Gujarat Board GSEB Solutions Class 10 Hindi Vyakaran रस (1st Language) Questions and Answers, Notes Pdf.
GSEB Std 10 Hindi Vyakaran रस-विवेचन (1st Language)
‘वाक्यं रसात्मक काव्यं’ अर्थात् रसात्मक वाक्य ही काव्य है। रस अनुभूति का विषय है जो पाठक, श्रोता-वक्ता या दर्शक को आनंद की अनुभूति कराता है। आचार्य भरत मुनिने रस निष्पत्ति का सूत्र दिया है –
विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगात् रस निष्पत्ति : अर्थात् विभाव, अनुभव और व्यभिचारी (संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।
रस को काव्य की आत्मा माना जाता है। रस के अंग (अवयव) चार माने जाते हैं।
- स्थायी भाव,
- विभाव
- अनुभाव और
- संचारी (व्यभिचारी भाव)
(1) स्थायी भाव : स्थायीभाव जन्मजात होते हैं। ये मनुष्य के चित्त में हमेशा विद्यमान रहते हैं। कारण के उपस्थित होने पर ये जाग्रत होकर प्रकट होते हैं। आरंभ में रसों की संख्या नौ मानी गई थी, तद्नुसार नौ स्थायी भाव भी थे। सूर काव्य के आधार पर वात्सल्यभाव की स्वीकृति से वात्सल्य नामक एक नया रस अस्तित्व में आया। साथ ही तुलसी-सूर-मीरा के काव्य में भक्ति के महत्त्व को स्वीकार करने के बाद ‘भक्ति रस’ नामक एक अन्य रस का अस्तित्व स्वीकार किया गया। आज रसों की संख्या नौ से बढ़कर ग्यारह हो गई है। इनके स्थायी भाव इस प्रकार है :
(2) विभाव : सामान्यतया सुषुप्तावस्था में रहनेवाले स्थायी भावों को जाग्रत या उद्दीप्त करनेवाले व्यक्ति, वस्तु या परिस्थितियों आदि को विभाव कहा जाता है। विभाव के दो प्रकार होते हैं –
(क) आलंबन विभाव और
(ख) उद्दीपन विभाव।
(क) आलंबन विभाव – जिस (व्यक्ति-वस्तु) पर मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आलंबन विभाव कहते हैं। इसके भी दो प्रकार हैं –
- आश्रय और
- विषय। जिसके मन में ये भाव उत्पन्न होते हैं उसे आश्रय कहते हैं। हास्य रस में जोकर की हरकतें, पोशाक, आंगिक क्रियाएँ करनेवाला वह स्वयं आलंबन विभाव है। उसके कार्य उनका विषय है। उसकी हरकतें उद्दीपन विभाव है।
(ख) उद्दीपन विभाव : जो आलंबन द्वारा जाग्रत भावों को उद्दीप्त करते हैं उन्हें उद्दीपन विभाव कहा जाता है। जोकर की ‘अजीब हरकतें’, विचित्र वेशभूषा उद्दीपन विभाव है। शृंगार रस में चाँदनी, पुष्पगंध आदि उद्दीपन विभाव हैं।
(3) अनुभाव : स्थायी भाव जाग्रत होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। जोकर को देखकर हँसना, चकित होना, ताली बजाना आदि अनुभाव हैं। अनुभाव के दो प्रकार हैं – सात्विक (अयत्नज) और कायिक (यत्नज)।
(4) संचारी भाव : स्थायी भाव के साथ-साथ जो मनोभाव प्रकट होकर तिरोहित होते हैं, उन्हें संचारी भाव कहा जाता हैं। ये मनोविकार पानी के बुलबुलों की भाँति उत्पन्न होकर विनष्ट होते हैं। स्थायीभाव हर रस का निश्चित है, किंतु एक संचारी भाव अनेक रसों में हो सकता है। इनकी संख्या 33 मानी गई है।
रस-अवयवों का उदाहरण
मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों को पढ़िए –
“क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही स्तब्ध निशा,
है स्वच्छंद समुंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति नटी के कार्यकलाप,
पर कितने एकांत भाव से कितने शांत और चुपचाप।”
- स्थायी भाव – आश्चर्य
- आश्रय – दर्शक – –
- आलम्बन – पंचवटी नामक स्थल
- उद्दीपन – स्वच्छ चाँदनी, निस्तब्ध रात्रि, रात की नीरव शांति
- अनुभाव – आश्चर्य व्यक्त करना, रोमांच आदि
- संचारी भाव – मोह
- रस – अद्भुत
आइए मान्य नौ रसों का संक्षिप्त परिचय देखें –
(1) श्रगार रस : शृंगार रस का स्थायी भाव है – रति। नायक-नायिका आश्रय हैं। चाँदनी रात, होली-उत्सव, बिजली चमकना – वर्षा आदि उद्दीपन हैं। इनके साथ संचारी भाव लगे रहते हैं। चिंता, लज्जा, उत्सुकता तथा भय आदि अनुभाव हैं। ये संयोग शगार के अंग है। शृंगार रस के दो भेद हैं – (1) संयोग शृंगार, (2) वियोग शृंगार।
वियोग शृंगार में भी आश्रय नायक-नायिका ही हैं। कोयल की कूक, पपीहे की पुकार, भौरों का गुंजार आदि उद्दीपन हैं। विषाद और मोह आदि संचारी भाव हैं। दोनों के एक-एक उदाहरण देखिए – संयोग शृंगार :
(1) बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै, भौंहनि हसै, दैन कहै नटि जाय।।
(2) कहत नटत रीझत खिजत मिलत खिलत लजियात।
भरे भुवन में करत है नैनन ही सो बात।।
(3) नैना अंतरि आव तूं ल्यौं हौं नैन झपेऊ।
ना हौं देखू और कूँ ना तुझ देखन देहुँ।
वियोग शृंगार :
चहूँ खंड लागे अँधियारा, जो घर नाहूँ कंत पियारा।
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी ! तुम देखी सीता मृगनयनी।।
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंज।
तब वे लता लगति अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।
वृथा बहति जमुना खग बोलता वृथा कमल फूल अलि गुंजैं।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानुभई भुंजै।
हे ऊधो कहिए माधव सो विरह विरद कर मारत लुंजें।
सूरदास प्रभु को मग जो हत, अँखियाँ भई वरन ज्यों गुंजै ॥
वीररस:
उत्साह की अतिशयता विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के सहयोग से वीररस की दशा को प्राप्त होती है। यह मुख्य रूप से जीवन के जिन चार क्षेत्रों में पाई जाती है, उसीके आधार पर वीररस के चार विभाग किए जाते हैं –
जैसे – युद्धवीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर।
उदाहरण देखिए –
(i) युद्धवीर :
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था।
गिरता न कभी चेतक तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि मस्तक पर या आसमान पर घोड़ा था।
रे, रोक, युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दो उनको स्वर्गधीर।
पर फिरा हमें गांडीव, गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर।
(ii) धर्मवीर :
मानवता का मरमी सुजान, आया तू भीति भगाने को।
अपदस्थ देवता की नर में, फिर से अभिसिक्ति कराने को।
तू चला लोग कुछ चौंक पड़े, तूफान उठा या आँधी है,
दुनिया की बोली रूह अरे, यह तो बेचारा गाँधी हैं।
(iii) दानवीर :
दिया सबकुछ सहा सबकुछ, हरिश्चंद्र बिक गए स्वयं भी।
पत्नी-पुत्र दास दास बन गए, तो भी धर्म हारा न कभी।
(iv) दयावीर :
पहचानो कौन चल जग से, अब भी ये चरण अभयकारी।
रोओ भुज में भर वही वक्ष, जिसमें तुमने गोली मारी ॥
3. हास्य रस :
जहाँ विलक्षण स्थितियों, वचन अथवा क्रिया-कलाप आदि द्वारा हँसी उत्पन्न हो वहाँ ‘हास’ नामक स्थायीभाव, विभाग, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से हास्य रस का रूप धारण करता है। विकृत चेष्टाओं, वचनों अथवा हँसी उत्पन्न करनेवाले कार्यों का वर्णन हास्य रस कहलाता है। जैसे –
- सलवार चली, सलवार चली, धोती की दशा बिगाड़ चली।
आ गया पैजामे को बुखार, पैंटों का आसन डोल उठा,
जब भारत का बच्चा-बच्चा, सलवारों की जय बोल उठा। - आधुनिका पत्नी मिली, पति को पड़ी नकेल।
वाक्शास्त्र में पास थी, पाकशास्त्र में फेल।
पाकशास्त्र में फेल कर दिया चूल्हा चालू।
स्वेटर बुनने लगी, जल गए सारे आलू।
पुस्तक खोली पति से बोली, जल्दी आओ,
जले हुए आलुओं को बर्नोल लगाओ ॥ - मोछन को कीन्हें सपरचट्ट, मुँह पउडर पोते, सिर केश बढ़े,
अंटी ओढ़े तहमद पहने बाबूजी आयके रहेन खड़े।
मैं कहाँ ‘मेम साहब सलाम’, वे बोले रे चुप डैम फूल
मैं मेम नहीं मैं साहब हूँ, हम कहे बड़ा ध्वाखा होइगा।। - हाथी जैसी देह है, गेंडे जैसी चाल।
यहि बानिक को मन बसो सदा बिहारीलाल। - मेरे सामने वाली खूटी पर एक फटा पजामा लटका है,
कहीं और न ज्यादा फट जाए, बस इसी बात का खटका है।
दरजी ने सिलकर जोड़ा था, धोबी ने धोकर फाड़ दिया,
बेशर्म भाग्य के मारे ने, मेरा सारा ड्रेस बिगाड़ दिया।
मैं कैसे बाहर जाऊँ मेरा ध्यान इसी में अटका है,
मेरे सामने वाली खूटी पर एक फटा पजामा लटका है।
4. करुण रस :
‘शोक’ नामक स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारीभावों के संयोग से करुण रस दशा को प्राप्त होता है। प्रिय वस्तु या इष्ट के नाश से उत्पन्न दुःख को शोक कहते हैं। यही शोक जब विभाव, अनुभाव, संचारी भावों से पुष्ट होकर व्यक्त होता है तो उसे करुण रस कहते हैं।
जैसे –
- पहचानो कौन चला जग से ऐ पापी ! अब कुछ होश करो।
गति नहीं अन्य, गति नहीं अन्य, इन चरणों को पकड़ो, पकड़ो।
रोओ मिट्टी से लिपट गहो, अब भी ये चरण अभयकारी,
रो ओ भुज में भर वही वक्ष, जिसमें तुमने गोली मारी ॥ - हा! सही न जाती मुझसे, अब आज भूख की ज्वाला।
कल से ही प्यास लगी है, हो रहा हृदय मतवाला ॥ - रो-रोकर सिसक-सिसक कर कहता मैं करुण कहानी,
तुम सुमन नोचते फिरते, करते जानी-अनजानी।। - हा ! वृद्धा के अतुल धन हा ! वृद्धता के सहारे !
हा ! प्राणों से परमप्रिय हा ! एक मेरे दुलारे। - सोक विकल सब रोवहिं रानी। रूप सील गुण तेज बखानी।
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहिं भूमितल बारहिबारा ॥
(5) रौद्ररस :
‘क्रोध’ नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग रौद्र रस का रूप धारण करता है।
जैसे –
- सुनहुँ राम, जे शिव धनु तोरा। सहसबाहुसम सो रिपु मोरा ॥
सो बिलगाई, बिहाइ समाजा। न तो मारे जैहैं सब राजा।। - अति रिस बोले बचन कठोरा। कहुँ जड़ जनक धनुष कै तोरा।
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महिजहँ लगि तव राजू ॥ - उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उसका लगा।
मानो हवा के शोर से सोता हुआ सागर जगा॥
मुख बालरवि सम लाल होकर, ज्वाला-सा बोधित हुआ।
प्रलयार्थ उसके मिस वहाँ क्या काल भी क्रोधित हुआ।।
(6) भयानक रस :
‘भय’ नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारीभावों के संयोग से भयानक रस का रूप ग्रहण करता है। किसी भयानक या अनिष्टकारी वस्तु को देखने, उसका वर्णन सुनने, स्मरण करने आदि से जो व्याकुलता उत्पन्न होती है, वह भय है। जहाँ भय’ पुष्ट और विकसित हो, वहाँ भयानक रस होता है।
जैसे –
- भए भुवन घोर, कठोर रवि बाजि तजि मारग चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि, अहि कूल कूरम कलमले। - इधर गरजती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों-सी,
चली आ रही फेन उगलती, फन फैलाए व्यालों-सी ॥ - ढाहे महीधर-शिखर को टिन्ह विविध-विध ज्वाला चले,
धहरात जिमि पवि-पात गरजत, प्रलय के जनु बादले ॥ - असगुन होहि नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेल करारा।
खर सियार बोलहिं प्रतिकूला। सुनि-सुनि होंहि भरत मन सूला।
श्रीहत सर-सरिता बनबागा। नगर बिसेषि भयावन लागा।। - हा-हाकार हुआ क्रंदनमय, कठिन कुलिस होते थे चूर।
हुए दिगंत बधिर भीषणरव, बार-बार होता था क्रूर ॥
(7) वीभत्स रस :
घृणित वस्तु को देखकर या उसके विषय में सुनकर उत्पन्न होनेवाली घृणा या ग्लानि से जुगुप्सा (घृणा) नामक स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों के संयोग से वीभत्स रस का रूप धारण करता है। भोक्ता के मन में उत्पन्न होनेवाला घृणा का भाव वीभत्स रस को पुष्ट करता है।
जैसे –
- गिद्ध चील सब मंडप छावहिं। काम कलोल करहिं औ गावहिं।।
- इस ओर देखो, रक्त की यह कीच कैसी मच रही।
है पट रही खंडित हुए बहु रुंड-मुंडों से मही ॥
कर-पद असंख्य कटे पड़े, शस्त्रादि फैले हैं तथा।
रण-स्थली ही मुंड का एकत्र फैली हो पथा ॥ - सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहिं आनंद उर धारत।
गीध आँखि को खोदि-खोदि के माँस उपारत।
रचान अँगुरिन काटि-काटि के खात बिदारत।।
(8) अद्भुत रस :
अद्भुत वस्तुओं का विषयों को देखने, उनके बारे में सुनने या पढ़ने से मन में विस्मय (आश्चर्य) का भाव जाग्रत होता है। यह विस्मय नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से अद्भुत रस की दशा को प्राप्त होता है।
जैसे –
- “उदर माँझ सुनु अंडजराया। देखेउ बहु ब्रह्मांड निकाया।
अति विचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका ॥
कोटिन्ह चतुरानन, गौरीक्षा अगनित उडुगन, रवि रजनीशा ॥
जे नहिं देखा, नहिं सुना, जे मनहूँ न समाइ॥” - एक अचरज मैं ऐसा देखा, कुआँ में लग गई आग।
पानी जल कोइला भया, मछली खेलें फाग ॥ - भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी, अद्भुत रूप निहारी ॥
(9) शांतरस :
शांतरस का स्थायी भाव निर्वेद (वैराग्य) है। इसके आलंबन भी विशिष्ट हैं, जिनमें तत्त्वज्ञान तथा परमात्म-चिंतन मुख्य हैं। निर्वेद नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग शांत रस का रूप धारण करता है। संसार की निस्सारता, जीवन-वस्तुओं की क्षणभंगुरता – नश्वरता का अनुभव करने से ही चित्त में वैराग्य उत्पन्न होता है, जिससे शांत रस की उत्पत्ति होती है।
जैसे –
- अब जनगृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिय समर श्रम छीजे ॥
देखि कोस, मंदिर संपदा। देहु कृपालु कपिन कर मुदा ॥
सबबिधि नाथ मोहिं अपनाइय। पुनि मोहिं सहित अवधपुर जाइय ॥ - ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की।
एक-दूसरे से न मिल सके,
यह विडम्बना है जीवन की॥ - समरस थे जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था। - मेरो मन अनंत कहाँ सुख पावै।।
जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवै। - कबिरा खड़ा बजार में मांगै सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।
(10) वात्सल्य रस :
अपनी संतान के प्रति रतिभाव जब उपयुक्त विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग स्वरूप आनंद में परिणत हो जाता है।
पुत्र-पुत्री, बालक, अनुज, शिष्य इत्यादि के प्रति प्रेम का भाव स्नेह कहलाता है। यह रस ‘वत्सल’ नामक स्थायी भाव के विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से संपुष्ट होकर वात्सल्य रस का रूप धारण करता है।
जैसे –
- वह मेरी गोदी की शोभा, सुख-सुहाग की है लाली।
शाही शान भिखारिन की है, मनोकामना मतवाली।। - दादा ने चंदा दिखलाया, नेत्र नीरयुत चमक उठे।
धुली हुई मुसकान देखकर, सबके चेहरे दमक उठे।। - मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।
मैं बालक बहियन को छोटो छी को केहि बिधि पायो।
ग्वाल-बाल सब बैर पड़े हैं, बरबस मुख लपटायो। - संदेशो देवकी सो कहियो।
मैं तो धाय तुम्हारे सुत की दया करत नित रहियो।
जदपि टेव तुम जानत है हो, तऊ मोहिं कहि आवै।
प्रात होत मेरे लाल को, माखन रोटी भावै।।
भक्तिरस :
इस रस का स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति है। देवता या ईश्वर के प्रति प्रेम ही विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से भक्ति रस में परिणत हो जाता है। भक्ति में नौ प्रकार की भक्ति मानी गई है, जो नवधा भक्ति कहलाती है – नाम स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, आत्म निवेदन, श्रवण, कीर्तन एवं सख्य भाव। उदाहरण इस प्रकार हैं –
- क्या पूजा क्या अर्चन रे।
उस असीम का सुंदरमंदिर मेरा लघुतम जीवन रे। - तुम दयालु, दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज हारी।
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मो सों।
मो समान आरत नहि, आरतहरि तो सों ॥ - मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोय
- राम सौं बड़ो है कौन, मो सो कौन छोटो?
राम सौं खरो है कौन, मो सो कौन खोटो?