तर्गत दिया गया है।।
वेदों में विधि-निषेध की आज्ञा का दृढ़तापूर्वक पालन करने हेतु कई विभिन्न प्रार्थनाएँ वर्णित हैं। इस प्रकार प्रस्तुत वाक्य में ईश्वर से अभयत्व की प्राप्ति हेतु प्रार्थना की गई है। भारतीय ऋषि इस बात से भली-भाँति परिचित थे कि मानवीय सद्गुणों में अभयत्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
भय-रहित मानव सुखपूर्वक रह सकता है। सम्पत्ति या समृद्धि के मध्य रचा-पचा मानव किं वा किसी भी उच्च पद पर आसीन मानव भी यदि भयभीत होकर, जीवन यापन करता है तो वह प्रतिपल मृत्युवत् अनुभूति करता है। उसका जीवन निरर्थक ही हो जाता है।
भययुक्त जीवन एक प्रकार से मृत्यु का ही परिचायक होता है। अत: यहाँ इस मंत्र में अभयत्व की प्राप्ति हेतु प्रार्थना की गई है। अभयत्व किस प्रकार प्राप्त हो तथा उसका लाभ मानव-मात्र को किस प्रकार प्राप्त हो सके तदर्थ चिन्तन किया जाना चाहिए एवं तदनुसार व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
यदि यह पुरुषार्थ किया जाए तो वेद की यह प्रार्थना अवश्य लाभदायी होती है। यहाँ मित्र से, अमित्र (शत्रु) से, ज्ञात से (परिचित से) परोक्ष से, दिन एवं रात्रि से अभय को प्राप्त करने हेतु प्रार्थना की गई है। मात्र इतना ही नहीं प्रत्युत सभी दिशाएँ हमारी मित्र हों यह कामना की गई है।।
इस प्रकार समस्त दिशाओं से सर्वविध अभयत्व को प्राप्त करते हुए पुरुषार्थ – चतुष्टय को सिद्ध कर जीवन को सफल कर सकते हैं। यही जीवन की सार्थकता है।
પ્રશ્ન 2.
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्या।
उत्तर:
सन्दर्भ : प्रस्तुत पंक्ति वेदामृतम् नामक पद्य-पाठ से ली गई है। यह वाक्य पद्य पाठ में संकल्प नामक शीर्षक के अन्तर्गत प्रदत्त मंत्र का अंश है। यह अथर्ववेद के तृतीय काण्ड के 30 वे सूक्त का प्रथम मंत्र है।
अनुवाद : जैसे गाय अपने बछडे को प्रेम करती है उसी प्रकार तुम सभी परस्पर एकदूसरे को चाहते रहो।। इस पंक्ति के माध्यम से मानवीय व्यवहार की संकल्पना का वर्णन करते हुए ऋषि मानव समाज को मिलकर रहने का उद्बोधन दे रहे हैं।
इस मन्त्र में ऋषि कहते हैं कि मैं तुम सभी को समान हृदयवाले, समान मनवाले एवं विद्वेष रहित करता हूँ। कहने का आशय है कि सभी एकदूसरे को परस्पर प्रेम करते रहें। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े को चाहती है उसी प्रकार सभी एकदूसरे को प्रेम करते रहें।
गाय बच्चे को जन्म देकर वन में चरने जाती है किन्तु सायंकाल लौटते समय उसके रंभाने के स्वर से बछड़ा भी माँ से मिलने के लिए रंभाता है और लालायित होता है। गौ भी बछड़े से मिलने के लिए लालायित होती है।
बछड़े के स्वर को सुनकर गौ वेग से दौड़ते हुए आकर बछड़े से लिपट जाती हैं और उसे चाटने लगती है। ऋषि कहते हैं कि, समाज में सर्वविध सामंजस्य एवं समरसता बनाए रखने के लिए परस्पर प्रेम होना परम् आवश्यक तथा सर्वविध विकास का मूलाधार भी यह प्रेम है।
3. Write answers of the questions in mother-tongue:
Question 1.
For fearlessness from whom does a devotee pray?
उत्तर :
पाठ्यपुस्तक के वेदामृतम् नामक पद्य पाठ में प्रार्थना शीर्षक के अन्तर्गत भक्त जीवन को सार्थक करने हेतु अभय प्राप्त करने हेतु प्रार्थना करता है।
भक्त पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि हेतु तथा सुखमय जीवन के यापनार्थ निर्भय होकर जीवन जीना चाहता है। एतदर्थ भक्त मित्र से, अमित्र अर्थात शत्रु से, ज्ञात से अर्थात परिचित व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि से, अज्ञात से अर्थात परोक्ष से रात्रि से, एवं दिन से अभय की प्रार्थना करता है।
इस प्रकार भक्त समस्त दिशाओं से मित्र बनने के लिए प्रार्थना करता है। समस्त दिशाओं के मित्र होने पर सर्वत्र एवं सर्वविध अभयत्व प्राप्त कर भक्त सम्पूर्ण समाज का कल्याण करते हुए कैवल्य प्राप्ति के मार्ग पर निश्चित होकर आगे बढ़ता है तथा जीवन को सफल बनाता है।।
Question 2.
Knowledge of which items of equality a person must develop ?
उत्तर :
मानव को चाहिए कि समाज में सभी के विचार समान हों, सभा में किसी भी प्रकार का मतभेद न हो, सभी का अंत:करण एक हो इस प्रकार के प्रयत्न करे। सभी के एकसमान विचारों को मान्य रखते हुए ऋषि एकसमान हविद्रव्य से होम करते हैं।
Question 3.
Like whom should people love one another?
उत्तर :
परस्पर एकसमान हृदयवाले होकर, समान मनवाले होकर द्वेषरहित होना चाहिए तथा जिस प्रकार गौ अपने बछड़े से स्नेह करती है उसी प्रकार परस्पर स्नेह करना चाहिए।
Question 4.
How is the human hand depicted in the Mantra?
उत्तर :
मंत्र में भगवान के हाथ को भाग्यवान् ‘अतिशय ऐश्वर्य युक्त, समस्त व्याधियों को समाप्त करनेवाली औषधि एवं कल्याणकारी स्पर्शवाला बताया गया है।
4. Write a critical note on:
Question 1.
समानो मन्त्रः …………………………………॥ Unity of souls reflected in Mantra’
उत्तर :
वेदों में सगृहित पद्यों को मंत्र रूप में जाना जाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वेदों के अतिरिक्त संस्कृत – पद्यों को श्लोक कहा जाता है। ये मन्त्र किसी व्यक्ति की रचना नहीं है, प्रत्युत भिन्न-भिन्न ऋषियों ने स्वयं के अंतःकरण में इन मंत्रों का दर्शन किया था यह भी माना जाता है।
इस मंत्र: शब्द का अर्थ विचार है। वेद के इन सभी मंत्रों में भिन्न-भिन्न विचार कभी प्रार्थना के रूप में तो कभी विधि या निषेध के रूप में तो कभी विशिष्ट तत्त्व के दर्शन के रूप में प्रस्तुति हुई है।
5. मन्त्रस्य पूर्तिः विधेया।
1. अग्ने नय ………………………………… विधेम॥
2. समानो मन्त्रः ………………………………… जुहोमि॥
उत्तर :
1. अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।।
2. समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।।
Sanskrit Digest Std 11 GSEB वेदामृतम् Additional Questions and Answers
वेदामृतम् स्वाध्याय
1. अधोलिखितेभ्यः विकल्पेभ्य: समुचितम् उत्तरं चिनुत।
પ્રશ્ન 1.
…………………………………… मम मित्रं भवन्तु।
(अ) सर्वे वेदाः
(ब) दिवा
(स) मित्राणि
(द) सर्वा आशाः
उत्तर:
(द) सर्वा आशाः
પ્રશ્ન 2.
…………………………………………. रिक्तस्थान साम्मनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
(अ) सहृदयम्
(ब) अभिहर्यत
(स) विधेय
(द) जुहोमि
उत्तर:
(अ) सहृदयम्
પ્રશ્ન 3.
अयं …………………………………………. हस्तो भगवान्।
(अ) ते
(ब) मे
(स) वः
(द) सः
उत्तर:
(ब) मे
પ્રશ્ન 4.
शिवाभिर्शनः कः अस्ति?
(अ) मन्त्रः
(ब) मना
(स) समितिः
(द) हस्तः
(स) गामिव
उत्तर:
(द) हस्तः
2. निम्न प्रश्नों के उत्तर मातृभाषा में लिखिए।
પ્રશ્ન 1.
ऋषि अग्निदेव से क्या प्रार्थना करते हैं?
उत्तर :
ऋषि अग्निदेव से प्रार्थना करते है कि सर्वविध ज्ञान से युक्त, विद्यावान, अग्निदेव धन के लिए उन्हें प्रार्थना करनेवाले प्रत्येक भक्त को सन्मार्ग पर ले जाएँ तथा सभी से कुटिल बन्धनकर्ता पाप को दूर करे।
પ્રશ્ન 2.
सङ्कल्प व उद्घोष का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
मन में किया जानेवाला विचार, अथवा किसी कार्य को सम्पन्न करने का मन में दृढ़ निश्चय-सङ्कल्प कहलाता है।
3. विवरणात्मक टिप्पणी लिखिए।
1. अभयम् :
मानवीय सद्गुणों में अभय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। भयरहित मनुष्य सबसे अधिक सुखी है। अत्यधिक सम्पत्ति के उच्च-उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति भी यदि भयभीत होते हुए जीवन-यापन करते हों तो उस जीवन को भाग्यशाली जीवन किस प्रकार कहा जा सकता है।
अत एव यहाँ वेदमंत्र में अभय-प्राप्ति हेतु प्रार्थना की गई है। अभय किस प्रकार प्राप्त किया जाए तथा उसका लाभ सभी को किस प्रकार सुलभ हो यह चिन्तन किया जाना चाहिए तथा इस प्रकार की व्यवस्थाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
यदि पुरुषार्थ किया जाए तो वेद की यह प्रार्थना अवश्य फल-दायिनी अभयत्व की चरम-सीमा सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु। अर्थात्। सभी दिशाएँ मेरी मित्र बनें यह प्रार्थना के अन्तिम चरण में है जब सभी दिशाएँ मित्र बन जाए तब भय का कोई स्थान नहीं रहेगा।
2. स्वर-चिह्न :
पाठ्यपुस्तक के वेदामृतम् नामक पाठ को यदि ध्यान से देखा जाएँ तो मन्त्रों के ऊपर व नीचे कुछ रेखाएँ दिखाई देती है। वेदमंत्रों के ऊपर व नीचे जो रेखाएँ दृष्टिगोचर होती है वे स्वर चिह्न है। वेदों में तीन स्वर होते है – उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित।
अक्षर के ऊपर की जानेवाली खड़ी रेखा (।) स्वरित स्वर का प्रतीक है। अक्षर के नीचे की जानेवाली आडी रेखा (-) अनुदात्त स्वर का सूचन करती है। उदात्त स्वर के लिए कोई चिह्न नहीं किया जाता है। इस प्रकार किया जानेवाला स्वरांकन वेदमंत्रों के पाठ करते समय उपयोगी होता है तथा यदा-कदा उस शब्द के अर्थ-बोध के लिए निर्णायक होता है। साथ ही वेदों में ओम् का भी अत्यधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।
यह अत्यन्त पवित्र एवं मंगलकारी शब्द माना जाता है। अतः प्रत्येक मंत्र के आरंभ में ओम् का उच्चारण करने की परंपरा है। इसका आशय है – रक्षक – ईश्वर।
वेदामृतम् Summary in Hindi
वेदामृतम् (वेदों का अमृत)
सन्दर्भ : प्रस्तुत पाठ में पाँच मंत्र दिए गए है। प्रथम, चतुर्थ एवं पंचम मंत्र अथर्ववेद के हैं, द्वितीय मंत्र यजुर्वेद का है तथा तृतीय मंत्र ऋग्वेद का है।
विश्व साहित्य में संसार के पुस्तकालयों में प्राचीनतम ग्रन्थ वेद हैं। भारतीय प्राचीन परम्परा के अनुसार वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। अर्थात् वेद किसी व्यक्ति-विशेष के द्वारा रचित ग्रन्थ नहीं है। अत्यंत प्राचीन काल में ऋषियों ने अपने अंतःकरण में वेदमंत्रों का दर्शन किया तथा इस प्रकार वेदों का आविर्भाव हुआ। इस प्रकार ऋषियों को वेद-मंत्रों के दृष्टा कहा जाता है। ‘ऋषयो मन्त्र दृष्टारः।
वेदों में समग्र मानव-समाज के कल्याणार्थ विधि-निषेध का उपदेश दिया गया है। विधि अर्थात् इस प्रकार के कार्य किए जाने चाहिए तथा निषेध अर्थात् इस प्रकार के कार्य नहीं किए जाने चाहिए। साथ ही इन विधि-नियमों का सक्षम रूप से पालन करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त हो, इस प्रकार की कुछ प्रार्थनाएँ भी दी गई है। भाव-पूर्ण शब्दावलीयुक्त ये प्रार्थनाएँ भक्तजनों की आत्मिकशक्ति की अभिवृद्धि करती हैं। प्रस्तुत पाठ में वेद-मंत्रों का संग्रह क्रमशः प्रार्थना, संज्ञान, संकल्प एवं उद्घोष इन शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है।
प्रार्थना शीर्षकान्तर्गत प्रदत्त दोनों मंत्रों में अभय एवं धन प्राप्ति की प्रार्थना है।
‘संज्ञान’ शीर्षक के अंतर्गत प्रदत्त मंत्र में संगठन का संज्ञान लेने का उपदेश है। संकल्प एवं उद्घोष-शीर्षकों के अन्तर्गत प्रदत्त मंत्रों में क्रमश: मानवीय-वर्तन की संकल्पना का प्रस्तुतीकरण तथा आत्म-विश्वास को प्रकट करती मानवीय उद्घोषणा का वर्णन किया गया है।
इन सभी वेद-मंत्रों में निहित भावतत्त्व समग्र मानव समाज को समाविष्ट कर लेता है। इन मंत्रों में लिंग, वय अथवा जाति – देश का भेद कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है।।
अन्वय, शब्दार्थ एवं अनुवाद
1. अन्वय : ओम् मित्रात् अभयम्, अमित्रात् अभयम्, ज्ञातात् अभयम्, य: परोक्षात् अभयम्, नक्तम् अभयम्, दिवा च नः अभयम्, (भवतु)। सर्वाः आशा: मम मित्रं भवन्तु।
शब्दार्थ : अभयम् = भय – राहित्य, भय से हीन, भय-हीन होने का भाव। मित्रात् = मित्र से। अमित्रात् = अमित्र से शत्रु से। ज्ञातात् = ज्ञात से, परिचित से। परोक्षात् = परोक्ष से, जो दृष्टिगोचर नहीं है उन वस्तुओं से। नक्तम् = रात्रि में। दिवा = दिन में। नः = हम सभी को। अस्मद् सर्वनाम शब्द की द्वितीया विभक्ति, बहुवचन – अस्मान् – न: – वैकल्पिक रूप। आशा = दिशा। भवन्तु = हो।
अनुवाद : ओम् (हे देव) हमें मित्र से अभय हो, शत्रु से अभय हो, ज्ञात से, परोक्ष से (अज्ञात से) रात्रि एवं दिन में अभय हों तथा सारी दिशाएँ मेरी मित्र हों।
2. अन्वय : – अग्ने देव, अस्मात् विश्वानि वयुनानि विद्वान् राये सुपथा नय अस्मत् जुहुराणम् एन: दुयोधि भूयिष्ठाम् ते उक्तिम् नम: विधेम।
शब्दार्थ : अग्ने = हे अग्निदेव – अग्नि पुल्लिंग शब्द संबोधन, एकवचन। विश्वानि = सभी। वयुनानि = विविध प्रकार की बुद्धिमत्ता, ज्ञान। विद्वान् = विद्यावान्। राये = धन के लिए। सुपथा = सन्मार्ग से। नय = ले जाना – आज्ञार्थ मध्यम पुरुष, एकवचनम्। अस्मत् = हम सभी से – अस्मद् सर्वनाम, पंचमी विभक्ति, बहुवचन। जुहुराणम् = कुटिल – बन्धन कर्ता। एन: = पाप को – एनस् – नपुंसक लिंग, द्वितीया विभक्ति, एकवचन। युयोधि = दूर करें। भूयिष्ठाम् उक्तिम् = अतिशय उक्ति को, अत्यधिक विस्तृत कथन को – वचन को। नमः = प्रणाम – यह एक अव्ययपद है। विधेम = विधान करते हैं – निवेदन करते हैं।
अनुवाद : हे अग्निदेव ! सभी प्रकार के विविध ज्ञान से युक्त, विद्यावान् आप हमें धन के लिए सन्मार्ग से ले जाएँ, हम सभी से कुटिल बन्धनकर्ता पाप को दूर करें। आपके अत्यधिक विस्तृत कथन को हम प्रणाम करते है।
3. अन्वय : व: समान: मन्त्रः, समानी समितिः, समानम् मनः एषाम् चित्तम् सह, समानं मन्त्रम् अभिमन्त्रये, समानेन हविषा जुहोमि।
शब्दार्थ : वः = तुम सभी को – युष्मद् सर्वनाम, द्वितीया विभक्ति बहुवचन। समान: मन्त्रः = एकसमान विचार। समानी समिति: = एकसमान सभा। समानम् मनः = एकसमान मन। एषाम् चित्तं सह = इन सभी का अन्त:करण एकसमान हो। अभिमन्त्रये = विचार करता हूँ। हविषा = हवि के द्वारा – हविस् नपुं. लिंग, तृतीया विभक्ति, एकवचन – यज्ञ में आहुति के लिए, प्रमुखतया वनस्पतिजन्य पदार्थों को हवि कहा जाता हैं। जुहोमि = हवन करता हूँ।
अनुवाद : तुम सभी के (तुम्हारे) विचार एकसमान हो, तुम्हारी सभा एकसमान हो, (एक मतवाली सभा), तुम्हारा चिन्तन एक समान हो, इन सभी का अंत:करण एकसमान हो। मैं समानता के विचारों को मान्य करता हूँ, मैं एकसमान हवि द्रव्य से होम (यज्ञ) करता हूँ।
4. अन्वय : – वः सहृदयं साम्मनस्यम् अविद्वेषम् कृणोमि। अज्या जातम् वत्सम् इव अन्यो अन्यम् अभिहर्यत।
शब्दार्थ : वः = युष्मद् सर्वनाम्, द्वितीया विभक्ति, बहुवचन – का वैकल्पिक रूप – युष्मान्। सहृदयम् = समान हृदयवाला। साम्मनस्यम् = समान मनवाला। अविद्वेषम् = द्वेष रहित। कृणोमि = करता हूँ, बनाता हूँ। अघ्या = गाय। वत्सम् = बछड़े को। जातम् = उत्पन्न। अन्यो अन्यम् = पारस्परिक, एकदूसरे को। यह वैदिक प्रयोग है, अतः संधि का अभाव है। अभिहर्यत = एकदूसरे को चाहते रहो, परस्पर एकदूसरे को प्रेम करो।
अनुवाद : मैं तुम सभी को समान हृदयवाले, समान मनवाले एवं द्वेषरहित बनाता हूँ। जिस प्रकार गाय अपने बछड़े को प्रेम करती है उसी प्रकार तुम परस्पर एकदूसरे को चाहते रहो।
5. अन्वय : अयम् मे हस्त: भगवान्, अयम् में (हस्तः) भगवत्तर:, अयम् मे (हस्त:) विश्वभेषज: अयं (मे हस्त:) शिवाभिमर्शनः।
शब्दार्थ : मे = अस्मद् सर्वनाम शब्द, षष्ठी विभक्ति एकवचन। भगवान = भाग्यवान्। भगवत्तरः = अतिशय, ऐश्वर्य युक्त। विश्वभेषजः = समस्त व्याधियों, रोगों को समाप्त करनेवाली औषधि, समस्त रोगों की औषधि। शिवाभिमर्शनः = कल्याणकारी स्पर्शवाला।
अनुवाद : यह मेरा हाथ ऐश्वर्य-युक्त है, यह मेरा हाथ अतिशय भाग्यवान है, यह मेरा हाथ सर्व व्याधियों को समाप्त करनेवाली औषधि है, यह मेरा हाथ कल्याण-कारी स्पर्श से युक्त है।