Gujarat Board GSEB Solutions Class 11 Sanskrit व्याकरण छंद परिचय Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 11 Sanskrit Vyakaran छंद परिचय
पाठ्यक्रम में निर्धारित छंद पाँच हैं :
- अनुष्टुप,
- मन्दाक्रान्ता,
- मालिनी,
- तोटक और
- इन्द्रवज्रा
संस्कृत छंद दो प्रकार के हैं :
- वैदिक और
- लौकिक।
जो छंद वेद-संहिताओं में उपयोग में लिए गए हैं, वे वैदिक छंद कहे जाते हैं। जबकि प्रशिष्ट संस्कृत साहित्य में अर्थात् लौकिक साहित्य में जो छंद उपयोग में लिए गए हैं उन्हें लौकिक छंद कहा जाता है। यहाँ लौकिक छंदों का प्राथमिक परिचय प्राप्त करेंगे और फिर अभ्यासक्रम में निश्चित किए गए-
- अनुष्टुप
- मन्दाक्रान्ता
- मालिनी
- तोटक और
- इन्द्रवज्रा – ये पाँच लौकिक छंद सीखेंगे।
लौकिक छंद दो प्रकार के हैं :
- जाति और
- वृत्त।
जाति प्रकार के छंद में मात्राओं की गणना होती है। इसलिए, इस प्रकार के छंदों को मात्रिक छंद के रूप में भी जाना जाता है। वृत्त प्रकार के छंद में लघु-गुरु के निश्चित क्रम के अनुसार पद या चरण के अक्षरों की गणना की जाती है। इस प्रकार के छंदों को वर्णिक छंद के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि यहाँ अक्षर के गुरु और लघु ऐसे रूप की गणना होती है।
वृत्त छंद के तीन भेद हैं – सम, अर्धसम और विषम। जिस छंद के चारों पद समान गणवाले और समान अक्षर संख्यावाले हों, उसे ‘समवृत्त’ कहते हैं। जिस छंद के प्रथम और तृतीय पद समान गणवाले और द्वितीय और चतुर्थ पद समान गणवाले हों उसे ‘अर्धसमवृत्त’ कहते हैं; जबकि चारों पदों के गण अलग-अलग हों, उसे ‘विषम वृत्त’ कहते हैं।
इतनी जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद संस्कृत छंदों का अभ्यास करने से पहले छंद शास्त्र से सम्बन्धित निम्नलिखित कुछ संज्ञाएँ भी जान लेना अत्यन्त आवश्यक है।
जैसे कि –
1. लघु और गुरु
हस्व स्वर लघु है। ये हस्व स्वर स्वयं और जिस व्यंजन में ऐसा ह्रस्व स्वर हो, उस व्यंजन को लघु कहते हैं। जैसे कि ‘अ’ यह वर्ग ह्रस्व स्वर है, इसलिए यह लघु कहा जाता है। इसी प्रकार ‘क’ को भी लघु कहा जाता है। क्योंकि यहाँ ‘क’ व्यंजन में स्थित ‘अ’ हृस्व स्वर है। संस्कृत में अ, इ, उ, ऋ और लु ये पाँच स्वर हृस्व स्वर हैं।
दीर्घ स्वर स्वयं और जिस व्यंजन में ऐसा दीर्घ स्वर निहित हो, उस व्यंजन को गुरु कहते हैं। जैसे, कि ‘आ’ यह वर्ण दीर्घ स्वर है। इसलिए वह गुरु कहलाता है। इसी प्रकार ‘का’ को भी गुरु कहा जाता है। क्योंकि यहाँ ‘क’ व्यंजन में स्थिति ‘आ’ दीर्घ स्वर है। संस्कृत में आ, ई, उ, ऋ, ए, ऐ, ओ और औ ये आठ स्वर दीर्घ है।
यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि ह्रस्व या लघु के बाद संयुक्ताक्षर, विसर्ग या अनुस्वार आता हो तो वह ह्रस्व या लघु वर्ण गुरु बन जाता है। जैसे कि – अग्निौ यहाँ ‘अ’ वह हृस्व स्वर होने से लघु है। लेकिन इसके बाद ‘ग्नि’ में ‘ग् न’ ऐसे संयुक्ताक्षर होने के कारण वह ह्रस्व स्वर गुरु बन जाता है। इसी प्रकार पद चरण के अंत में आनेवाला लघुवर्ण भी गुरु माना जाता है।
छंदशास्त्र में लघु के ‘ल’ और गुरु के लिए ‘ग’ लिखा जाता है। लघु वर्ण की पहचान के लिए चिह्न का भी उपयोग किया जाता है जो निम्नानुसार हैं –
लघु वर्ण की पहचान के लिए उस वर्ण के ऊपर अर्धचन्द्राकार () का चिह्न लगाया जाता है। और गुरु वर्ण की पहचान के लिए ऊपर सीधी रेखा (-) का चिह्न लगाया जाता है। जैसे कि – भाषा में धुं रा यहाँ भा, षा और रा ये तीनों वर्ण गुरुवर्ण हैं यह बताने के लिए इनके ऊपर सीधी रेखा का चिह्न लगाया है। म और धु ये दोनों वर्ण लघुवर्ण हैं, यह बताने के लिए इनके ऊपर अर्धचन्द्राकार का चिह्न लगाया है।
2. यति
किसी भी श्लोक का गान या पठन करते समय कुछ स्थान पर विराम करना (रुकना) होता है। इस विराम-स्थल को यति कहते हैं। श्लोक का चरण पूर्ण हो तो यति अनिवार्य होता है। इसके उपरांत गान या पठन की सुविधा और वैविध्य के लिए श्लोक के चरण के बीच में भी यति आती है। छंद के लक्षण देते समय ऐसे यति के स्थान का उल्लेख किया ही होता है। जैसे कि – अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारती। इस श्लोक में आठ अक्षर पूर्ण होने पर श्लोक का चरण पूर्ण होता है, इसलिए यहाँ यति आता है। इसके परिणामस्वरूप यह श्लोक बोलते समय यहाँ विराम करना (रुकना) होता है। अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयम् (थोड़ा रुककर) इसके बाद ‘विद्यते तव भारती।’ आदि (इसके दूसरे उदाहरण आगे देखेंगे)
3. गण
गण अर्थात् समूह (विशेष प्रकार का समुदाय)। छंदशास्त्र में, श्लोक के चरण में आनेवाले अनेक अक्षरों-वर्णों को तीन-तीन के समूह में बाँटकर, तीन-तीन अक्षरों के उस त्रिक को (तीन अक्षरों के समूह को) गण के रूप में जाना जाता है। जैसे कि – तदपि तव गुणानामीश पारं न याति। यह एक श्लोक का अंतिम चरण है। यहाँ पंद्रह वर्ण हैं। इन्हें तीन-तीन के समूह में बाँट दिया जाता है : ‘तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।’ यहाँ जो पाँच त्रिक हुए, उन्हें (प्रत्येक को एक-एक) गण के रूप में जाना जाता है। संक्षिप्त में जो तीन वर्गों का जो समुदाय है, वह गण के रूप में जाना जाता है।
गण आठ हैं और उन्हें इस प्रकार अलग-अलग वर्गों से जाना जाता है य, म, त, र, ज, भ, न, स, ल और ग; यहाँ य अर्थात् य गण, म अर्थात् म गण इस प्रकार है) इन सभी गणों के स्वरूप को समझने के लिए यह एक पंक्ति याद रखनी चाहिए – य मा ता रा ज भा न स ल ग म्। इस पंक्ति का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं है; किन्तु इस पंक्ति में य गण आदि आठों गणों की स्वरूपगत पहचान दी गई है।
इसे समझने के लिए सर्वप्रथम इस पंक्ति के आठ त्रिक बनाने हैं। इसकी रीति इस प्रकार है – सर्वप्रथम एक त्रिक (तीन वर्गों का समुदाय) बनाना है। जैसे कि यमाता। इसके बाद दूसरा त्रिक बनाते समय इस प्रथम त्रिक का एक वर्ण अर्थात् प्रथम वर्णों हटा देना है। ऐसा करने पर ‘माता’ ये दो वर्ण शेष रहते हैं और अब नया त्रिक बनाने के लिए इन दो वर्गों के साथ उपर्युक्त पंक्ति में से आगे का वर्ण – ‘रा’ जोड़कर (मातारा) ऐसा एक दूसरा त्रिक बनाना होता है। इसी प्रकार क्रमश: ताराज, राजमा, जमान, मानस, नसल और सलगम् इस रूप में गण बनते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर आठ त्रिक बनते हैं।
ये आठ त्रिक अपने प्रथम वर्ण पर से उस गण की संज्ञा बनते हैं। उदाहरण स्वरूप – यमाता इस त्रिक की ‘य’ गण संज्ञा है। मातारा इस त्रिक की ‘म’ गण आदि।
अब जो ये ‘य’ गण, ‘म’ गण आदि आठ गण तैयार हुए, इनका स्वरूप निश्चित करने के लिए प्रत्येक त्रिक में आनेवाले अक्षर के लघु-गुरु को ध्यान में रखना है। उदाहरण स्वरूप य गण का त्रिक है यमाता। यहाँ ‘य’ ह्रस्व होने से लघु वर्ण है, जबकि ‘मा’ और ‘ता’ दीर्घ होने से गुरुगण है। इसलिए जिस त्रिक में पहला वर्ण लघु और बाकी के दोनों गण गुरु हों, उस गण को ‘य’ गण कहा जाता है। इसी प्रकार ‘म’ गण का त्रिक ‘मातारा’ है। यहाँ मा, ता और रा ये तीनों वर्ण दीर्घ होने से गुरु वर्ण हैं। इसलिए जिस त्रिक में तीनों वर्ण गुरु हों, उस गण को ‘म’ – गण कहते हैं। ऐसा ही बाकी के छ: गणों के लिए भी समझ लेना है।
इतनी जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद अब हम
- अनुष्टुप
- मन्दाक्रान्ता
- मालिनी
- तोटक और
- इन्द्रवज्रा ये पाँच छंद सीखेंगे।
1. अनुष्टुप् (अनुष्टुभ्)
संस्कृत में इस छंद का नाम अनुष्टुभ् भी है। लेकिन हिन्दी में यह अनुष्टुप के रूप में ही लिखा-पढ़ा जाता है। (इसलिए हम भी हिन्दी भाषा के अनुरूप अनुष्टुप शब्द का ही उपयोग करेंगे) इसका लक्षण है।
पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयोः।
गुरु षष्ठं च पादानां शेषेष्वनियमो मतः।।
अर्थात् अनुष्टुप में चार चरण होते हैं। इन चारों चरणों में पाँचवाँ अक्षर लघु होता है। दूसरे और चौथे इन दो चरणों में सातवाँ अक्षर लघु होता है, जबकि चारों चरणों में छठा अक्षर गुरु होता है। बाकी के अक्षरों के लिए लघु-गुरु का कोई नियम निश्चित नहीं है।
उदाहरण –
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत्।।
अर्थात् उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम जहाँ ये छः होते हैं, वहाँ देवता सहायता करते हैं।)
यहाँ चार चरण हैं। प्रत्येक में आठ-आठ अक्षर हैं। प्रथम चरण का पाँचवाँ अक्षर ‘ह’ और छठा अक्षर ‘सं’ क्रम से लघु और गुरु हैं। इसी प्रकार बाकी के तीनों चरणों में पाँचवाँ और छठा अक्षर क्रमशः लघु और गुरु हैं। दूसरे और चौथे चरण में सातवाँ अक्षर (क्रम और य) लघु हैं। इस प्रकार उपर्युक्त श्लोक में अनुष्टुप के सभी लक्षण बिलकुल सही हैं। इसलिए इसे अनुष्टुप छंद के रूप में जाना जाता है।
2. मन्दाक्रान्ता
इस छंद का लक्षण है : मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ त्र-युग्मम्। अर्थात् जिस श्लोक के प्रत्येक चरण में क्रमश: म गण, भ गण, न गण, त गण दो बार और अन्त में दो गुरु अक्षर हों, उसे मन्दाक्रान्ता कहते हैं। इसमें सत्रह अक्षर का प्रत्येक चरण होता है। प्रत्येक चरण में चौथे, छठे और सातवें अक्षर के बाद यति आती है। लक्षण में प्रयुक्त अम्बुधि, रस और नग द्वारा क्रमश: चार, छः और सात का निर्देश होता है।
उदाहरण –
नन्वात्मानं बहुविगणयन्नात्मनैवावलम्बे
तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गमः कातरत्वम्।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।।।
(है प्रिये ! मैं यहाँ अपने आप को स्वयं संभाल रहा हूँ, इसलिए हे कल्याणि ! तुम भी अधिक कातर (डरपोक) न होना। कौन ऐसी है कि जिसे हमेशा सुख ही मिलता रहा है या हमेशा दुःख ही मिलता रहा है। सुख और दुःख तो चक्र की तरह घूमा करते हैं।)
यहाँ प्रत्येक चरण में सत्रह-सत्रह अक्षर हैं। इन सत्रह अक्षरों के पाँच त्रिक बनते हैं और बाकी के अन्तिम दो अक्षर स्वतंत्र रहते हैं। इन पाँच त्रिकों में प्रथम त्रिक (वि ग ण) सर्व लघु अर्थात् न गण है। चौथा त्रिक (पत्रा त्म) अन्त लघु अर्थात् त गण है और पाँचवाँ (नै वा व) भी अन्त लघु अर्थात् च गण है। बाकी बचे दो स्वतंत्र अक्षर (ल म्बे) गुरु हैं। इसलिए यहाँ जो छंद बना है वह मन्दाक्रान्ता है।
इस श्लोक के गान के समय प्रत्येक चरण में प्रथम चौथे अक्षर पर, फिर इसके बाद के छठे अक्षर पर और फिर इसके बाद के सातवें अक्षर पर यति आती है। (महाकवि कालिदास का ‘मेघदूतम्’ इस छंद में लिखा गया है। उपर्युक्त श्लोक उसी में से लिया गया है।)
3. मालिनी
इस छंद का लक्षण है : न न म य य युतेयं मालिनी भोगिलोकैः। अर्थात् जिस श्लोक के प्रत्येक चरण में दो न गण और फिर उसके बाद क्रमशः म गण, य गण और य गण हो तो उसे मालिनी कहते हैं। इसमें प्रत्येक चरण पन्द्रह अक्षर का होता है। भोगिन् अर्थात् आठ अक्षर पर, और लोक अर्थात् सात अक्षर पर यति आता है।
उदाहरण –
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुवीं।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।
(सिंधु-सागर रूपी पात्र में पर्वत जितना काजल (स्याही के रूप में) हो, कल्पवृक्ष की शाखा (डाली) लेखनी और पूरी पृथ्वी के रूप में कागज हो और फिर शारदा स्वयं लिखनेवाली हों, तो भी हे प्रभु ! आपके गुणों का (इतने अधिक है कि उनका) कोई पार नहीं पा सकता है।)
यहाँ प्रत्येक चरण में पन्द्रह-पन्द्रह अक्षर हैं। इन पन्द्रह अक्षरों के जो पाँच त्रिक (जैसे कि अ सि त, गि रि स इत्यादि) हैं, इनमें प्रथम दो त्रिक (अ सि त और गि रि स) सर्वलघु अर्थात् न गण हैं। तृतीय त्रिक (मं स्यात्क) सर्वगुरु अर्थात् म गण है, जबकि चतुर्थ और पंचम में अन्तिम दो त्रिक (ज्जलंसि, न्धुपात्रे) आदि लघु अर्थात् य गण है। इसलिए यहाँ जो छंद बना है वह मालिनी है, ऐसा कहा जा सकता है।
इस श्लोक के गान के समय प्रत्येक चरण में दो यति आती हैं। प्रथम यति आठवें अक्षर पर है, इसके बाद दूसरा यति प्रथम यति के बाद के सातवें अक्षर पर आता है अर्थात् चरण के अंत में आता है।
4. तोटकम्
इस छंद का लक्षण है : वद तोटकमब्धिसकारयुतम्। अर्थात् जिस श्लोक के प्रत्येक चरण में अब्धि अर्थात् समुद्र। समुद्र चार हैं ऐसी मान्यता के आधार पर यह अब्धि शब्द चार की संख्या का अर्थ देता है, जिससे चार की संख्या में स गण (सलगम् = लघु, लघु, गुरु) हो उसे तोटक कहते हैं। इसमें प्रत्येक चरण बारह अक्षर का होता है। चरण के अंत में यति आती है।
उदाहरण –
अधरं मधुरं वदनं मधुरं
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।।
(अर्थात् अधर-होठ मधुर हैं, वदन-मुख मधुर है, नयन-आँख मधुर हैं, हसित अर्थात् हँसना मधुर है, हृदय मधुर है, गमन अर्थात् जाने की क्रिया मधुर है, इस प्रकार माधुर्य के अधिपति – कृष्ण का अखिल (समस्त वस्तु) मधुर है।)
यहाँ प्रत्येक चरण में बारह-बारह अक्षरों के जो चार त्रिक (तीन-तीन का समूह, जैसे कि अधरं मधुरं वदनं मधुरम्) हैं उनमें प्रत्येक में प्रथम दो अक्षर लघु हैं तथा तीसरा अक्षर गुरु है। इसलिए चारों त्रिक स गण हैं। इसलिए यह तोटक छंद है।
5. इन्द्रवज्रा
इस छंद का लक्षण है : स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः। अर्थात् जिस श्लोक के प्रत्येक चरण में क्रमश: दो त गण, इसके बाद ज गण और अन्त में ग तथा ग अर्थात् दो गुरुवर्ण आए, तो उसे इन्द्रवज्रा कहते हैं।
उदाहरण –
जामातृयज्ञेन वयं निरुद्धाः
त्वं बाल एवासि नवं च राज्यम्।
युक्तः प्रजानामनुरञ्जने स्याः
तस्माद्यशो यत् परमं धनं वः।।
अर्थात् हम जमाई (दामाद) के यज्ञ में है और तुम अभी बालक (यहाँ अनुभवहीन के अर्थ में लेना है) हो, और राज्य भी (तुम्हारे हाथ में) नया-नया ही प्राप्त हुआ है। इसलिए तुम प्रजा को खुश रखने में ही लगे रहो, इसके द्वारा तुम्हें जो यश मिलेगा, वही तुम्हारा परम धन होगा।)
यहाँ प्रत्येक चरण में ग्यारह अक्षर हैं। इसमें तीन त्रिक हैं और इसके बाद दो अक्षर हैं। अब प्रत्येक चरण में देखने पर ज्ञात होता है कि प्रथम (जैसे कि – जा मातृ, य 1 न) दो त्रिक हैं, ये दोनों त गण हैं (मध्यगुरु)। इसके बाद (व यं नि) ज गण (आदि गुरु) है और अन्त में रू द्ध। : ये दोनों अक्षर गुरु हैं। ऐसा चारों चरण में है, इससे इसे इन्द्रवज्रा छंद कहते हैं।
पाँचवें पाठ में दो श्लोक हैं – क्रोधं प्रभो संहर……। वह इन्द्रवज्रा का उदाहरण है।
Introduction to Poetic – meter
Only five poetic metres are included in the syllabus-
- Anushtup
- Mandakranta
- Malini
- Totak and
- Indravajra
Sanskrit poetic – metres are of two kinds :
- ‘Vaidik’ and
- ‘Laukik’i.e.
popular – colloquial. Those poetic – metres used in Vedas – samhitas are called Vaidik poetic – metres, white those used in cultured Sankrit literature are known as ‘laukik’i.e. popular poetic – metres. Here we try to familiarise ourselves with popular – ‘Laukik’ poetic – metres first. Thereafter, we will learn those poetic metres which are included in the syllabus
- Anushtup
- Mandakranta
- Malini
- Totak and
- Indravajra
‘laukik’- popular poetic – metres are of two kinds
- ‘Jati’ and
- ‘Vrut’.
In Jati poetic-metre the number of letters in every line/ stanza is counted according to their being of short and long sounds (tune) as. This kind of poetic – metres are also known as ‘Aksharme’ metres, because in that short and long tuned (pronounced) letters are to be counted.
There are three different tyes of ‘Vrut’ meters. Those differnces / dissimilarities are ‘Sam’ (similar/ equel), ‘Ardhasam’ and ‘Visham’ (unique/dd number). In the ‘Samvrut’ first second third and fourth lines i.e. all are of equal measures i.e. number. In the ‘Ardhusamyrut’ the first and the third, the second and the fourth lines consist of same measures – of number of letters while in ‘Visham’ measured the number of letters in all four lines of the stanza is different
After knowing this much detail, it is very necessary to understand some terms related to Sanskrit poetic metre, such as.
1. ‘Laghu’ and ‘Guru’ – Short and Long
Short vowel is ‘Laghu’. This vowel itself and the consonant consisting such a vowel is called short consonant. For instance अ is a short vowel, so it is called ‘Laghu’. In the same way letter क is called ‘Laghu’ because the letter of consists of and अ and this letter is a vowel so the consonant क is called laghu. In Sanskrit there are five vowels अ, इ, उ, ऋ and लृ.
Long vowel itself and the consonant which consists a long vowel are called i.e. long vowel. In Sanskrit there are eight long vowels. They are आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ and औ.
It is also worth noting that when there is a conjunct (compound consonant) a sign ‘:’or a sign ‘.’ on the letter giving out a nasal sound after laghu or guru that laghu letter becomes guru. e.g. अगिन. Here there is a laghu i.e. vowel अ so it is long, but after that there is consisting compound consonant गिन so that short laghu word becomes ‘guru’.
In prosody we write ल for laghu and ग for guru.
The signs that are used for recognising ‘laghu’ and guru are very specific.
For pointing out ‘laghu’ letters a sign of half moon is used. To point out ‘guru’ letter a small horizontal line is used. e.g. भाषा म धु रा here भा षा and रा letters are guru. To point this, horizontal lines are put above those letters, letter म and धु are short so that half-moon signs are put above them.
(2) (Yati) यति (Pause) :
One has always to pause at some places while reading or chanting shlokes. That place where we pause is known as ‘Yati’. Yati is unavoidable at the end of a shloka. Moreover, we have Yati at same interval for ease in reading or singing and even for (bringing) variety/differences in singing or chanting. While pointing out the characteristics of apoetic metre the pause situations are always mentionede.g. अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विधते तव भारती। In this shloka after eight words the quarter of a poem a line ends and so there is ‘Yati’. And hence while chanting that shloka pause there is necessary, one has to take a pause there. अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं (with a little pause) and then विधते तव भारती. (we will see other examples later).
(3) गण (Gana):
The word ‘Gana’ means a group (some type of group). In porosody, letters in a line, a quarter of a poem (charan) are divided into groups of three and the group of three letters is called ‘gana’. eg. तदपि तव गुणानमिश पारं न याति। This is the last line (charan) of same shloka. There are fifteen letters in it. They are
divided into groups of three : तदपि – तवगु – णनामी – श पारं – न याति। There are five groups here. Each group is known as ‘gana’. In short a group of three letters is known as ‘gana’.
There are eight ‘gana’ and they are recognised/identified by different letters : य, म, त, र, ज, भ, न and स that means य means य gana means म gana.
This line य मा ता रा ज भा न स ल ग म। is worth remembering to understand all the gana. This line has no particular menaing, but this line gives an idea of the forms of all eight gana.
In order to understand this, it is necessary to make first groups of three letters.e.g. यमाता. Then, to make another three letter group the first letter of the first three-letter group (gana) must be omitted. So we will have the remaining two letters माता Now, to make the group of three letters the letter रा must be added to mata and make the group like (मातारा) In this way we will have the three letter groups like ताराज, राजभा, जभान, भानस नसल and सलगम् . In this way we will have eight three letter groups.
The first letter of each three group becomes the sign for that group eg. the letter य is the sign of the three letter group यमाता.
Now that we have developed this much understanding, we learn the five poetic metres (prescribed in the syllabus) –
- Anushtup
- Mandakranta
- Malini
- Totak and Indravajra.
1. Anushtup अनुष्टुप् (અનુષ્ટુપ)
This particular poetic metre is known as Anushtup. But in Gujarati language also it is read and written as Anushtup. (so here we use the word Anushtup for it). Its characteristics :
पञ्चमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयोः।
गुरु षष्ठं च पादानां शेषेष्वनियमो मतः॥
The sloka means that there are four metrical sections. In all these sections the fifth letter is laghu. In the second and fourth sections the seventh letter is short. But in all the four sections sixth letter is long. for the rest of the letters there is no fixed principle of long and short.
Illustration –
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः ।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ॥
(It means wherever there are industry, adventure, patience, intelligence, prowess all these six, the almighty always helps.)
There are four metrical sections and in each there are eight letters. The fifth letter of the first section is ह a and the sixth is सं which are short and long in a sequence. The seveth letter in the second and the fourth sections are (क्र and य) short. Thus all the characteristics of Anushtup are completely fitting in the above shloka. So this poetic metre is said to be the ‘Anushtup’.
2. Mandakranta मन्दाक्रान्ता
The characteristic of this poetic metre : मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्मो भनौ तौ त्र्-युग्मम्। It means the shloka in which म gana, भ gana, न gana, त gana are twice and there are two long letters at the end, is in Mandakranta metre. In it every section is of seventeen letters. in every section there is Yati (pause) after every fouth, sixth and seventh letter.
Illustration –
नन्वात्मानं बहुविगणयन्नात्मनैवावलम्बे
तत्कल्याणि त्वमपि नितरां मा गम: कातरत्वम्।
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥
(Oh my love! I am safeguarding/protecting my self here, so Oh, Kalyani! You don’t be a coward. There is no one (in this world) who is always happy or always miserable. Happiness and misery are like the circle that always keeps rotating.)
While chanting this sloka there are pauses in every line (section of the shloka) – first after the fourth letter and then the sixth letter and then the seventh letter (Mahakavi Kalidas’s Meghadootam is written in this poetic metre. The above sloka is taken from that.)
3. Malini मालिनी
Illustration –
असितगिरिसमं स्यात्कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ॥
(Sindhu – Oh! God even if there is (ink) as much as the weight of a mountain in the container as big as an ocean, the pen made of a fabulous divine (wish-fulfilling) tree and the paper are in the form of the whole earth and the writer is the Goddess Sharda, we can not have an idea of your qualities as those are so abundant.)
In tha chanting of this shloka there are two pauses. The first pause is after eight letters and the second pause is after seven letters following the first pause. This means it is at the end of a (section) line.
4. Totakam तोटकम्
The characteristics of this poetic metre is वद तोटकंबधीसकारयुतम।It means the Shloka in which every line (section) there is abdhi means sea. There is a belief that there are four seas and the word Abdhi gives the sense of four) there is स gana in four letters (सलगम् = short, short, long, guru) is called Totak poetic metre. In this every line (section) is of twelve letters and there is a pause at the end of every line (section).
Illustration –
अधरं मधुरं वदनं मधुरं
नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्॥
(It means – lips are pleasant, face is pleasing, attractive, eyes are enchanting lovely to look at, smile is gladdening, heart is pleasing and the act of going is delightful, thus the wielder of sweetness – Krishna’s whole existence is pleasing.)
There are four three letter groups in every line (section) of twelve words, e.g. (groups of three letters like अधरं अधरं मधुरं वदनं मधुरं and in every three-letter group the first two letters are short and the third letter is long. Thus all the four three-letter groups are of स gana. So the poetic metre is Totak.
5. Indravajra इन्द्रवज्रा
The characteristic of this poetic metre is स्यादिइंद्रवजा यदि तो जगै गः।
It means when in all the four lines (sections) of a shloka there are two a gana in an order and after that are gana and lastly there are two long letters, it is called Indravajra.
Illustration –
जामातृयज्ञेन वयं निरुद्धाः
त्वं बाल एवासि नवं च राज्यम्।
युक्तः प्रजानामनुरञ्जने स्याः
तस्माद्यशो यत् परमं धनं वः॥
(It means we are engaged in the sacrificial rite of the son-in-law and you are still a child. Here meaning of the word bal is inexperienced.)
Moreover, the kingdom too (in your possession) is quite new for you, so you remain busy in (your strides) to please people and the glory that you will achieve through that will be your most precious wealth).